प्रफुल्ल कोलख्यान
अब सामने विधानसभा के चुनाव और आम चुनाव के नतीजों के बाद भावनाओं के ज्वार का नया दौर शुरू हो चुका है. लोकतंत्र की जमीन पर राजनीतिक जख्मों के निशानों को पहचानने की कोशिशें जारी है. राजनीतिक मरहम-पट्टी की कोशिशें जा रही है. लेकिन सत्ताधारी दल के प्रवक्ताओं को पूरी छूट है कि वे अपने-अपने राजनीतिक जख्मों की मरहम-पट्टी के साथ-साथ विपक्ष के राजनीतिक जख्मों को कुरेदने की ताक में सावधानी और ‘मजबूती’से लगे रहें. जख्मों को कुरेदने की इसी प्रवृत्ति के चलते राजनीति का मौसम फिर दबाव और प्रभाव में है. मूल बात यह है कि भारत के लोकतंत्र के मूल्यों में गिरावट का खतरा अभी भी बना हुआ है. राजनीतिक दलों के लिए लोकतंत्र की अपनी-अपनी ‘परिभाषाएं’ हैं. राजनीतिक दल अपनी-अपनी विचारधारा के अनुसार लोकतंत्र को परिभाषित करते हैं. लोकतंत्र की उनकी परिभाषा जो भी हो, सवाल यह बनता है कि वह परिभाषा संविधान की मूल भावना की संगति में है या नहीं! मूल्य-बोध का संबंध विचारधारात्मक अवधारणाओं से होता है.
विचारधाराओं में सांस्कृतिक, लोकतांत्रिक, संवैधानिक अवधारणाओं में फर्क से सांस्कृतिक, लोकतांत्रिक, संवैधानिक और नागरिक मूल्य-बोध में फर्क पैदा हो जाता है. कांग्रेस और राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा की बुनियाद में फर्क है. इस फर्क का प्रभाव इनकी राजनीति और राजनीतिक दृष्टि में भी दिखाई पड़ता है. जनता के जीवन-बोध, जीवनयापन के अवसरों और सामाजिक सरोकारों पर भी इसका असर पड़ता है.
सियासी तूफान के संकेत मिल रहे हैं. जनता दल यूनाइटेड के नेता केसी त्यागी राष्ट्रीय प्रवक्ता के दायित्व से मुक्त हो गये हैं या कर दिये गये हैं. केसी त्यागी समाजवादी विचारधारा, दल और आंदोलन से जीवन भर जुड़े रहे हैं. समाजवादी आंदोलन और विचारधारा के विभिन्न संस्करण बनते-बिगड़ते रहे हैं. भारत में समाजवादी दल के गठन, विभाजन, विखंडन और विभ्रम के इतिहास में फिलहाल जाना जरूरी नहीं है. फिलवक्त इतना उल्लेख करना ही काफी है कि अभी राष्ट्रीय जनता दल (तेजस्वी यादव), समाजवादी पार्टी (अखिलेश यादव) लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास : चिराग पासवान), राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी (पशुपति कुमार पारस), जननायक जनता पार्टी (दुष्यंत सिंह चौटाला) और भारतीय राष्ट्रीय लोकदल (अभय सिंह चौटाला) सभी समाजवादी विचारधारा की पृष्ठ-भूमि से जुड़े राजनीतिक दल हैं.
लोकतंत्र में राजनीतिक दलों का व्यक्ति मालिकाना में हो जाना जितना अ-वांछनीय है, उससे कहीं अधिक खतरनाक है दलों का ‘स्थाई बहुमत के जुगाड़’ के आधार पर जाति आधारित वोट बैंक का व्यक्ति के एकाधिकार में फंस जाना. आज उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और बिहार में तेजस्वी यादव के स्थाई बहुमत के जुगाड़ को किसी दूसरे ‘यादव’ द्वारा हिलाना तो दूर, छूना भी मुश्किल है. विडंबना है कि अपने राजनीतिक एकाधिकार के जुगाड़ में लगे नेताओं से हमारा लोकतंत्र उम्मीद रखता है कि वे राज्य-शक्ति की एकाधिकार और सर्वसत्तावाद की प्रवृत्ति से जूझेंगे. समाजवादी पृष्ठ-भूमि के नेता केसी त्यागी के नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड के प्रवक्ता के दायित्व से मुक्त होने या किये जाने की घटना को इस परिप्रेक्ष्य में समझना जरूरी है.
