मनीष सिंह
अमिताभ बच्चन चुनाव जीत जाते हैं. पार्टी कैबिनेट की मीटिंग है. तमाम नेता बैठे हुए हैं. किसी ने भगवा गमछा लगाया है, किसी ने भगवा जैकेट लगाई है, किसी ने भगवा टोपी…एक तो ऊपर से नीचे भगवा लूंगी-कुर्ता पहन कर फैंटा की बोतल बना बैठा है. सबके माथे पर लम्बे लंबे तिलक है. बताने की जरूरत नही कि पार्टी कौन सी है.
पार्टी के अध्यक्ष महोदय अमिताभ का स्वागत करते हैं. कैबिनेट की लिस्ट उनके हाथ में दी जाती है लेकिन पहले कुछ लोगों से मिलाया जाता है. इनसे मिलिए, ये श्रीमान सुदामा हैं. शपथ लेते ही आपको इन्हें चार एयरपोर्ट, पांच बंदरगाह और खाने पीने के सारे सामान की मोनोपॉली देनी है. अमिताभ मि. सुदामा को देखते हैं, वह हाथ जोड़कर दांत निपोरता है.
दूसरे व्यक्ति से मिलाया जाता है. अमिताभ को उसे सारी टेलीफोन, पेट्रोकेमिकल, रिटेल बिजनेस की मोनोपोली देनी है. फिर तीसरे, चौथे, पांचवे आदमी से – किसी का कर्ज माफ करना है, किसी को विदेश भगाना है.
अमिताभ कैबिनेट की लिस्ट पढ़ते हैं. तड़ीपार को गृहमंत्री, बलात्कारी को महिला विकास का मंत्रालय देना है. गाड़ी से लोगों को कुचलने वाला ट्रैफिक मंत्री बनने को तैयार बैठा है. सीन लम्बा है, यू ट्यूब पर ‘इंकलाब’ नाम की इस मूवी को आप देख सकते हैं.
लब्बोलुआब यह कि अमिताभ सर्काज्म और देश भक्ति से ओत प्रोत एक भाषण देते हैं. इसके बाद ब्रीफकेस खोलते हैं. इसमें एक स्टेनगन है. गोलियां धड़ धड़ चलती हैं. तमाम नेता भागते हैं, लेकिन सारे बदमाश नेता अंततः मारे जाते हैं. राजनीति एक झटके में साफ हो जाती है.
अमिताभ, बाहर आते हैं, सरेंडर कर देते हैं. जनता लहालोट है, वे जार्ज फर्नांडीस स्टाइल में अपनी बेड़ियां लहराते हैं. मुट्ठियां भांजकर चिल्लाते हैं- इंकलाब ss.
फ़िल्म समाप्त होती है. ये 1984 में आई थी. तो मरने वाले नेता भगवाधारी नहीं, धोती-गांधी टोपी-खद्दरधारी थे. इसके बाद अमिताभ, 1985 में बड़े मजे से उसी खद्दरधारी पार्टी से चुनाव लड़े. सांसद हुए. कोई लफड़ा नहीं हुआ. सोचिये ऐसा सीन बुनकर आप 2024 मे दिखा दें ? क्या किसी डायरेक्टर, एक्टर औकात है ?? हिम्मत है ?? सोचकर देखिए, कि इसके बाद, उसका क्या ही हश्र होगा.
फिल्में, साहित्य, पेटिंग और दूसरे मास कम्युनिकेशन-इंटरटेनमेंट के मीडिया की USP यथास्थिति से प्रति विद्रोह में होती है. दरअसल, असम्भव के विरुद्ध लड़ने वाला ही तो नायक होता है. मानव हृदय का रोमांटिसिज्म, स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह ही छू पाता है. इसलिए जिस क्रिएटिव आर्ट में, स्थापित के खिलाफ, धारा के विरुद्ध संघर्ष हो, तो आम थके हारे दिल को झंकृत करता है. क्रिएटिव आर्ट के सभी फॉर्म में संघर्ष का ही रोमांटिसिज्म होता है.
तो फ़िल्म, नाटक, उपन्यास में उसकी अनुभूति दी जाती है. तभी तो दुनिया के सबसे खूबसूरत प्रेम गीत विरही ने लिखे, सबसे प्रेरणादायी गान, डिक्टेटरों की प्रजा ने गाये. मगर बखूबसूरती, ताकतवर के गुणगान में पैदा नहीं होती, नेता के जयगीत दिल में लहरें नहीं जगाते. तो पिछले दस वर्षों में देखिए, कोई गीत, कोई फ़िल्म आपके हृदय पर छाप छोड़ नहीं पाया.
बॉलीवुड कोई पीके, रंग दे बसंती, कोई इंकलाब, कोई जंजीर नहीं दे पाया. बड़े बजट की फिल्में आयी. बड़े कलाकार और सत्ता के समर्थन के बावजूद बायोग्राफिकल फिल्मों को कोई प्रतिसाद नहीं मिला.
मै अटल हूं और एक्सीडेंट प्राईमिनिस्टर, एक जैसी लुढ़की. कंगना तमाम कोशिश के बावजूद न तेजस को यादगार बना सकी, न रानी लक्ष्मीबाई जैसी दिख सकी. अक्षय कुमार, देशभक्ति की तमाम फिल्में बनाकर भी अपनी खिलाड़ी दौर के आसपास भी नहीं हैं.
जो पहले से क्रिएटिव रहे हैं, अच्छी फिल्में देते रहे, इस दौर में उनका भी कोई शाहकार नहीं. निर्माता, निर्देशक की कोशिश ये, कि कोई सीन, कोई डायलॉग, कोई चोली या घाघरा कहीं सत्ता, या उसके छिछोरे हुल्लड़गैंग के कोप का कारण न बन जाये.
नतीजा फिल्में हो, या आगे भी कोई गीत, साहित्य, संगीत आपको याद रखने लायक न मिला. राहत इंदौरी के चंद शेर और कलाम याद आते हैं. कभी सोशल मीडिया पर “सब याद रखा जायेगा” दिल जीत लेता है, कभी जावेद अख्तर नया हुक्मनामा याद रह जाता है. टीवी के परदे पर बस एक स्टार, रवीश कुमार पैदा हुआ. इसलिए कि ये लोग, बिना डिगे धारा के विरुद्ध चलते रहे.
कहना यह कि इतनी बांझ, इतनी क्लीव, इतनी कुंद कला का दौर, भारत में पहली बार आया है. इस दौर में कोई इंकलाब नहीं बन सकती. इस दौर में कोई अमिताभ, एंग्री यंग मैन नहीं बन सकता. एक डरपोक, असहिष्णु, कुंठा से भरा रेजीम अपने पूरे दौर को किस तरह से बांझ बना सकता है, हमारा ताजा इतिहास…इसका उदाहरण है.