ओमप्रकाश मेहता
हमारे संविधान को रामायण-महाभारत जैसे धर्मग्रंथों की तरह लाल कपड़े में लपेट कर रख देने का फिर एक बार ‘तमाशा’ हमारे सामने है, जब आज की राजनीति पूर्णतः धर्म आधारित कर दी गई है, अब राजनेताओं को पूरी तरह यह समझ में आ गया है कि मानव मात्र (आम वोटर) की सबसे बड़ी कमजोरी उनकी धार्मिक आस्था है और उसी का सहारा लेकर कुर्सी हथियाने की तमन्ना पूरी हो सकती है और आज वही किया जा रहा है… और इस राजनीतिक खेल का मुख्य मोहरा भगवान श्री राम को बना लिया गया है।
आजकल दिल्ली तो सिर्फ प्रशासनिक राजधानी बन गई है, मुख्य राजनीतिक राजधानी तो आज अयोध्या है, जहां राजनीति की चौसर बिछी है और राजनेता पालथी मारे बैठे है, हर कोई इस चौसर को जीतना चाहता है, जिससे उसका जीवन लक्ष्य पूरा हो सके। इस महीने की बाईस तारीख को अयोध्या में भगवान राम को शिशुरूप में विराजित कर राम मंदिर का शुभारंभ किया जा रहा है और इसे ही राजनीतिक नाटक का रूप दिया जा रहा है, क्योंकि आज के राजनीतिक दल ‘‘चौबीस की लंका विजय’’ को इसी का मुख्य आधार मान रहे है और देश पर सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी तो इसीलिए पूरे देश को ‘राममय’ बनाकर अपना लक्ष्य पूरा करना चाहती है।
यदि राजनीतिक दृष्टि से देश की मौजूदा राजनीति को देखा जाए तो हमारे देश में 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव मोदी जी के नाम पर जीते गए थे, किंतु अब स्वयं मोदी जी तथा उनके अनुयायियों को यह महसूस हो रहा है कि पिछले दो आम चुनावों के समय जो ‘‘मोदी चमक’’ थी, वह अब उतनी असरदार नही रही, जिसके बलबूते पर चुनाव जीतने की लालसा पूरी की जा सके, इसलिए इस बार भगवान राम के नाम की पतवार भाजपा ने थामी है और इसी के सहारे ‘‘चुनावी भवसागर’’ पार करना चाहती है और आज भाजपा का यही उपक्रम जारी है और इसी कारण अगले आम चुनाव के पूर्व अधूरे निर्मित अयोध्या के राम मंदिर का अनावरण किया जा रहा है, जिससे देश के हिन्दू वोट भाजपा की झोली में ही रहे, कोई अन्य उन पर झपट्टा न मार सके।
अर्थात् भाजपा में आज भगवान राम के प्रति विशेष आसक्ति जो देखी जा रही है, उसका मुख्य कारण यही है और इसी कारण चौबीस की चुनावी महासमर के पूर्व अधूरे राम मंदिर का समर्पण किया जा रहा है, अभी तक देश के सभी राजनीतिक दल ‘रामभक्ति’ में संलग्न थे, किंतु अब कांग्रेस ने भाजपा की आसक्ति के सामने हार मान कर ‘अयोध्या राममंदिर’ प्रसंग से अपने आपको अलग कर लिया है, यह कांग्रेस का ताजा निर्णय है और इस पर आम राजनीतिक प्रतिक्रिया आना अभी शेष है, जिसकी सफाई कांग्रेस देगी, वैसे कांग्रेस के इस फैसले को भी कई पहलुओं से देखा जा रहा है और स्वयं कांग्रेस में इस मस्ले पर ‘अर्न्तद्वन्द’ की स्थिति पैदा हो गई है, क्योंकि कांग्रेस का एकगुट विशेष इस महत्वपूर्ण मुद्दे को यूं ही त्याग कर भाजपा के लिए हिन्दू वोट का खुला मैदान छोडने के पक्ष में कतई नहीं है, वह इस कदम को कांग्रेस के हित में नही मान रहा है।
इस प्रकार कुल मिलाकर जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव निकट आते जा रहे है, वैसे-वैसे आए दिन नए-नए राजनीतिक परिदृष्य नजर आने लगे है, फिलहाल चुनाव में एक सौ दिन की देरी है, इन तीन महीनों में देश की जनता को क्या-क्या देखना पड़ेगा, यह फिलहाल कल्पना से परे है, किंतु यह तय है कि नए-नए राजनीतिक विदूषक आकर मतदाताओं का मनोरंजन अवश्य करेगें, देखते जाईए और समय का लुत्फ उठाते जाईए…।