एक बहुत ही सशक्त नागरिक आक्रोश और हलचल का राजनीतिक अपचालन करने की भारतीय जनता पार्टी की कोशिश को विफल करने में कामयाब होती दिख रही है. ममता बनर्जी और उनकी तृणमूल कांग्रेस इंडिया अलायंस से जुड़ी हुई हैं. जाहिर है कि इस घटना के प्रतिवाद और प्रतिरोध की जरूरत और जटिलताओं की संवेदनशीलता को समझना और स्वीकार करना होगा. ‘न्याय चाहिए’ की गुहार करते हुए यह धरना-प्रदर्शन-आंदोलन पूरी तत्परता से चल रहा है. इस समय पश्चिम बंगाल विधानसभा के विशेष अधिवेशन में यौन हिंसा और हत्या के मामलों में प्रस्तावित नये कानून पर चर्चा जारी है. यह ठीक है कि सभ्यता के विकास में आगे बढ़ने, आगे बढ़कर जीत का दावेदार बनने, कब्जा करने जैसी प्रवृत्तियों का योगदान रहा है. इस योगदान में भारी उथल-पुथल की भी कोई परवाह नहीं करने की भी प्रवृत्ति रही है. समाज और राज्य व्यवस्था एवं सहयोगिता-हीन प्रतिद्वंदिता से निहायत निरीह लोगों की जिंदगी तहस-नहस और तबाह होती रही है. जिंदगी को तहस-नहस और तबाही से बचाने और साथ ही सभ्यता विकास में निहित बुनियादी प्रवृत्तियों को संतुष्ट करने के लिए खेल प्रतियोगिताओं और भावनाओं का इंतजाम किया गया.
सबसे बड़े खेल आयोजन ऑलंपिक के इतिहास की खोजबीन की जा सकती है. जिंदगी को तहस-नहस और तबाही से बचाने में प्रतिद्वंदिता के साथ ही सहयोगिता की भी भूमिका होती है. समाज और राज्य व्यवस्था में स्वस्थ प्रतिद्वंदिता और सहयोगिता में समकारक संतुलन को सुनिश्चित करने के लिए लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का विकास हुआ है. भारत की राजनीति की समस्या यह है कि दल के बाहर सहयोगिता-हीन प्रतिद्वंदिता के कारण लोकतंत्र का संवैधानिक संतुलन आज पूरी तरह से बिगड़ गया है. राजनीतिक ‘प्रतिद्वंद्विता’ राजनीतिक दुश्मनी के साथ-साथ सामाजिक वैमनस्य को बढ़ाने और ‘सहयोगिता’ राजनीतिक रूप से फुसलाने-रिझाने की धूर्त तरकीब बनकर रह गई है.
राजनीतिक दल के भीतर स्वस्थ प्रतिद्वंदिता के लिए कोई सम्मानजनक जगह बची नहीं और स्थाई बहुमत के जुगाड़ के लिए समर्थकों को फुसलाने-रिझाने से अधिक सहयोगिता की कोई भूमिका नहीं है. सत्ताधारी दलों के छोटे-छोटे ‘समर्थक-समूह’ गैर-संवैधानिक और आपराधिक ‘शक्ति-केंद्र’ बन जाते हैं और यहां-वहां जब-न-तब साधारण नागरिक की गरिमा को खंडित करते-फिरते हैं. सामाजिक न्याय हो या आर्थिक न्याय हो या न्याय का कोई भी संदर्भ और स्वरूप हो, बेमानी बनकर रह जाता है. असहमत होने, सहानुभूति न रखने और विरोधी होने में फर्क होता है. यह सच है कि ‘मंडल की राजनीति’ से कांग्रेस की न सहमति थी न सहानुभूति. लेकिन कांग्रेस मंडल की राजनीति के विरोध की राजनीतिक स्थिति के लिए अपने को तैयार भी नहीं कर पाई. स्वार्थ-खंडित दृष्टि में आत्मावलोकन का नैतिक साहस का नितांत अभाव होता है. लोकतांत्रिक राजनीति के नये दौर में राजनीतिक दल अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थ को कितना तरजीह देते हैं और कितना जन-हित के लोकतांत्रिक पक्ष में खड़े होकर आत्मावलोकन का नैतिक साहस जुटा पाते हैं, यह आत्मावलोकन के लिए महत्वपूर्ण होगा. सियासी तूफान का मतलब समझने के लिए सियासत के मिजाज को समझना जरूरी है. मतलब यह है कि ‘कमंडल की राजनीति’ ने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है, ‘मंडल की राजनीति’ का लक्ष्य अभी भी दूर है.