सनत जैन
भारत में अब एक नई बहस छिड़ गई है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में आर्थिक विकास कम होता है। सामाजिक विकास पर भी इसका असर पड़ता है। औद्योगिक और इंफ्रास्ट्रक्चर विकास लोकतांत्रिक व्यवस्था में वेसा नहीं होता है। जैसा तानाशाही व्यवस्था में होता है। शासन व्यवस्था में तानाशाही या लोकतांत्रिक व्यवस्था में शासक को लेकर नई बहस छिड़ गई है। 1975 मे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू किया था। इसके बहुत अच्छे परिणाम देखने को मिले थे। लगभग 18 माह में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियां नियंत्रित एवं बेहतर हो गई थी। उसी दौर में तेजी के साथ विकास भी हुआ। लोग समय पर ऑफिस पहुंचने लगे थे। अपराधी भयभीत हो गए थे। ट्रेन और बसें निर्धारित समय पर चलने लगी थी। हरित क्रांति जैसे कार्य आपातकाल में ही संभव हो सके।
पंचवर्षीय योजनाओं का सफल क्रियान्वन भी इन्ही 18 माह में सबसे अच्छा देखने को मिला। कारोबारी भी ईमानदारी के साथ सरकार के कानून का पालन कर रहे थे। लोकतांत्रिक व्यवस्था से क्या विकास पिछड़ता है। इसको लेकर भी कई दावे किए जा रहे हैं। आपातकाल जब भारत में लगा था। तब यह कहा गया लोकतंत्र को बड़ी छति पहुंचाई गई है। लोगों के मौलिक अधिकार खत्म हो गए। आपातकाल में भारत मे तेजी के साथ विकास भी हुआ। इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। कानून व्यवस्था की स्थिति भी उसे समय सबसे अच्छी थी। इंदिरा गांधी के ऊपर अंतरराष्ट्रीय दबाव था, भारत में आपातकाल खत्म करके लोक तांत्रिक व्यवस्था को बहाल करें। जिस तरह के परिवर्तन 18 महीने में देखने को मिले थे। उसके बाद यह दावा किया जा रहा था, चुनाव होने पर इंदिरा गांधी को एक तरफा जीत मिलेगी। यही कारण था, इंदिरा गांधी ने आपातकाल हटाने की घोषणा करने के साथ ही चुनाव का भी ऐलान कर दिया था। 1977 में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हुए। भारत में पहली बार आपातकाल लगाया गया था। जैसे ही आपातकाल हटा, उसके बाद अफवाहों ने जोर पकड़ा। मीडिया भी सेंसरशिप के कारण सरकार से नाराज था। मात्र 2 महीने में ऐसा माहौल बना,जिसके कारण इंदिरा गांधी को उत्तर भारत के राज्यों में करारी पराजय का सामना करना पड़ा।
कौशिक बसु विश्व बैंक के पूर्व चीफ इकोनॉमिस्ट रहे हैं। उन्होंने अपने लेख में 3 अगस्त 2010 की घटना का जिक्र किया है। विज्ञान भवन में आयोजित कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उपस्थित थे। उनकी उपस्थिति में अमर्त्य सेन ने भारत की विदेश नीति की तीखी आलोचना की थी। उनकी आलोचनाओं का जवाब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने भाषण में इस मंच से दिया। कार्यक्रम खत्म होने के बाद अमर्त्य सेन और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह विचार विमर्श करते हुए सभा हाल से बाहर निकले। वर्तमान में इस तरह की आलोचना को राष्ट्रद्रोह मान लिया जाता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी विषय के निर्णय में विलंब होता है। लोग अपने-अपने तरीके से अपनी-अपनी बातें रखते हैं। निर्णय में पारिदर्शिता और जवाब देही होती है।
जब तानाशाही शासन होता है। तब कोई विरोध करने का साहस नहीं करता है। जल्द निर्णय होते हैं, उनमें पारदर्शिता और जवाबदेही नहीं होती है। निर्णय अच्छे हैं, या गलत हैं। इसका फैसला भविष्य करता है। जो भी निर्णय लिए जाते हैं, उनके अनुसार काम जल्द होना शुरू हो जाते हैं। जिसके कारण औद्योगिक इंफ्रास्ट्रक्चर एवं आर्थिक विकास की गति बढ़ जाती है। यह कितना सही है, यह कहना मुश्किल है। बहरहाल भारत में इस समय अघोषित आपातकाल जैसे हालात हैं। मीडिया पूरी तरीके से सरकार के इशारे पर काम कर रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर वैसे ही निर्णय लिए जा रहे हैं। जैसे आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी के नाम पर निर्णय लिए जाते थे। अदालतें,जांच एजेंसियांएवं सरकारी विभाग सरकार के इशारे पर काम कर रहे हैं। पिछले 10 वर्षों में इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में जो विकास कार्य हुए हैं,वह दिख रहे हैं। आर्थिक आधार मजबूत हुआ है। शासन व्यवस्था में तानाशाही देखने को मिल रही है। तानाशाही के दौर में अर्थव्यवस्था में अल्पकालिक बढ़ावा जरूर मिलता है। लेकिन यह स्थाई नहीं होती है।
1975 के घोषित आपातकाल और 2014 के अघोषित आपातकाल की स्थिति को देखने से यही लगता है। 1975- 76 में भारत की विकास दर 3.5 फीसदी से बढ़कर आपातकाल में 9 फीसदी पर पहुंच गई थी। जो उस समय अकल्पनीय था। आपातकाल खत्म होने के बाद 79-80 मे विकास दर घटकर 5.2 फीसदी पर आ गई थी। 2003 के बाद वैश्विक व्यापार संधि के कारण भारत की विकास दर तेजी से बढ़ना शुरू हुई। 2003 से लेकर 2011 के बीच में भारत की विकास दर वैश्विक स्तर पर सबसे शीर्ष पर बनी रही। 2008-09 के 1 साल में अमेरिका की आर्थिक मंदी के चलते भारत की विकास दर में इसका थोड़ा असर हुआ था। फिर भी भारत की आर्थिक विकास दर 8 फ़ीसदी की दर से दुनिया के अन्य देशों की तुलना में सबसे ज्यादा थी।
भारत में एक बार फिर शासक तानाशाह होना चाहिए या लोकतांत्रिक व्यवस्था का होना चाहिए। 1930 के दशक में जब पूरी दुनिया में पूंजीवाद हावी था। दुनिया के देशों में उग्र राष्ट्रवाद का उदय हुआ था। आलोचना करने वालों को देशद्रोही घोषित किया जाने लगा था। इसके बाद पूंजीवाद के साथ-साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था में समाजवाद का नया आगाज हुआ। शासन व्यवस्था में गरीबों को भी उसी दौर में स्थान मिला। तानाशाही व्यवस्था में कम्युनिज्म भी सारी दुनिया को देखने मिला। सोवियत संघ और चीन इसके बड़े प्रमाण हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले लोकतंत्र और तानाशाही व्यवस्था को लेकर जो नई बहस शुरू हुई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विपक्ष के नेता राहुल गांधी की छवि में यही लड़ाई देखने को मिल रही है। 2024 के लोकसभा चुनाव में तय होगा, कि भारत लोकशाही को पसंद करता है,या तानाशाही को पसंद करता है। 2004 से 2014 तथा 2014 से 2024 की शासन व्यवस्था और परिणाम भी सबके सामने हैं। र्निर्णय मतदाताओं को करना है।