प्रदीपजी पाल, लखनऊ
मैडम भीकाजी कामा ने भारतीय होम रूल सोसायटी की स्थापना में सबसे सक्रिय भूमिका निभायी थी। इन्हें प्रेरक और क्रांतिकारी भाषणों के लिए तथा भारत और विदेश दोनों में लैंगिक समानता की वकालत करने के लिए जाना जाता है। एक वरिष्ठ नेता की तरह इन्होंने कुछ महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दों पर दुनिया का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की। श्रीमती भीकाजी जी रूस्तम कामा (मैडम कामा) भारतीय मूल की पारसी नागरिक थीं जिन्हांेने लन्दन, जर्मनी तथा अमेरिका का भ्रमण कर भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में माहौल बनाया। वह जर्मनी के स्टटगार्ट नगर में 22 अगस्त 1907 में हुई सातवीं अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस में भारत का वन्देमातरम् अंकित प्रथम तिरंगा राष्ट्रध्वज फहराने के लिए प्रसिद्ध हैं। उस समय तिरंगा वैसा नहीं था जैसा आज है। उसके बाद वह जहां भी भाषण देने जाती थी वहां भारत के प्रतिनिधि के तौर पर झण्डा फहराती थी।
मैडम भीकाजी कामा द्वारा पेरिस से प्रकाशित वन्देमातरम् पत्र प्रवासी भारतीयों में काफी लोकप्रिय हुआ। 1907 में जर्मनी के स्टटगार्ट में हुयी अन्तर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस में मैडम भीकाजी कामा ने कहा, भारत में ब्रिटिश शासन जारी रहना मानवता के नाम पर कलंक है। एक महान देश भारत के हितों को इससे भारी क्षति पहुंच रही है। उन्होंने लोगों से भारत को दासता से मुक्ति दिलाने में सहयोग की अपील की और भारतवासियों का आह्वान किया कि आगे बढ़ो, हम हिन्दुस्तानी हैं और हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों का है। वे भारत से बाहर रहकर भारत की स्वतंत्रता चाहने वाले क्रातिकारियो में से एक थी। वह विदेश रहकर भी भारत के क्रांतिकारियांे की मदद करती थी। वे महान क्रांतिकारिणी थी। वे उन क्रांतिकारियो में से थी जो भारत में संघर्ष कर रहे क्रांतिकारियांे की आर्थिक मदद करके अपना महत्वपूर्ण योगदान भारत की स्वतंत्रता में देती थी।
मैडम भीकाजी कामा का जन्म 24 सितंबर 1861 को मुंबई में हुआ था। उनके पिता सोहराबजी फ्रामजी पटेल एक प्रसिद्ध व्यापारी थे। वे बडे़ उदार और देशप्रेमी थे। उनकी मां सुशिक्षिता और ऊंचे विचारांे की थी। मैडम कामा का पालन पोषण बड़े लाड़-प्यार के साथ हुआ था। उन्होंने अंग्रेजी में अच्छी शिक्षा प्राप्त की थी। उनका विवाह एक प्रसिद्ध और धनी व्यापारी के श्री आर. कामा के साथ हुआ था। विवाह के पश्चात मैडम कामा का स्वास्थ्य खराब हो गया। कुछ दिनों तक उनकी चिकित्सा मुंबई में हुई। जब कुछ लाभ नहीं हुआ तो सन् 1902 में चिकित्सा के लिए वे यूरोप चली गई।
उन्होंने इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस की यात्रायें की। वे अपनी इस यात्रा में कई ऐसे भारतीयों के संपर्क में आई, जो उन दिनांे वहां रहकर भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न कर रहे थे। उन भारतीयांे के जीवन का कामा के ह्रदय पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। उनसे प्रभावित होकर वे भी देशभक्ति के मार्ग पर चलने लगी। मैडम कामा ने इंग्लैंड, रूस, मिस्र, जर्मनी और आयरलैंड के क्रांतिकारियों के साथ अपना संपर्क स्थापित किया। उन्हांेने ऐसे भारतीयांे के लिए एक छात्रवृत्ति भी स्थापित की, जो विदेशों में जाकर पढ़ने के लिए तैयार हो।
