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प्राच्य-विद्या : ज्योतिष में आयु विचार

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पवन कुमार

   भविष्य के बारे में जानने से पहले आयु के बारे में जानना अत्यन्त आवश्यक एवं प्रयोजनकारी है। यदि आयु नहीं है तो अन्य लक्षणोंसे क्या प्रयोजन? 

पूर्वमायुः परीक्षैव पश्चाल्लक्षणमुच्यते।
आयुर्विना नराणां तु लक्षणः किं प्रयोजनम्॥

अवस्थाके अनुसार मनुष्य की आयु की तीन अवस्थाएँ :
१- अल्पायु – जन्म से आरम्भ करके ३३ वर्षतक।
२- मध्यमायु – ३३ वर्ष से ६४ वर्षतक.
३- सम्पूर्णायु – ६५ वर्ष से १०० वर्षतक।
१०० वर्षसे १२० वर्षोंतक की आयु दीर्घायु मानी जाती है। १२० वर्षके आगे जितने वर्ष मनुष्य जीवित रहेगा, उसे विपरीत आयु माना जाता है।

जन्मकुण्डली देखकर आयुका निर्धारण करते समय सर्वप्रथम जन्मकुण्डलीकी ग्रहस्थितिके आधारपर उस जन्मकुण्डलीके व्यक्तिकी अल्प, मध्यम एवं पूर्ण आयुका निर्धारण किया जाता है।
इस आयुनिर्धारणके आधारपर ही जीवनमें आनेवाली मारक दशाओंका निर्णय किया जाता है। फिर किस मारक दशामें कौन-सा ग्रह किस रूपमें काम करता है, निर्णय किया जाता है।
जन्मलग्नसे अष्टम स्थान आयुका स्थान है। जन्मलग्नसे तृतीय स्थान भी आयुस्थानके रूपमें माना जाता है। दशम स्थान भी आयुस्थानके रूपमें माना जाता है।
इसलिये जन्मकुण्डलीके ३, ८, १० स्थान आयुस्थान हैं। आयुनिर्धारण करते समय ३, ८, १० स्थानोंका विशेष निरीक्षण करना चाहिये। किसी भी भावका निरीक्षण करते समय उस भावके लिये जिम्मेदार ग्रहका सर्वप्रथम निरीक्षण करना चाहिये।
आयुके लिये जिम्मेदार ग्रह शनि है। जन्मकुण्डलीमें शनिका बल अधिक होना चाहिये अर्थात् शनि अपने स्थानमें या उच्च स्थानमें या अपने मित्रक्षेत्रमें होना चाहिये। उस रूपमें होनेपर पूर्णायु प्राप्त होगी। शनिके नीच स्थानमें या शत्रुक्षेत्र में या अन्य पापग्रहोंके साथ मिलनेपर अल्पायु प्राप्त होगी। शनिके सम क्षेत्रोंमें रहनेपर मध्यमायु प्राप्त होगी।

जन्मकुण्डलीमें अल्प, मध्यम, पूर्णायु कौन-सी है, इसका पता लगाते समय नैसर्गिक शुभग्रहस्थितिके बारेमें तथा नैसर्गिक पापग्रहस्थितिके बारेमें जानना भी आवश्यक है। नैसर्गिक शुभग्रह किसी भी स्थानके अधिपति होनेपर भी केन्द्रस्थितिमें होनेपर आयुर्वृद्धिमें साथ देंगे।
उसी रूपमें नैसर्गिक पापग्रह केन्द्रमें रहनेपर आयु क्षीण करेंगे। वे ग्रह कोणोंमें रहनेपर उससे थोड़ा कम नुकसान पहुँचाते हैं अर्थात् कोणमें रहनेपर मध्यमायु प्रदान करते हैं। नैसर्गिक पापग्रह विशेष रूपसे शनिके तृतीय, अष्टम स्थानमें रहनेपर आयुर्वृद्धि प्राप्त होगी।
पराशरसिद्धान्त, वराहमिहिरसिद्धान्त एवं सत्याचार्यसिद्धान्त के अनुसार आयुके सन्दर्भमें ग्रहोंके उच्च-नीच, शत्रु तथा ऋजु और वक्र गुणका निरीक्षण करना भी आवश्यक है।

