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अल्लामा इक़बाल और इश्तिराकियत

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अली सरदार जाफ़री

(अल्लामा इक़बाल की शायरी के हिंद उपमहाद्वीप में हज़ारों की तादाद में शैदाई हैं। शायर अली सरदार जाफ़री भी उनमें से एक हैं। जाफ़री ने इक़बाल की शायरी का गहरा अध्ययन किया था। यही नहीं उन्होंने उन पर एक अहमतरीन किताब ‘इक़बाल की शायरी का सियासी और समाजी पस-ए-मंज़र’ भी लिखी है। हमीद अख़्तर की किताब ‘रूदाद-ए-अंजुमन’, जिसमें ‘अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन’ मुंबई शाख़ के जलसों की रूदाद शामिल है। इस किताब के एक अध्याय में अली सरदार जाफ़री ने अपना मक़ाला (आलेख) ‘इक़बाल और इश्तिराकियत’ सुनाते हुए, इक़बाल और उनकी शायरी के बारे में जो विश्लेषण किया है, उससे बहुत हद तक अल्लामा इक़बाल की शख़्सियत और उनकी तख़्लीक़ पर रौशनी पड़ती है।)

अब सरदार जाफ़री को अपना मक़ाला ‘इक़बाल और इश्तिराकियत’ सुनाना था। मक़ाला शुरू करने से पहले उन्होंने बतलाया कि ‘‘ये मक़ाला उनकी किताब ‘इक़बाल की शायरी का सियासी और समाजी पस-ए-मंज़र’ का सातवां बाब है।’’ उन्होंने कहा कि ‘‘इस बाब को सुनाने से पहले, किताब के पहले छह बाब का पस-ए-मंज़र बयान करना ज़रूरी है। इस किताब में मैंने इक़बाल के तसव्वुरात (विचार) और बुनियादी ख़याल को उस ज़माने के हालात के साथ परखने की कोशिश की है। और उनकी शायरी के इर्तिका (विकास) को सना वार (साल-दर-साल या वर्षवार) पेश किया है।

पहला बाब है, ‘इक़बाल के सीरत निगार और नक़्क़ाद’। जिसमें मैंने इस सिलसिले की तक़रीबन तीन क़िताबों पर इज़हार-ए-ख़याल किया है। दूसरा, तीसरा और चौथा बाब उनकी शायरी से मुताल्लिक़ है। इसे दो अदवार (दौर) में तक़्सीम किया जा सकता है। पहले दौर में इक़बाल इस्लाह-पसंद (सुधारवादी) हैं। जिसमें सर सैयद और मुहसिन-उल-मुल्क के इब्तिदाई नेशनलिज़्म (शुरुआती राष्ट्रवाद) का भी दख़्ल है। इसकी बुनियाद थी जदीद इल्म हासिल करना और साइंस को अपनाना।

दूसरा दौर तज्दीदिय्यत (नयापन) का है। जिसमें सरमायेदारी से निज़ात हासिल करने की तड़प है। मगर चूंकि इक़बाल के सामने नये निज़ाम का कोई वाजे़ह दस्तूर नहीं था। इसलिए वो माज़ी की तरफ़ जाते थे और ख़िलाफ़त-ए-राशिदा (हज़रत मुहम्मद साहब के चार खलीफ़ाओं का समय और उनकी ख़िलाफ़त) की तरफ़ भागते थे। बिल्कुल यही गांधी जी के यहां ‘रामराज्य’ की शक्ल में मौजूद है।’’

सिलसिला-ए-कलाम ज़ारी रखते हुए सरदार जाफ़री ने कहा कि ‘‘1908 के बाद इक़बाल ने सरमायादारी के खोखले-पन को अच्छी तरह से महसूस कर लिया था। अब वो तालीमी इदारों, मेंबरी सिस्टम और असेंबलियों पर हमले करते हैं। लेकिन रिवाइवलिज़म (पुनर्जागरणवाद), माज़ी-परस्ती (प्रतिगामी दृष्टिकोण) बन जाता है। इक़बाल ने नये तसव्वुरात को अपनाना शुरू किया।’’

इस सिलसिले में सरदार जाफ़री ने अमीर अली की किताब ‘स्प्रिट ऑफ़ इस्लाम’ की मिसाल देते हुए कहा कि ‘‘अमीर अली ने जो ये लिखा है कि इस्लाम की पुरानी रवायत ‘कुरून बस्ती’ में मौजूद हैं। और यहां तक लिखा है कि हज़ार साल पहले कांटे, छुरे भी मौजूद थे। ऐसी ही चीज़ों में इक़बाल और आगे बढ़े। उन्होंने डार्विन की थ्योरी को अपनाया। और मार्क्स के फ़लसफ़े को भी तख़्लीक़-ए-आदम (आदिमानव के सृजन) के पुराने तसव्वुर की नई और ऐसी तावीलें (बहस) पेश कीं। जो इस्लाम के दूसरे मुफ़क्किरों (विचारकों) से मुख़्तलिफ़ थीं।’’

