गुरबचन जगत
हालांकि, सात दशकों का समय किसी मुल्क और लोगों के इतिहास में एक छोटा काल होता है, किंतु ऐसा जो देश की प्रस्थान धारा बदल दे-एक ऐसा प्रस्थान, जिसका आगाज वर्ष 1947 में जवाहरलाल नेहरू के कालजयी शब्दों के साथ हुआ था : ‘ट्रस्ट विद डेस्टिनी’। किंतु पिछले एक दशक से जो कुछ हमने देखा, वह देश की राजनीतिक, सामाजिक और संसदीय व्यवस्था वाली मौलिक सोच से एकदम विपरीत है। यह बदलाव इतनी तेजी से हुआ है कि सहसा विश्वास नहीं हो पा रहा है। परंतु क्या यह वाकई इतना तेज है? या हम उस वक्त सोते रहे जब 1970-80 के दशकों में भ्रष्टाचार, परिवारवाद और सत्ता के लालच का बीज बोया जा रहा था जो अब बड़ा होकर अमरबेल की तरह हमें जकड़ चुका है और इस दौरान हमने अपनी धुन के पक्के एक ऐसे राजनीतिक, सामाजिक संगठन को मौका दे डाला जो देश पर अपनी एकतरफा ध्रुवीयकरण वाली विचारधारा थोपना चाहता है।
आज हमारे सम्मुख ऐसा न तो कोई राष्ट्रीय राजनीतिक दल है, न ही सामाजिक संगठन जो हमें एक राह विशेष पर ले जाने को आतुर शक्तियों के सामने खड़ा हो पाए और वह रास्ता हमारे पूर्वजों की परिकल्पना से मेल नहीं खाता। किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र में वैकल्पिक विचारों का होना अनिवार्य है, जरूरत पड़ने पर उन पर संसद, मीडिया और सड़कों तक पर संवाद होना चाहिए। सहमति वाला ‘स्वर्णिम मध्य मार्ग’ बनना केवल खुले संवाद के जरिए संभव है और इस ‘मानक’ की चाहना किसी भी ऐसे समाज के लिए सरमाया है जो मानवीय विचारों और वजूद की अनेकता एवं भिन्नता का हामी है, ऐसा समाज जो सबकी साझेदारी से सद्भाव बनाना चाहता है। अगर 1947 और उसके बाद के कुछ दशकों को याद करें तो देश में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एकमात्र मुख्य राजनीतिक दल था, जिसका जन्म स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हुआ था। आजादी के आंदोलन के कद्दावर नेता कांग्रेस के बड़े मशालवाहक रहे, उस वक्त केंद्र सरकार में बड़े नेताओं से परिपूर्ण नक्षत्र-मंडल था, जिसमें जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, मौलाना आज़ाद, वल्लभ भाई पटेल, सी. राजगोपालाचारी, वाईबी चव्हाण जैसे नामवर कुछेक थे। इसी तरह राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बात करें तो गोविन्द वल्लभ पंत, डॉ. बीसी रॉय, के. कामराज, एन. संजीवा रेड्डी और बीजू पटनायक जैसी हस्तियां थीं। ये मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री तक को अपने पत्रों की शुरुआत ‘प्रिय जवाहर’ जैसे अनौपचारिक मित्रवत संबोधनों से करने का दम रखते थे। राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर कांग्रेस के पार्टी प्रधान काफी मजबूत हुआ करते थे और उन्हें निर्णय लेने की काफी छूट थी। प्रधानमंत्री, काबीना मंत्री, मुख्यमंत्री और पार्टी प्रदेशाध्यक्ष एक इकाई के रूप में मिलजुलकर काम करते थे और किसी तरह की असुरक्षा की भावना नहीं थी।