आयु से सम्बन्धित कुछ विवरण :
पूर्णायु-विवरण :
१- आयुकी वृद्धिमें मदद करनेवाले शनिके अष्टम स्थानमें रहनेपर नैसर्गिक शुभ ग्रह गुरु, शुक्र, चन्द्र एवं बुधके केन्द्र या त्रिकोणमें रहनेपर तथा अष्टमाधिपतिके केन्द्र या कोणमें रहनेपर पूर्णायु प्राप्त होगी।
२- अष्टमाधिपति शनि लाभस्थानमें होनेपर केन्द्र एवं त्रिकोणमें शुभ ग्रहके होनेसे पूर्णायु प्राप्त होगी। रवि अष्टमाधिपतिस्थानमें रहते समय केन्द्रमें गुरु, शुक्र, चन्द्रके होनेसे पूर्णायु प्राप्त होगी।
३- गुरु अष्टमाधिपतिके रूपमें स्वक्षेत्रमें, नैसर्गिक पापग्रह लाभस्थानमें और नैसर्गिक शुभग्रह केन्द्रमें रहनेसे पूर्णायु प्राप्त होगी।
४- रवि और शनि एकादश स्थानमें और नैसर्गिक शुभ ग्रह केन्द्र में होनेसे पूर्णायु प्राप्त होगी।
५- रविके दूसरे और छठे स्थानमें तथा शनिके एकादश स्थानमें रहनेपर पूर्णायु प्राप्त होगी। इसके अतिरिक्त नैसर्गिक शुभ ग्रहके केन्द्र तथा त्रिकोणमें रहनेपर और लाभस्थानमें शुभ ग्रहोंके होनेसे पूर्णायु प्राप्त होगी।
६-अष्टम स्थानाधिपति शनिके लाभस्थानमें रहनेसे और केन्द्रमें नैसर्गिक शुभ ग्रहोंके होनेसे पूर्णायु प्राप्त होगी।
७- लग्न, भाग्य, राज्याधिपति तीनोंके स्वक्षेत्रमें या उच्च स्थानमें रहनेसे पूर्णायु प्राप्त होगी। नैसर्गिक शुभ ग्रहके लग्न, भाग्य, केन्द्रमें रहनेपर पूर्णायु प्राप्त होगी।

मध्यम आयु-योग :
१- अष्टमेश तथा लाभाधिपति नैसर्गिक शुभ ग्रहके भाग्यमें या लाभस्थानमें रहनेसे मध्यमायु प्राप्त होगी।
२- लग्नाधिपतियोंके परिवर्तन होनेसे एवं लग्नमें नैसर्गिक शुभ ग्रहोंके होनेसे मध्यमायु प्राप्त होगी।
३- धनुर्लग्नके लिये अष्टमाधिपति चन्द्रके स्वक्षेत्रमें रहनेपर, शनि-बुध या शनि-केतु, शनि-गुरु, शनि-शुक्र, शनि-रवि या शनि-कुजके लाभस्थानमें रहनेपर मध्यमायु प्राप्त होगी।
४- केन्द्र में शुभ ग्रहोंके होनेपर आयुके लिये जिम्मेदार शनिके ३, ६ स्थानोंमें होनेपर मध्यमायु प्राप्त होगी।
५- राज्यमें लाभाधिपति तथा लाभमें अष्टमाधिपतिके रहने से मध्यमायु प्राप्त होगी। अष्टमाधिपति नैसर्गिक शुभ ग्रहोंके साथ मिलकर एकादश स्थानमें होनेपर, रवि लाभमें तथा नैसर्गिक पापग्रह त्रिकोणमें होनेसे मध्यमायु प्राप्त होगी।

