डॉ. विकास मानव
रूप सौंदर्य की प्रति मूर्ति है अहिल्या। अहिल्या के सौंदर्य को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। उसका विवाह गौतम ऋषि के साथ हुआ था। कहा सौंदर्य की प्रति मूर्ति और कहा ऋषि महर्षि। कोई मेल नहीं खाता था।
एक बार देवराज इन्द्र की उस पर पड़ी तो वह उसके सौन्दर्य को निहारता ही रह गया था।भला कोई स्त्री इतनी सुन्दर कैसे हो सकती है।
पत्नि के अलावा तमाम स्वर्गिक अप्सराओं के स्वामी देवराज इन्द्र की नजर उस पर से हटने का नाम ही नहीं ले रही थीं। वह किसी भी प्रकार से उसे पाने की तरकीब सोचता रहा। और एक बार मौका देखकर उसने चंद्रमा की सहायता से गौतम का भेष बनाकर जब स्नान के लिए जा रहे थे तो वह अहिल्या के पास पहुंच गया और उसका शीलभंग कर दिया।
गौतम जब नदी के किनारे पहुंचे तो बहुत अंधेरी रात थी।उन्हें कुछ गड़बड़ होने का आभास हुआ। वह लौट आए तब तक इंद्र को अपने भेष में लौटते हुए देखा। उन्हें सारा माजरा समझ में आ गया और उन्होंने श्राप दे दिया अहिल्या को कि तू पत्थर की मूर्ति बन जा।
इस देश में ऐसे लंपट को देवताओं का राजा हम मानते हैं। जब देवताओं का राजा ऐसा हो तो सामान्य जनता उनसे क्या सीखेगी। जिसकी नजर हर समय सुरा और सुंदरी में डूबी हो वह कैसे देवताओं का राजा हो सकता है।
यह घटना उस समय की है जब हमारे धर्म ग्रंथों में ऐसे युग को सत युग कहा है। ऐसी घटना मिलती है कि हजारों वर्षों तक वह पत्थर की मूर्ति बनी रही और त्रेता युग में जब राम बनवास को जा रहे थे तो उनके स्पर्श से वह सामान्य जीवन जीने लगीं।
अहिल्या के जीवन में तीन पुरुषों का विशेष योगदान है। एक तो उसका पति जो उसकी गलती को बिना समझे उसे पत्थर होने का श्राप दे देता है। हजारों वर्षों से गलती किसी की भी हो लेकिन सताई जाति स्त्री ही है।
पत्नी थी थोड़ा सोच विचार लेते। इतने महान ज्ञानी थे ।थोड़ा चिंतन हीं कर लेते। लेकिन नहीं उसे समाज से निष्कासित कर पत्थर की मूर्ति बनने को मजबूर कर दिया।
वास्तविक रूप से देखा जाए तो हमारा समाज अभी भी कुछ नहीं बदला है। गलती किसी की भी हो दोष स्त्री को ही दिया जाता है।
बड़े मजे की बात यह है कि उसकी मुक्ति के लिए भगवान को अवतार लेना पड़ता है। कैसा रहा होगा अहिल्या का जीवन हम आप कल्पना नहीं कर सकते। कितने वर्षों तक वह समाज से निष्कासित होकर के पत्थर की मूर्ति की भांति जीवन जीती रही होगी। देवराज इंद्र तो मुंह मारता फिरता रहा लेकिन एक स्त्री का जीवन यहां नरक बनकर के रह गया था।
जिन्होंने भी यह कहानी गढ़ी होगी क्या सोचकर गड़ी होगी स्त्री का जीवन ऐसे ही अभिषिक्त रखना है। ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता है कि इस घटना के बाद देवराज को इंद्रासन से पदच्युत कर दिया गया हो।
जब भी मैं अहिल्या की घटना को पढ़ता हूं तो मुझे बड़ा अजीब लगता है। हम आखिरी इन ग्रंथों से क्या सीख सकते हैं। यही कि देवताओं के राजा की मर्जी जो चाहे जहां मुंह मारता फिरे।
इन्हीं ग्रंथों से सीख करकें पूर्वर्ती कालों में भी राजाओं को जो भी स्त्री सुंदर लगती थी वे उसे हर संभव पानें का प्रयास करते रहे।
इस कहानी का मुख्य विशेषता यह है कि शीलभंग करने वाला पुरुष, श्राप देने वाला भी पुरुष, और मुक्ति देने वाला भी पुरुष। स्त्री का तो कहीं अस्तित्व ही नहीं था। वह सोच सके कि हमारा भी कुछ जीवन है।
क्या हम ऐसे युग को सतयुग कह सकते हैं? ऐसा युग अच्छा था कि आज का युग अच्छा है। जिसमें कोई कितने भी उच्च पदों पर हो वह भी कानून के दायरे में उचित सजा का हकदार होता है।। वास्तविक रूप से देखा जाए तो आज ही सतयुग है। कितना भी समय बदला हो लेकिन हमारे पास एक कानून हैं जिसके द्वारा हम गलत व्यक्ति को सजा दिलवा सकते हैं।
जिसे हम सतयुग मानते हैं उस युग में राजा ही सर्वोच्च होता था ।जनता की बात तो कहीं सुनाई ही नहीं पड़ती थी। ऐसी सतयुग की कहानियों को पढ़कर राजा स्वेक्षाचारी हो जाता था।
आखिर हम अहिल्या जैसे कथानक से क्या सीख सकते हैं? यह चिंतन करना चाहिए।