हालांकि उस वक्त कोई महत्वपूर्ण विपक्षी दल नहीं था और नेहरू बहुत ज्यादा लोकप्रिय एवं करिश्माई व्यक्तित्व के धनी नेता थे, अगर वे चाहते तो इसके बूते पर अपने लिए संविधान में तयशुदा शक्तियों से कहीं ज्यादा अपने हाथों में कर लेते, परंतु वे परम्परागत लोकतांत्रिक संसदीय व्यवहार को मानने के हामी थे। महत्वपूर्ण मुद्दों पर निर्णय लेते वक्त वे देश, काबीना, मुख्यमंत्रियों और लोगों को भरोसे में लिया करते थे। उन्हें सूबों में बतौर मुख्यमंत्री या पार्टी प्रधान ‘अपना बंदा’ थोपने की जरूरत कभी महसूस नहीं हुई। इसी तरह जब विपक्षी दल भी धीरे-धीरे फलने-फूलने लगे तो उन्होंने भी संसदीय बहसों या जनसभाओं में भाषणों के सिवा ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे विकास बाधित हो। मीडिया और न्यायपालिका को पूरी छूट थी और काम करने की पूरी स्वतंत्रता थी। यह गणतांत्रिक लोकनीति, संवेदनशील एवं भ्रष्टाचार विहीन नेतृत्व का ही नतीजा था कि हाल ही में स्वतंत्र हुआ एक राष्ट्र आधुनिक विश्व के बाकी मुख्य देशों में अपनी जगह बनाने लगा था। रजवाड़ों का विलय कर प्रजातांत्रिक बनाना, शिक्षा और स्वास्थ्य को तरजीह देते हुए देश में एम्स, आईआईटी और आईआईएम का निर्माण, परमाणु ऊर्जा विभाग की स्थापना और इस पर ध्यान देना, संविधान अंगीकार करना, पंचवर्षीय योजनाएं बनाना इत्यादि अनेकानेक ऐसे काम किए गए, अगर गिनाने बैठें तो सूची बहुत लंबी होगी। नेहरू और उनकी टीम ने बहुत-सी उपलब्धियां हासिल की थीं।
परिदृश्य में इंदिरा गांधी की आमद से चीज़ें बदलना शुरू हुईं। बेशक वे खुद भी एक लोकप्रिय और करिश्माई व्यक्तित्व की धनी थीं, लेकिन उनके अंदर कहीं असुरक्षा की भावना भी थी। उनकी काबीना, जिसे ‘किचन कैबिनेट’ (चहेतों से भरी) कहना ज्यादा उचित होगा, के सदस्य वे जल्दी-जल्दी बदल दिया करती थीं। पहला मौका मिलते ही इंदिरा ने कांग्रेस का दोफाड़ कर दिया और सिंडीकेट और इसके सदस्यों को निरर्थक बना डाला। इंदिरा ने ही सूबों में कमजोर मुख्यमंत्री और प्रदेशाध्यक्ष थोपने वाली परंपरा की शुरुआत की थी। कांग्रेस संसदीय दल के नेता और प्रदेशाध्यक्ष महज रबर की मुहर बनकर रह गए, खासकर वर्ष 1971 के बाद। यह गौरतलब है कि कांग्रेस पार्टी उस वक्त तक भी काडर रहित आंदोलन की तरह थी जबकि भारतीय जनसंघ और वामदल काडर-आधारित राजनीतिक दल थे। इस तरह का तंत्र होने के नाते कांग्रेस पार्टी राज्यों और केंद्र में विजय पाने को पूरी तरह प्रधानमंत्री के करिश्मे पर निर्भर होकर रह गई। इमरजेंसी की घोषणा के बाद संजय गांधी का उद्भव हुआ, साथ ही कामकाज का तरीका और ज्यादा अधिनायकवादी हो गया। सरकार एवं पार्टी मशीनरी पर एकाधिकार वाली पकड़ बना दी गई। मुख्यमंत्री, पार्टी प्रदेशाध्यक्ष और काबीना मंत्रियों की हैसियत मात्र ‘मिट्टी के माधो’ वाली रह गई।
इस पूरे काल के दौरान भाजपा लगातार उन्नति की ओर बढ़ने लगी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मदद से गौर करने लायक शक्ति बनकर उभरी। कांग्रेस की बनिस्बत भाजपा के पास पायेदार, अनुशासित और प्रेरित काडर होने के अलावा अपनी एक विशेष किंतु स्पष्ट विचारधारा भी थी। पार्टी को इन सबका फायदा मिला और वह वाजपेयी के नेतृत्व में केंद्र में मिलीजुली सरकार बनाने में सफल रही। इस स्थिति में भी वह कांग्रेस की अपेक्षा ज्यादा लाभ ले गई। जब भी भाजपा की सरकार बनी, उसने अपने आधार को सुदृढ़ किया और प्रशासन, मीडिया और न्यायपालिका पर अपनी पकड़ मजबूत की। उसने व्यापारिक एवं कॉर्पोरेट जगत से अच्छे संबंध कायम किए, जिनका फायदा आगे चलकर मिला।
