विजय दलाल
साहित्य और कला , साहित्य की सर्व जनप्रिय विधा कविता – शायरी और कवि – शायर से तानाशाह शासक कितना डरता है ऐसे मशहूर क़िस्से इतिहास में कई मिल जाएंगे…..*
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ भी एक ऐसे ही शायर थे। आजादी के थोड़े से बीते सालों के बाद ही पाकिस्तान में सरकार के तख्ता पलटने के आरोप में रावलपिंडी षड्यंत्र में गिरफ्तार किया।
1955 में जेल से रिहा किया गया। पांच साल जेल में बिताए।
वहां उन्होंने विश्व प्रसिद्ध दो पुस्तकें “”दस्त-ए सबा”” और “” जिंदानामा “” लिखीं।
फ़ैज़ ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के कार्यकाल में पाकिस्तान सरकार के कई महकमों में काम किया।
लेकिन जिया उल हक़ के आते ही उन्हें लेबनान के बेरूत में निर्वासित होना पड़ा। 1982 तक निर्वासित रहे। 1984 में लाहौर में उनकी मृत्यु हो गई।
फ़ैज़ से पाकिस्तानी और हिंदुस्तानी दोनों देशों के कट्टरपंथियों को परेशानी थी।
लेकिन उनकी बगावती लेखनी ने पाकिस्तानी लेखकों और कलाकारों को कैसे प्रभावित किया यह किस्सा बताता है।
रोचक तथ्य – नबी खान
साल 1985 में जनरल ज़िया उल हक़ के फ़रमान के तहत औरतों के साड़ी पहनने पर पाबंदी लगा दी गई थी। पाकिस्तान की मशहूर गुलुकारा इक़बाल बानो ने एहतिजाज दर्ज कराते हुए लाहौर के एक स्टेडियम में काले रंग की साड़ी पहन कर 50000 सामईन(श्रोतागण) के सामने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की ये नज़्म गाई। नज़्म के बीच बीच में सामईन की तरफ़ से ज़िंदाबाद के नारे गूंजते रहे।
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
*(अवश्य)
वो दिन कि जिस का वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है
***(विधि के विधान)
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ (घने पहाड़)
रूई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों के पाँव-तले
*(रियाया-शासित)
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर
*(सत्ताधीश)
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
(सत्ताधारियों के प्रतीक पुतले )
हम अहल-ए-सफ़ा
(साफ सुथरे लोग) मरदूद-ए-हरम **(धर्मस्थल में प्रवेश से वंचित लोग)
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा
(सत्यमेव)
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा
***
(आम जनता)
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
( हिंदी पाठकों के लिए कठिन उर्दू के शब्दों का हिंदी अनुवाद किया है)
विजय दलाल