अर्थशास्त्री प्रो. ज्यां द्रेज़ लंबे समय से यह देखते आ रहे हैं कि भारतीय सरकारें ग्रामीण निर्धनों की ज़रूरतों और हितों को कोई ख़ास तवज्जो नहीं देतीं। डोनाल्ड ट्रंप दूसरी बार अमरीका के राष्ट्रपति चुन लिए गए हैं और नरेंद्र मोदी का भारत के प्रधानमंत्री बतौर तीसरा कार्यकाल चल रहा है। दोनों वोट के लिए अल्पसंख्यकों को बलि का बकरा बनाते रहे हैं। ईमेल के ज़रिये लिए गए एक साक्षात्कार में प्रो. द्रेज़ ने भारत के आत्मकेंद्रित शैक्षणिक समुदाय, ब्राह्मणवाद और श्वेत श्रेष्ठता भाव के बारे में फॉरवर्ड प्रेस से बात की।
अनिल वर्गीज
भारत और अमरीका के शैक्षणिक समुदायों में निकट के रिश्ते हैं। अनेक भारतीय अध्येता अमरीका में अध्ययन के लिए जाते रहे हैं और अमरीकी अध्येता शोधकार्य – विशेषकर सामाजिक विज्ञानों के क्षेत्र में – के लिए भारत आते रहते हैं। इन दोनों देशों के शैक्षणिक समुदायों ने अपने-अपने देशों की राजनीति को किस तरह प्रभावित किया है?
जहां तक भारत का सवाल है, मुझे नहीं लगता कि शैक्षणिक समुदाय का राजनीति में कोई ख़ास प्रभाव है – और चुनावी राजनीति में तो बिलकुल भी नहीं है। शैक्षणिक समुदाय अक्सर आत्मकेंद्रित होते हैं। हालांकि छात्र राजनीति का असर अधिक व्यापक होता है, जैसा कि सन् 1970 के दशक के मध्य में जेपी आंदोलन के मामले में हुआ था; या इस साल अमरीका में विश्वविद्यालयों के कैंपस में हुए आंदोलनों के मामले में हुआ। यह दुखद है कि भारत का वर्तमान राजनीतिक परिवेश, छात्र राजनीति ही नहीं, बल्कि हर तरह की असहमति के प्रति शत्रुता भाव रखता है।
क्या उच्च शिक्षा ने एक ऐसा राजनीतिक श्रेष्ठि वर्ग और मीडिया पैदा कर दिया है, जिसका आमजनों से कोई जुड़ाव नहीं है?
भारत की संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था श्रेष्ठि वर्ग के पक्ष में झुकी हुई है। जहां एक ओर विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों को विश्व-स्तरीय शिक्षा उपलब्ध है, वहीं दूसरी ओर हाशियाकृत समुदायों के हिस्से में आए हैं– जर्जर और जीर्णशीर्ण स्कूल। इस स्तरित व्यवस्था से विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों के हित सधते हैं और इसलिए वे परिवर्तन में बाधा उत्पन्न करते हैं। इस वजह से श्रेष्ठि वर्ग के पक्ष में ऐसा ही झुकाव मीडिया, न्यायपालिका और प्रशासन जैसे पेशों में भी देखा जा सकता हैं। राजनीतिक तबके में थोड़ी ज्यादा विविधता है और इस तबके का तुलनात्मक दृष्टि से आमजनों से अधिक जुड़ाव है। मगर इस तबके में अपनी अलग तरह का कुलीनता का भाव है और यह आवश्यक नहीं है कि वह बुद्धिजीवी श्रेष्ठि वर्ग की तुलना में कमज़ोर वर्गों के हितों के प्रति अधिक प्रतिबद्ध हो, सिवाय तब के जब वह दबाव में हो।
जिस काल में हम जी रहे हैं, उच्च शिक्षा को उसके लिए प्रासंगिक बनाने हेतु क्या किया जा सकता है?
विश्वविद्यालयों का विकास ऐसे स्थानों के रूप में हुआ जहां विशेषाधिकार-प्राप्त छोटा-सा तबका पुस्तकालयों की मदद से बौद्धिक कार्य करता था। आज हर आदमी को अपने मोबाइल फ़ोन पर जो लाइब्रेरी उपलब्ध है, वह किसी भी विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी से बड़ी है। संवाद के चैनलों और तरीकों में विस्फोट हुआ है। ज्ञान की तितली अपने कोकून से निकल कर हर तरफ उड़ रही है। मेरा मानना है कि विश्वविद्यालयों की अब भी अपनी भूमिका है, मगर उन्हें असली दुनिया से दूर रहने की बजाय उससे फिर से जुड़ने का प्रयास करना चाहिए। इससे वे अधिक प्रासंगिक भी बन सकेंगे।
क्या ज़मीन से जुड़े अर्थशास्त्री सुशासन की स्थापना में मददगार हो सकते हैं? क्या आज के भारत में ऐसे अर्थशास्त्रियों की कमी है?