अल्पायु-योग :
१-केन्द्र एवं कोणमें एक भी नैसर्गिक शुभ ग्रहोंके न होनेसे, नैसर्गिक पापग्रह केन्द्र एवं त्रिकोणमें होनेसे और चन्द्रके लाभस्थानमें रहनेपर अल्पायु प्राप्त होगी।
२ – चन्द्रके नैसर्गिक पाप ग्रहोंसे मिलकर केन्द्र में या कोणमें रहनेपर, बाकी ग्रह दुर्बल होनेसे अल्पायु प्राप्त होगी।
३-केन्द्र एवं त्रिकोणमें नैसर्गिक पापग्रहोंके होनेपर और चन्द्रके षष्ठ या अष्टममें होनेसे अल्पायु प्राप्त होगी।
४- लग्नाधिपति या अष्टमाधिपति चन्द्रके व्ययभावमें रहनेपर, केन्द्र एवं त्रिकोणमें नैसर्गिक पाप ग्रहोंके होनेसे, अल्पायु प्राप्त होगी।
५- नैसर्गिक शुभ ग्रहोंके तृतीय, षष्ठ, अष्टम तथा व्यय स्थानमें रहनेपर, नैसर्गिक पापग्रहोंके साथ मिलनेपर अल्पायु प्राप्त होगी।

मृत्यु सम्बन्धी जानकारी :
मानवके जीवनमें मृत्यु अत्यन्त महत्त्व रखती है। ज्योतिषशास्त्रियोंने मृत्युके बारेमें अनेक स्थापनाएँ की हैं। अष्टमाधिपति तथा अष्टम स्थानमें स्थित ग्रहोंसे मृत्यु कैसे होगी, इसे जाना जा सकता है.
१- रवि – अग्निसे, उष्ण बुखारोंसे, मूत्रका बन्द हो जाना आदि रोगोंसे पीड़ित होकर मृत्यु होती है।
२ – चन्द्र– जलसे सम्बन्धित दुर्घटनाओं अर्थात् जलसंकट अथवा क्षय, खाँसी, फेफड़ोंसे सम्बन्धित बीमारियोंसे मृत्यु होती है।
३ कुज – आगकी दुर्घटनाएँ, व्रण, स्फोटक फोड़े, शस्त्रचिकित्सा, चमड़ीके रोग, वाहनोंसे प्राप्त होनेवाली आकस्मिक दुर्घटनाएँ, ऊँचे प्रदेशोंसे गिर जाना, जादू- टोना, पीलिया आदिसे मृत्यु प्राप्त होती हैं।
४-बुध- पक्षाघात, वात, पोलियो, नसोंकी कमजोरी, अण्डकोशसे सम्बन्धित दोष, विषैले बुखार, अपच आदिके द्वारा मृत्यु प्राप्त होती है।
५- गुरु – आकस्मिक हृदयसम्बन्धी रोग, बुखार, शारीरिक दुर्बलता आदिके कारण मृत्यु होती है।
६- शुक्र – यौनसे सम्बन्धित बीमारियाँ, मूत्रसे सम्बन्धित व्याधियाँ, श्लेष्म व्याधियोंसे सम्बन्धित, भूख और उदरसे सम्बन्धित रोगोंसे मृत्यु होती है।
७- शनि – वातरोग, व्रण, विषैले बुखार, दीर्घकालीन बुखारोंसे मृत्यु होती है।
इसी प्रकार जन्मलग्नकी अष्टमराशिके अनुसार मृत्युसम्बन्धी विचार भी होता है।

नेत्रसम्बन्धी रोगोंके लिये रवि, शुक्र और राहु जिम्मेदार हैं। मीन लग्नमें नेत्रस्थानमें माने जानेवाले द्वितीय स्थान मेषमें शुक्रके होनेसे उस शुक्र दशामें नेत्रोंका रोग होगा। केतु ग्रह भी नेत्ररोगकारक है।
जन्मकुण्डलीमें रोगोंके बारेमें जानकारी प्राप्त करनेके लिये ३, ६, ८ स्थानोंके आधारपर उन स्थानोंमें ग्रहोंकी गतिके आधारपर उन ग्रहोंसे सम्बन्धित रोग उन ग्रहोंकी दशाओंमें प्राप्त होंगे। स्त्रियोंके प्रसवसे सम्बन्धित रोगोंके विषयमें पंचम स्थानमें रहनेवाले ग्रहोंके अनुसार तथा पंचम स्थानके अनुसार जान सकते हैं। अष्टम स्थानमें दो-तीन ग्रह मिलकर रहनेसे दो-तीन प्रकारके रोग एक ही समयमें हो सकते हैं।
रवि रक्तसे सम्बन्धित रोगोंके लिये कारक है। शनि नसोंसे सम्बन्धित रोगोंके लिये कारक है। रवि और शनि दोनों मिलकर अष्टम स्थानमें रहनेसे, उनकी दशाओंके चलनेसे पक्षाघातसे तथा नसोंसे सम्बन्धित रक्तचापसे मृत्यु प्राप्त होगी। शनि और शुक्र मिलकर अष्टम स्थानमें रहनेसे हृदयसे सम्बन्धित रोगोंसे, दमेसे, राजयक्ष्मा आदि फेफड़ोंसे सम्बन्धित रोगोंसे मृत्यु प्राप्त होगी।
दाँतों, कानों तथा सिरसे सम्बन्धित रोगोंके लिये कुज और शनि कारक हैं। स्त्रियोंके रोगोंके लिये भी ये दोनों जिम्मेदार कारक हैं। सभी वातरोगोंके लिये शनि जिम्मेदार कारक है। बाँझपनके लिये शनि, कुज, शुक्र, बुध जिम्मेदार कारक हैं।

