दिव्या गुप्ता, दिल्ली
एक कुप्रथा आजकल चल पड़ी है कि पूजन आरंभ होते ही रुमाल निकाल कर सर पर रख लेते हैं. कर्मकांड के लोग भी नहीं मना करते, जबकि पूजा में सिर ढकने को शास्त्र निषेध करता है। शौच के समय ही सिर ढकने को कहा गया है।
प्रणाम करते समय, जप व देव पूजा में सिर खुला रखें। तभी शास्त्रोचित फल प्राप्त होगा।
उष्णीषो कञ्चुकी चात्र मुक्तकेशी गलावृतः।
प्रलपन् कम्पनश्चैव तत्कृतो निष्फलो जपः॥
अर्थात् –
पगड़ी पहनकर, कुर्ता पहनकर, नग्न होकर, शिखा खोलकर, कण्ठ को वस्त्र से लपेटकर, बोलते हुए और काँपते हुए जो जप किया जाता है, वह निष्फल होता है।
शिर: प्रावृत्य कण्ठं वा मुक्तकच्छशिखोऽपि वा|
अकृत्वा पादयोः शौचमाचांतोऽप्यशुचिर्भवेत् ||
अर्थात् सिर या कण्ठ को ढककर , शिखा तथा कच्छ (लांग/पिछोटा) खुलने पर, बिना पैर धोये आचमन करने पर भी अशुद्ध रहता है.
पहले सिर व कण्ठ पर से वस्त्र हटायें, शिखा व कच्छ बांधें, फिर पाँवों को धोना चाहिए, फिर आचमन करने के बाद व्यक्ति शुद्ध (देवयजन योग्य) होता है।
सोपानस्को जलस्थो वा नोष्णीषी वाचमेद् बुधः।
बुध्दिमान् व्यक्ति को जूता पहनें हुए, जल में स्थित होने पर,सिर पर पगड़ी इत्यादि धारणकर आचमन नहीं करना चाहिए।
~ कुर्म पुराण (अ.13)
शिरः प्रावृत्य वस्त्रोण ध्यानं नैव प्रशस्यते।
वस्त्र से सिर ढककर भगवान का ध्यान नहीं करना चाहिए।
उष्णीशी कञ्चुकी नग्नो मुक्तकेशो गणावृत।
अपवित्रकरोऽशुद्धः प्रलपन्न जपेत् क्वचित्॥
सिर ढककर,सिला वस्त्र धारण कर,बिना कच्छ के,शिखा खुलीं होने पर ,गले के वस्त्र लपेटकर।
अपवित्र हाथों से,अपवित्र अवस्था में और बोलते हुए कभी जप नहीं करना चाहिए।
~शब्द कल्पद्रुम.
न जल्पंश्च न प्रावृतशिरास्तथा।-योगी याज्ञवल्क्य.
न वार्ता करते हुए और न सिर ढककर।
अपवित्रकरो नग्नः शिरसि प्रावृतोऽपि वा।
प्रलपन् प्रजपेद्यावत्तावत् निष्फलमुच्यते। ~रामार्च्चनचन्द्रिकायाम्.
अपवित्र हाथों से,बिना कच्छ के,सिर ढककर जपादि कर्म जैसे किये जाते हैं, वैसे ही निष्फल होते जाते हैं।
~शिव महापुराण (अ.14)
इसलिए सिर पर पगड़ी रखकर, कुर्ता पहनकर, नंगा होकर, बाल फैलाकर, गले के कपड़ा लपेटकर, अशुद्ध हाथ लेकर,सम्पूर्ण शरीर से अशुद्ध रहकर और बोलते हुए कभी पूजा पाठ जप तप अनुष्ठान नहीं करना चाहिए।
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