भारत में अंग्रेजांे का दमनचक्र जोरों से चल रहा था। सन् 1905 में बंगाल के बंटवारे को लेकर क्रांति की आग जल उठी थी। अंग्रेज युवकों को फांसी पर चढ़ाकर उस आग को बड़ी कठोरता के साथ बुझाने की कोशिश कर रहे थे। परिणाम यह हुआ कि पूरे भारत में क्रांति की आग जल उठी। साथ ही अंग्रेजों का दमनचक्र भी पूरे भारत में फैल गया। सन् 1908 में बहुत से युवकों को पकड़कर जेलो में बंद कर दिया गया। सैकडों युवकांे को फांसी पर चढ़ा दिया गया। और कई बडे़ नेताआंे को गिरफ्तार करके काले पानी की सजा देकर अंडमान द्वीप पर भेज दिया गया। कामा ने अंग्रेजों के इस अत्याचार का जमकर विरोध किया। कामा यदि चाहती तो बड़े सुख से जीवन व्यतीत कर सकती थी। उनके पति बहुत धनी व्यापारी थे। पर उन्होने सुखी दांपत्य जीवन को तिलांजलि देकर कांटो भरे रास्ते को चुना। उन्होने उन लोगांे को अपना साथी बनाया, जो विदेशों में स्वतंत्रता के लिए जोरदार प्रयत्न कर रहे थे।
मैडम भीकाजी कामा लन्दन में दादा भाई नौरोजी की प्राइवेट सेक्रेटरी भी रही थी। इन्ही दिनों इग्लैण्ड की पार्लियामेंट का चुनाव हुआ। दादाभाई नौरोजी पार्लियामेंट की सदस्यता के लिए खडे़ हुए थे। कामा ने इंग्लैंड जाकर उनके पक्ष में प्रचार किया। कामा ने बहुत सी सभाओं में भाषण दिए। फलस्वरूप नौरोजी को इंग्लैण्ड की संसद में सांसद के रूप में चुने जाने वाले पहले एशियाई थे। इन्ही दिनांे कामा अमेरिका गई। उन्होने अमेरिका में कई भाषण दिए। उन्होंने अपने भाषण में भारत की गरीबी का चित्र खींचा ही, साथ ही अंग्रेजों के अत्याचारांे का भी वर्णन किया था। उनके भाषणों का अमेरिकी जनता पर बहुत प्रभाव पड़ा। अमेरिका की जनता भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में विचार करने लगी।
भारत के स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजों से आजादी के लिए घोर संघर्ष किया। ऐसे में कई महिला स्वतंत्रता सेनानियों ने भी इस संघर्ष के प्रति अपार योगदान दिया। आइये इनमें से कुछ महिला स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में जानते हंै:- (1) आजादी की लड़ाई में महिलाओं का अविश्वसनीय योगदान सत्र 1817 से आरम्भ हुआ जब भीमाबाई होल्कर ने ब्रिटिश कर्नल मलकम के खिलाफ बहादुरी से लड़ाई कर उन्हें हराया। इसके बाद और भी कई बहादुर महिलाओं ने अंग्रेजों पर विजय प्राप्त कर अपनी महत्वपूर्ण भूमिकाएँ अदा की। (2) महान वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में विशेष योगदान है उन्होंने ब्रिटिश सरकार के कानून को पालन करने से इंकार कर दिया मौत से पहले तक इन्होंने अंग्रेज के साथ वीरता से लड़ा। ब्रिटिश सेना से लोहा लेते हुए शहीद हो गई। (3) ‘भारत कोकिला’ के नाम से प्रख्यात श्रीमती नायडू ने एक उत्साही स्वतंत्रता संग्राम के कार्यकर्ता और एक कवि के रूप में सन 1930-34 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लिया था। श्रीमती नायडू स्वतंत्र भारत की पहली महिला गवर्नर बनी। इनकी कविताओं के संग्रह अंग्रेजी लेखन आज भी बहुत सराहे जाते हैं।
(4) सुश्री सुचेता कृपालानी एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी के साथ ही राजनीतिज्ञ भी थी। स्वतंत्रता आंदोलन में सुश्री सुचेता के योगदान को भी हमेशा याद किया जाएगा। आजादी के आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्हें जेल की सजा भी हुई थी। सुश्री सुचेता कृपलानी भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश बनी और उत्तर प्रदेश में इस दायित्व कुशलतपपूर्वक निभाया। (5) श्रीमती सावित्री बाई फुले को ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में महिलाओं की शिक्षा के अग्रदूतों में से एक माना जाता है। 19वीं सदी में घोर अपमान के बाद भी इन्होंने लड़कियों और महिलाओं की शिक्षा के प्रति अपने प्रयास जारी रखे। सावित्रीबाई ने अपने पति के साथ भारत का पहला महिला स्कूल वर्ष 1848 में पुणे में स्थापित किया। वे अंत तक महिलाओं के अधिकारों के लिए बहादुरी से लड़ी।