सरदार जाफ़री ने कहा कि ‘‘इक़बाल के यहां दोनों रुजहानों में एक क़ौमी तहरीक को आगे बढ़ाना है। 1906 से लेकर 1920 तक इक़बाल ने जो लिखा है, वो मुसलमानों और गै़र मुस्लिमों पर असर डालता रहा था। उस ज़माने में इक़बाल क़ौमी शायर बन रहे थे। इसी ज़माने में जंग-ए-बल्कान के बाद मुस्लमान बेदार हो रहे थे। ये वो ज़माना है, जब इक़बाल ने ‘तुलु-ए-इस्लाम’ लिखी। इक़बाल का दूसरा रुजहान नेगेटिव था। सरमायादारी के बाद निज़ाम के सवाल पर वो रिवाइवलिस्ट (पुनरुत्थानवादी) बन जाते हैं। जो उनके ‘जावेद-नामे’ से मालूम होता है।’’

सरदार जाफ़री ने कहा कि ‘‘किताब का पांचवा बाब इक़बाल के फ़लसफ़ा-ए-खु़दी (अहंभाव के विचार) से मुताल्लिक़ है। इस फ़लसफ़े में तज़ाद (विरोधाभास) है। और ये तज़ाद इस्लामी फ़लसफे़ में शुरू से ही मौजूद है। हिंदू पहले ही से दुनिया को मायाजाल कहते थे और निज़ात हासिल करने के लिए दुनिया से क़त्अ तअल्लुक़ (संबंध विच्छेद) करके पहाड़ों पर जाने और रूह को बेहतर तरीक़ा बतलाते थे।

लेकिन इस्लामी फ़लसफ़े में जिसे इक़बाल ने शिद्दत से पेश किया, ये था कि दुनिया का एक ख़ारिजी वुजूद (बाहरी अस्तित्व) है और इंसान का एक वुजूद रूहानी (आत्मिक) है। जिससे माद्दी दुनिया (भौतिकवादी संसार) को फ़तह करके उस पर क़ाबिज़ रहना चाहते थे। यही तज़ाद है। और इन दोनों के दरमियान कशमकश और टक्कर है। जिसे इक़बाल ख़ुदी (अहंभाव) और नाख़ुदी (अहंभाव का न होना) कहते हैं।

किताब का छठा बाब ‘इक़बाल और हुब्बुल वतनी’ है। और यह इसलिए रखा गया है कि आम तौर पर ये ग़लत-फ़हमी है कि ‘सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा’ के बाद इक़बाल का रवैया हिंदुस्तां की तरफ़ से बदल गया था।”

सरदार जाफ़री ने कहा ‘‘यह बात बिल्कुल ग़लत है।’’ ये नज़्म इक़बाल के तालिब-ए-इल्मी के ज़माने की है। इसमें शे’री ख़ूबियां भी कम हैं। दूसरी नज़्मों में इसके मुक़ाबले, ज़्यादा ख़ूबियां हैं। और हुब्बुल वतनी का जज़्बा मौजूद है। ‘हिंदुस्तान हमारा’ चूंकि हिंदुस्तान के मुताल्लिक़ पहली नज़्म है, इसलिए ये बहुत मक़बूल हुई। और लोग समझने लगे कि इसके बाद इक़बाल ने हुब्बुल वतनी की और कोई नज़्म नहीं लिखी।

आख़िर में सरदार जाफ़री ने कहा कि सातवां बाब ‘इक़बाल और इश्तिराकियत’ के तीन हिस्से हैं-

(1) इक़बाल ने जो इश्तिराकियत की तारीफ़ की।

(2) इक़बाल ने जो इश्तिराकियत पर जो ऐजराज़ात किए।

(3) मैंने इक़बाल के ऐतराज़ात का तज्ज़िया (विश्लेषण) किया है।

इस सिलसिले में मैंने एक नज़्म ‘आलम-ए-नौ का ख़्वाब’ छोड़ दी है। इसके मुताल्लिक़ एक अलहदा बाब है, जो मेरी किताब का आख़िरी बाब है। एक दूसरी नज़्म ‘लेनिन ख़ुदा के हुजू़र में’ की मिसाल देते हुए जाफ़री ने कहा कि यहां पर इक़बाल का तसव्वुर ये है कि इंसान ख़ुद एक छोटा सा ख़ालिक़ है और उसकी रूहानी क़ुव्वत, उसकी तख़्लीक़ी क़ुव्वत है। इसमें इंसान और ख़ुदा का मुकालमा (वार्तालाप) है। ख़ास तौर पर इंसान के जवाब। ‘तू शब आफ़रीदी चराग़ आफ़रीदम’ में इंसान की अज़्मत बयान की है।’’

सरदार जाफ़री ने आख़िर में कहा कि ‘‘नक्स ग़र अजल’ में इक़बाल तकमील (पूर्णता) तक पहुंचते हैं। जहां वो फ़रिश्तों से कहते हैं ‘उठो मेरे दुनिया के ग़रीबों को जगा दो’ यहां पर इक़बाल ने ख़ुद को इश्तिराकियत के मुताबिक़ ढाल लिया था।’’

 (अली सरदार जाफ़री का लेख, उर्दू से हिंदी लिप्यंतरण : ज़ाहिद ख़ान और इशरत ग्वालियरी)

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