“नरेंद्र गिरी जैसे अतिसम्मानित संत की अकालमृत्यु ने उस अंधेरी दुनिया का दरवाजा खोल दिया जिसमें कोई झांकना पसंद नहीं करता. आम आदमी वहां पहुंच नहीं सकता और जो जानता है वह सनातन की खोखली होती जड़ों की चिंता में शांत रहता है और जो चुप नहीं रह पाता उसे चुप करा दिया जाता है. यह दुनिया राजनीति, अपराध और धर्म का गठजोड़ है जो रियल स्टेट, मंदिरों पर कब्जे, काला धन को सफेद करने जैसे बड़े कारोबार को अपने में समेटती है, जिसमें नैतिकता का कोई स्थान नहीं है.”
विहंगम नाम की इस निर्दोष सी लगने वाली पुस्तक के पेज नंबर 203 पर लिखी इन पंक्तियों से पाठक यह अंदाजा लगा सकते हैं कि इस किताब के अंदर क्या होगा. अभय मिश्र जो पर्यावरण के विषय पर लिखते हैं, जिन्होंने गंगोत्री से गंगासागर तक की चार बार यात्राएं की हैं, सह लेखक पंकज रमेंदु के साथ मिलकर लिखी जिनकी पुस्तक दर-दर गंगे काफी पापुलर है, उन्होंने इस किताब में गंगा के पर्यावरण से जुड़े मसले को तो टटोटले की कोशिश की ही है, साथ ही उन्होंने गंगा तट पर गंगोत्री से बनारस तक पसरी सामाजिक गंदगी को भी अपनी कमाल की किस्सागोई से उद्घाटित किया है.
उनकी कलम ने किसी को नहीं बख्शा है, चाहे वे संत हो, शंकराचार्य हो, अखाड़े के संचालक हो, पंडे-पुजारी हो, सरकारी लोग हो, स्थानीय दुकानदार हो, या इतिहास के पन्नों में दर्ज ऐसे लोग जिन्होंने गंगा का हित या अहित किया है. इसलिए इस किताब में जहां टिहरी में देवदार के जंगलों को उजाड़ने वाला फेडरिक विल्सन है, तो संतों के नाम पर राजनीति करने वाले करपात्री महाराज भी हैं. कस्तूरी के नाम पर बकरों के अंडकोश बेचने वाले पहाड़ी लड़के हैं तो कांवड़ यात्रा के नाम पर हाल के वर्षों में फैली अपसंस्कृति का कच्चा चिट्ठा भी. वे बांध बनने के बाद टिहरी के उजड़ने का किस्सा लिखते हैं और यह भी लिखते हैं कि रूड़की में गंगा पर बनी नहरों से क्या बदला. वे कानपुर में चमड़ा कारखानों द्वारा क्रोमियम को गंगा में गिराने जाने का किस्सा लिखते हैं, साथ ही इसे उजागर करने की कोशिश करने वाले स्थानीय पत्रकार की हत्या की कहानी भी उजागर करते हैं. ये कुंभ में संतों के बीच की राजनीति के अनछुए किस्सों को भी उजागर करते हैं.
इन सबके बीच उनकी कलम सिर्फ एक जगह नतमस्तक होती है, जब वे हरिद्वार के मातृ सदन का जिक्र करते हैं, जहां के संन्यासियों ने गंगा को बचाने की कोशिश में बारी-बारी से शहादत दी और इस किस्से में पर्यावरणविद जीडी अग्रवाल का भी नाम आता है और सरकारों को लेकर उनकी निराशा भी.
यह तो इस किताब के कंटेंट की बात है. अभय मिश्र के लिखने का तरीका भी कमाल का है. वे अपनी बात किसी सस्पेंस थ्रिलर की कहानी की तरह शुरू करते हैं, एक किस्से को उठाते हैं, उसके बहाने उस जगह की दुनिया को रचते हैं और फिर मिथकों और वहां के इतिहास के जरिये उस किस्से को विस्तार देते हैं. फिर अपनी बात धीरे से रखते हैं. इस वजह से किताब काफी रोचक और कंविंसिंग हो जाती है.
हालांकि गंगा तट के समाज के प्रदूषण की कहानी कहते हुए वे असल प्रदूषण की बात कहने से नहीं चूकते. गंगोत्री की कहानी लिखते हुए वे कहते हैं,
“बोतलें, खिलौने, मग-बाल्टी, सजावटी सामान, पूजा का सामान-कुल मिलाकर तकरीबन हर रोज पांच ट्रक प्लास्टिक गंगोत्री में उतरता है और उसमें से चार ट्रक यात्री वापस अपने घर ले जाते हैं. बचा हुआ एक ट्रक प्लास्टिक बहती हुई भगीरथी और उसके इस कस्बे में समा जाता है. इस छोटे से सीजनल कस्बे में हर रोज एक ट्रक प्लास्टिक यानी पूरे सीजन में मान कर चलिए दो सौ से ज्यादा ट्रक प्लास्टिक भगीरथी और यहां रहने वालों की जिंदगियों में अपनी जगह बना लेता है.”
आगे वे लिखते हैं, “गंगोत्री में जब से कांवड़ यात्रा ने जोर पकड़ा है तब से प्लास्टिक का एक नया ही बाजार खड़ा हो गया है.” फिर अगले अध्याय में वे कांवड़ यात्रा के दौरान हरिद्वार-ऋषिकेश के बाहर टोल के पास प्लास्टिक की 88 गाड़ियां खड़ी रहने की सूचना देते हैं, जिसके लिए व्यापारी लोकल नेता और अधिकारी से डील कर रहा होता है. फिर वे कांवड़ यात्रा से जुड़े प्लास्टिक के सामानों की सूची लिखते हैं जो डेढ़ पन्ने में समाता है.
पिछले दिनों मैंने फेसबुक पर देखा था कि इस किताब को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रदेश की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल को गिफ्ट किया था. किताब पढ़ने के बाद मैं सोच रहा हूं कि योगी जी ने क्या गिफ्ट करने से पहले इस किताब को पढ़ा होगा? वैसे इस किताब के एक अध्याय का नाम है, ‘अमृतकाल आ गया.’
Add comment