वहीं, कांग्रेस अपने संगठनात्मक ढांचे को मजबूत बनाने में विफल रही, बल्कि तथ्य तो यह है कि इस ओर प्रयास ही नहीं किए गए, नतीजतन चुनावी जीत के लिए वह पूरी तरह ‘गांधियों’ पर निर्भर होकर रह गई। दूसरी ओर भाजपा-आरएसएस ने काडर, विचारधारा और बेहतर नेतृत्व पर आधारित एक सुचारु चुनावी-विजय तंत्र विकसित कर लिया। परिदृश्य पर करिश्माई व्यक्तित्व वाले मोदी के आगमन के साथ उक्त चुनावी मशीनरी के बूते न सिर्फ 2014 से 2019 के आम चुनावों में बल्कि राज्य विधानसभाओं में चकाचौंध करने वाली जीत हासिल की।
मौजूदा परिदृश्य की बात करें तो परेशानी इस बात से नहीं है कि कोई एक दल सत्ता में है बल्कि चिंता का कारण यह है कि देश में सशक्त विपक्ष की कमी है, जिसके अभाव में सत्तापक्ष के अनेकानेक बेजा निर्णय जनता को भुगतने पड़े हैं। आज बहुत बड़ी संख्या में भारतीय नागरिक-जो अक्सर मौन रहते हैं-उन्हें एक वैकल्पिक विचारधारा की फौरी जरूरत है, वे कुछ अलग सुनना चाहते हैं, वैसा नहीं कि उन्हें क्या खाना-पीना चाहिए या किससे प्रीत लगाना सही होता है या फिर कैसे कपड़े पहने जाएं, किस धर्म को अपनाया जाए, अपनी जमीन-जायदाद के साथ क्या करना होगा इत्यादि-इत्यादि। अपने स्वतंत्र विचार व्यक्त करने के जुर्म में हम में से किसी को सलाखों के पीछे न धकेला जाए, न ही विरोध की आवाज पर देशद्रोह का ठप्पा लगाया जाए। संक्षेप में, हम सब एक स्वतंत्र स्त्री-पुरुष का जीवन जीना चाहते हैं, ऐसी जिंदगी जो शांतिपूर्ण माहौल में व्यतीत हो, न कि डर से भरी। दरकार है एक मजबूत और जाग्रत विपक्ष की, जो एक जीवंत लोकतंत्र के लिए अत्यंत आवश्यक है। एक गणतंत्र में जनता के मुद्दों पर संवाद किसी करिश्माई नेता के मुख से न होकर या फिर चीख-चीखकर भावनाएं भड़काने वाले किसी मीडिया एंकर के मुंह से न निकलकर, सांसदों द्वारा उठाया जाए जो स्वास्थ्य, रोजगार, शिक्षा, सामाजिक भलाई, पर्यावरण एवं सुरक्षा जैसे सही विषय उठाएं।
देश के भविष्य के लिए किसी राजनीतिक दल के पास क्या ठोस रूपरेखा है, इसको लोगों के सामने प्रस्तुत करके ही वह मजबूत विपक्ष बन सकता है। यह भी तय है कि जो कोई भी नयी विचारधारा प्रस्तुत करेगा, उसकी खातिर कठिन संघर्ष करना होगा, लोगों को साथ जोड़ने के लिए आंदोलन करने पड़ेंगे। अध्ययन कक्षों में बैठकर वक्तव्य देना केवल दार्शनिकों का काम होता है, राजनीतिक नेताओं को तो सड़कों पर उतरकर जूझना पड़ता है। किसानों ने अपने आंदोलन में उद्देश्यों की पूर्ति में केवल एकमेव लीक पर ध्यान केंद्रित रखते हुए, लोगों को साथ जोड़ने का हुनर दिखाकर, अनुशासन बनाकर और अहिंसक रहकर संघर्ष कैसे किया जाए, इसका तरीका सिखा दिया है। उन्होंने यह सब बिना राजनीतिक नेतृत्व, अनुभव के दम पर केवल सही राह दिखाने वाले अवयवों से मार्गदर्शन प्राप्त करके कर दिखाया है। भले ही इस अहिंसक आंदोलन में बहुत से लोगों की मृत्यु हो चुकी है, लेकिन मिर्जा अज़ीम के शब्दों में कहें तो :-
गिरते हैं मैदान-ए-जंग में शहसवार ही
वो तिफ्ल क्या गिरे जो घुटनों के बल चले।
(लेखक मणिपुर के राज्यपाल,संघ लोकसेवा आयोग अध्यक्ष और जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।)