अगर ज्यादा संख्या में अर्थशास्त्रियों को अर्थव्यवस्था का व्यावहारिक अनुभव होगा, तो इससे बेहतरी ही आएगी। कितने अर्थशास्त्री किसी कारखाने के अंदर गए हैं? कुछ को बैंकिंग क्षेत्र का व्यावहारिक अनुभव है, कुछ ने वित्त मंत्रालय या कॉर्पोरेट संस्थानों के संचालक मंडलों में काम किया है। यह अनुभव उपयोगी हो सकता है, मगर यह भी विशिष्ट शैक्षणिक संस्थानों में अध्ययन-अध्यापन की तरह कुलीनता के भाव को मजबूती देता है। अगर आपको प्रमेयों को सिद्ध करना है या डाटा का विश्लेषण करना है तो व्यावहारिक अनुभव का अभाव आपके काम के आड़े नहीं आएगा। मगर जो अर्थशास्त्री लोकनीतियों के निर्माण में योगदान देना चाहते हैं, उनके लिए व्यावहारिक अनुभव आवश्यक है। बल्कि अगर आपको यह पता है कि जो डाटा आपके सामने है, उसकी पीछे क्या है, ज़मीनी स्तर पर उसके क्या निहितार्थ हैं, तो आप उसका विश्लेषण अधिक बेहतर तरीके से कर पाएंगे।
क्या (भारत में) जाति और (अमरीका में) नस्ल ने श्रेष्ठि वर्ग के निर्माण में भूमिका निभाई है?
निश्चित तौर पर। जाति-व्यवस्था एक छोटे से अल्पसंख्यक वर्ग को स्थाई तौर पर समाज के शीर्ष पर स्थापित कर देती है। आज प्रजातांत्रिक संस्थाएं और आधुनिक अर्थव्यवस्था कुछ हद तक इस एकाधिकार को चुनौती दे रही हैं। यही कारण है कि ऊंची जातियां हिंदुत्व की इतनी मुरीद बन गईं हैं। हिंदुत्व उस ब्राह्मणवादी विश्वदृष्टि का पैरोकार है, जो ऊंची जातियों को सबसे उच्च स्थान पर रखती है। यह भी संभव है कि ऐसा ही कुछ अमरीका में हो रहा हो। श्वेत आबादी के एक तबके को लग रहा है कि उसे अपने विशेषाधिकार अन्य नस्लों के साथ बांटने पड़ रहे हैं और इसलिए वह श्वेत श्रेष्ठतावादियों के साथ खड़ा हो रहा है। हमें यह याद रखना चाहिए कि अमरीका को अश्वेत लोगों को सामान नागरिक का दर्जा दिए अभी बहुत समय नहीं बीता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि ट्रंप समर्थकों में श्वेत श्रेष्ठतावादी अल्पसंख्यक हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह हिंदू राष्ट्रवादी, मोदी समर्थकों का एक छोटा-सा तबका हैं। मगर ये दोनों ही गुट बहुत शक्तिशाली हैं।
क्या भारत और अमरीका के शिक्षित उदारवादियों को ऐसा लगता है कि उनकी जाति या नस्ल की वजह से वे विशेषाधिकारों के हकदार हैं?
मुझे लगता है कि हर जगह विशेषाधिकार-प्राप्त लोग अपने विशेषाधिकारों को बचाए रखने का प्रयास करते हैं। ऐसा करने के कई तरीके हैं। एक तरीका है आय की दृष्टि से उच्चतम 10 प्रतिशत वर्ग में होते हुए भी अपने-आप को ‘मध्यम वर्ग’ बताकर अपने विशेषाधिकारों को छुपाना। दूसरा तरीका है यह दावा करना कि उन्हें उनके कठिन परिश्रम के कारण विशेषाधिकार हासिल हुए हैं, बिना यह स्वीकार किये कि उनके यहां काम करने वाली गरीब और भूखी बाई उनसे ज्यादा मेहनत करती है। तीसरा तरीका है, वंचित लोगों को उनकी औकात में रखना, जैसे उन्हें किसी कमज़ोर अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ भड़काकर। यहां भी भारत और अमरीका में एक समानता है। यहां अल्पसंख्यक मुसलमानों को बलि का बकरा बनाया जा रहा है तो वहां अल्पसंख्यक गैर-कानूनी आप्रवासियों को। इस फंदे में सभी फंस जाएं, यह ज़रूरी नहीं है। मगर इस फंदे से बचने के लिए कुछ करना होता है।
जब आप झारखण्ड के गांवों में जाते हैं और पाते हैं कि गरीब आदिवासी केवाईसी से जुड़ी समस्याओं के कारण अपने ही बैंक खातों का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं तो आपके मन में शासक वर्ग के बारे में किस तरह के विचार आते हैं?
जब मैं देखता हूं कि गरीबों के साथ कूड़े-करकट की तरह व्यवहार किया जा रहा है तो मुझे गुस्सा आता है। हताशा का अनुभव होता है। उनके बैंक खातों को ज़रा-सी बात पर फ्रीज कर दिया जाता है। व्यवस्था को यह नहीं दिखता कि जो काम बहुत आसान नज़र आते हैं – जैसे यह सुनिश्चित करना कि बैंक खाते में आपके नाम की वर्तनी ठीक वही हो जो आपके आधार कार्ड में है – उन्हें करने में उन्हें किस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। उनकी मदद करने का कोई इंतजाम नहीं है। गलतियों, देरी और मार्ग-निर्देशों के उल्लंघन के लिए किसी को जवाबदेह नहीं ठहराया जाता। सहमती, जबरदस्ती का पर्याय बन गई है। नियम-कानून ऐसे हैं जिनका पालन केवल विशेषाधिकार-प्राप्त वर्ग कर पाते हैं, जिनमें डिजिटल कौशल होता है और जिनके दस्तावेज एकदम ठीक-ठाक होते हैं। बाकी के बारे में, जैसा कि बैंकों के मैनेजर भी कहते हैं, कहा जाता है कि उन्हें अपनी वित्तीय साक्षरता बेहतर करने की ज़रूरत है।
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