(6) सुश्री अरूणा आसफ अली ने भारत छोड़ो आंदोलन में अपनी अहम भूमिका निभाई थी। मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान में इन्होंने इंडियन नेशनल कांग्रेस का झंडा फहराया था। 1958 में दिल्ली की पहली मेयर चुनी गई थीं। (7) बेगम हजरत महल जो अवध की बेगम के नाम से भी प्रसिद्ध थी, अवध के नवाब वाजिद अली शाह की दूसरी पत्नी थीं। अंग्रेजों के कब्जे से अपनी रियासत बचाने के लिए उन्होंने अपने बेटे नवाबजादे बिरजिस कद्र को अवध के वली (शासक) नियुक्त करने की कोशिश की थी मगर उनका शासन जल्द ही खत्म होने की वजह से उनकी ये कोशिश असफल रह गई। उन्होंने 1857 के भारतीय विद्रोह के दौरान ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह किया।
(8) दुर्गा भाभी भारत के स्वतंत्रता संग्राम में क्रान्तिकारियों की प्रमुख सहयोगी थीं। 18 दिसम्बर 1928 को भगत सिंह ने इन्हीं दुर्गा भाभी के साथ वेश बदल कर कलकत्ता-मेल से यात्रा की थी। दुर्गाभाभी क्रांतिकारी भगवती चरण बोहरा की धर्मपत्नी थी। (9) गदरी गुलाब कौर एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थी। गुलाब कौर गदर पार्टी मे शामिल हो गयी जो ब्रिटिश शासन से उपमहाद्वीप को मुक्त करने के उद्देश्य से सिख-पंजाबी प्रवासियों द्वारा स्थापित एक संगठन था। उन्हें राजद्रोहपूर्ण कृत्यों के लिए अंग्रेजी शासन ने दो साल की सजा सुनाई थी।
(10) पं. जवाहर लाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू समय आने पर यही शांत स्वाभाव की महिला लौह स्त्री साबित हुई, जो धरने-जुलूस में अंग्रेजों का सामना करती, भूख हड़ताल करतीं और जेल की पथरीली धरती पर सोती थी। इन्होंने असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। (11) किटटूर रानी चेन्नम्मा भारत के कर्नाटक के कित्तूर राज्य की रानी थी। सन् 1824 में उन्हांेने हड़प नीति (डाक्ट्रिन आफ लेप्स) के विरूद्ध अंग्रेजों से सशस्त्र संघर्ष किया था। संघर्ष में वह वीरगति को प्राप्त हुई। भारत में उन्हें भारत की स्वतंत्रता के लिये संघर्ष करने वाले सबसे पहले शासकों में उनका नाम लिया जाता है।
(12) वर्ष 1911 में बंगाल में जन्मी प्रीतिलता वादेदार एक ऐसा नाम है जिन्होंने मात्र 21 साल की उम्र में देश के लिए मौत को गले लगा लिया। 1932 में चटगांव के यूरोपियन क्लब में हुए हमले के पीछे इसी क्रांतिकारिणी का हाथ था। शुरू से ही उनका झुकाव क्रांतिकारी विचारों की ओर था। (13) रानी गिडालू या रानी गाइदिन्ल्यू भारत की नागा आध्यात्मिक और राजनीतिक नेत्री थीं जिन्हांेने भारत में ब्रिटिश शासन के विरूद्ध विद्रोह का नेतृत्व किया। उनको भारत सरकार द्वारा समाज सेवा के क्षेत्र में सन 1982 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। भारत की स्वतंत्रता के लिए रानी गाइदिनल्यू ने नागालैण्ड में क्रांतिकारी आन्दोलन चलाया था।
(14) सरोजिनी नायडू का जन्म 1879 में हुआ था। सबसे पहले इन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन में अहम भूमिका निभाई थी। ये इस आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के साथ जेल भी भेजी गई थीं। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में भी अहम भूमिका निभाते हुए इन्हें गिरफ्तार किया गया था। ये आजाद भारत की उत्तर प्रदेश की पहली महिला गवर्नर भी बनीं। (15) सिर्फ 5 साल की छोटी सी उम्र में ऊषा मेहता की मुलाकात गांधीजी से हुई थी और इतनी सी उम्र में ही वे उनके विचारों से प्रभावित हुई। 8 साल की उम्र में उन्होंने ‘साइमन गो बैक’ विरोध प्रदर्शन में हिंस्सा लिया। हालांकि, ब्रिटिश शासन के दौरान जज रहे उनके पिता ने स्वतंत्रता की लड़ाई का हिस्सा बनने से उषा को रोकने की कोशिश की लेकिन वे नहीं मानीं। भारत छोड़ो आंदोलन का हिस्सा बनने के लिए उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और उसके बाद पूरी तरह से स्वतंत्रता की लड़ाई के प्रति समर्पित रही।