ग्रहोंकी वक्रगति और उनके परिणाम :
नौ ग्रहोंमें रवि और चन्द्र वक्रगतिसे गमन नहीं करते हैं। वे हमेशा सीधे चलते हैं। छायास्वरूप माने जानेवाले राहु और केतु हमेशा वक्र गतिसे ही चलते हैं। कुज, गुरु, शनि, बुध, शुक्र-ये पाँचों ग्रह वक्र गतिसे भी चलते हैं।
ग्रहोंके वक्रगमनसे शुभ फल होंगे या अशुभ ? इस सन्दर्भमें शास्त्रकारोंमें ऐकमत्य नहीं है। कुछ शास्त्रोंके अनुसार ग्रहोंके वक्रगमनसे विशेष शुभ परिणाम होंगे और कुछके अनुसार ग्रहोंके वक्रगमनसे अधिक-से- अधिक अशुभ परिणाम होंगे।
‘होरासार’ नामक ग्रन्थमें वक्र ग्रहोंके उच्च स्थानमें रहनेसे शुभ फल होंगे, ऐसा कहा गया है।
‘सारावली’ ग्रन्थ में ग्रहके वक्रगमनसे शुभ फल प्राप्त होगा- ऐसा कहा गया है। वह ग्रह शुभ स्थानोंका अधिपति बनकर उच्च, स्वक्षेत्र, मूलत्रिकोण, मित्र- क्षेत्रोंमें वक्र होनेपर शुभ परिणाम होंगे- ऐसा कहा गया है।
‘जातकतत्त्व’ ग्रन्थमें बताया गया है कि ग्रह शुभ स्थानोंका अधिपति बनकर, शुभ स्थानोंमें वक्र होनेपर राजयोग प्राप्त होगा, प्रजाधिकार प्राप्त होगा, उन्नत पद प्राप्त होंगे, विशेष धनप्राप्ति होगी। वहीं पापस्थानोंका अधिपति होनेपर, पापस्थानोंमें रहनेपर वक्र होनेसे पाप परिणाम होंगे, यानी दुःख प्राप्त होगा।

‘होरासार’ ग्रन्थमें भी ग्रह शुभ स्थानका अधिपति होकर शुभ स्थानमें रहते समय वक्र होगा तो धन, कीर्ति और गौरव प्रदान करेगा, ऐसा कहा गया है।
‘फलदीपिका’ ग्रन्थकर्ता मन्त्रेश्वरके अनुसार वक्रता- प्राप्त ग्रह उच्च दशाके ग्रहके समान है। वह ग्रह शत्रुक्षेत्रमें रहनेपर भी, पापस्थानों में रहनेपर भी शुभ फल ही प्रदान करेगा। लेकिन शुभ स्थानका अधिपति होना आवश्यक है।
इस प्रकार ज्योतिषशास्त्रके ज्ञानका लक्ष्य मानव- जातिका कल्याण करना है, भगवान्‌के लीलारहस्यको जाननेकी जिज्ञासा है। मनुष्यकी आयु, मृत्यु और शुभ-अशुभकी जानकारी, सब भगवान्की लीलासे ही जुड़े हुए तथ्य हैं। ज्योतिषशास्त्र इनका वैज्ञानिक विश्लेषण करके मनुष्य को मानव सेवा की ओर मोड़ने का महान् कार्य करता है। (चेतना विकास मिशन).

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