(16) श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की बहन थी। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में विजय लक्ष्मी पंडित ने अपना अमूल्य योगदान दिया था। गांधीजी से प्रभावित होकर उन्होंने भी आजादी के लिए आंदोलनों में भाग लेना आरम्भ कर दिया था। वह हर आन्दोलन में आगे रहतीं, जेल जाती, रिहा होती और फिर आन्दोलन में जुट जाती। श्रीमती विजय लक्ष्मी केबिनेट मंत्री बनने वाली प्रथम भारतीय महिला थी। 1953 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की अध्यक्ष बनने वाली वह विश्व की पहली महिला थी। वे राज्यपाल और राजदूत जैसे कई महत्त्वपूर्ण पदों पर रही।
(17) श्रीमती लक्ष्मी सहगल भारत की स्वतंत्रता संग्राम की सेनानी थी। वे आजाद हिन्द फौज की अधिकारी तथा आजाद हिन्द सरकार में महिला मामलों की मंत्री थीं। वो व्यवसाय से डाक्टर थी जो द्वितीय विश्वयुद्ध के समय प्रकाश में आयीं। लक्ष्मी आजाद हिन्द फौज की ‘रानी लक्ष्मी रेजिमेन्ट’ की कमाण्डर थीं। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जब जापानी सेना ने सिंगापुर में ब्रिटिश सेना पर हमला किया तो लक्ष्मी सहगल नेता जी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज में शामिल हो गई थी। आजाद हिंद फौज की रानी झांसी रेजिमेंट में लक्ष्मी सहगल बहुत सक्रिय रहीं। बाद में उन्हें कर्नल का ओहदा दिया गया लेकिन लोगों ने उन्हें कैप्टन लक्ष्मी के रूप में ही याद रखा।
राजशाही, तानाशाही, साम्राज्यवाद के बाद अब लोकतंत्र का युग चल रहा है। वोट से सरकार बनाने का अधिकार वोटर को मिला हुआ है। महान विचारक रूसो ने कहा था कि कोई जरूरी नहीं है कि राजा का बेटा ही राजा बने। प्रजा में से भी अब राजा पैदा हो सकता है। सबसे ज्यादा समर्पण तथा विश्वास जिस इंसान पर लोग करें वह राजा बन सकता है। असली राजा वह है जिसके मन मंे प्रजा के प्रति दर्द हो और प्रजा उसे अपने बच्चों जैसी प्यारी लगती हो। राजा पिता तुल्य होना चाहिए। जिस इंसान के मन में पूरी दुनिया की जनता के प्रति दर्द का भाव हो, पिता का भाव हो, अपनेपन का भाव हो उसको तलाश करके संसार का राजा बनाया जाये।
विचारक रूसो के नये विचार थे। संसार ने उनके विचारों को पूरे उत्साह के साथ स्वागत किया। सारी दुनिया की जनता ने महसूस किया कि अब उनके जीवन में सुख आयेगा। लेकिन संसार के कुछ अमीर, बाहुबली तथा चालाक लोगों ने लोकतंत्र पर कब्जा कर लिया। लोकतंत्र का असली राजा जिसके मन में पिता तथा माता का भाव था वह चुनाव की जोड़तोड़ की रणनीति से बाहर हो गया। अब प्रश्न यह पैदा होता है कि जिस तरह की बलिदान तथा अपार कष्टांे से हमें लोकतंत्र प्रणाली प्राप्त हुई है तो क्या हम उसे छोड़ दे? नहीं! हमें दृढ़ता के साथ आगे बढ़ना चाहिए।
महान विचारक विशात्मा के लम्बे संघर्षपूर्ण जीवन तथा वैश्विक तथा मानवीय चिन्तन से वोटरशिप अधिकार के विचार ने जन्म लिया है। संविधान निर्माता डा. अम्बेडकर ने हमें अमीर-गरीब दोनों को एक समान वोट का अधिकार देकर राजनैतिक आजादी तो दे दी लेकिन आर्थिक आजादी के तहत वोटरशिप अधिकार का विचार उनके जेहन में उस समय नहीं आया। इस कारण से समाज में एक ओर खतरनाक हद का पार करती अमीरी दिखती है तो दूसरी ओर भयंकर गरीबी दिखाई दे रही है। डा. अम्बेडकर के अधूरे कार्य को विश्वात्मा पूरा करने के लिए संघर्षरत है। वोटरशिप अधिकार के अन्तर्गत देश के प्रत्येक वोटर के खाते में कुछ धनराशि सीधे डाली जानी चाहिए। ऐसे करने से बहुत सारी व्यक्तिगत, सामाजिक तथा आर्थिक समस्याओं का हल निकाला जा सकता है। जगत गुरू भारत के इस दिशा में बढ़ने से सारे विश्व को ऐसा करने की अभूतपूर्व प्रेरणा मिलेगी। बनो, मातु अहिल्या बाई होलकर अपनी आत्मशक्ति दिखलाओ।
बी-901, आशीर्वाद, उद्यान-2, एल्डिको,
रायबरेली रोड, लखनऊ-226025