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फासीवाद का विकल्प

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रजनीश भारती

पांच राज्यों के आम चुनाव की मतगणना सम्पन्न होते ही हर बार की तरह चुनाव विश्लेषकों के विचार आने शुरू हो गये कुछ लोग विपक्षी पार्टियों की कमियां गिनाने में, तो कुछ लोग आरएसएस व भाजपा की कार्यशैली की तारीफ करने में लगे हुए हैं। 
मगर कुछ अपवादों को छोड़कर सारे चुनाव विश्लेषक इस चुनाव में अर्धसामन्ती भूस्वामियों, बड़े पूंजीपतियों, विदेशी साम्राज्यवादियों और इनके अकूत काले धन की भूमिका को पूरी तरह से नजरअंदाज कर रहे हैं।
सन् 2011 की सेंसस रिपोर्ट के अनुसार 6% लोगों के पास 46% जमीन इकट्ठा है, तब से अब तक 12 वर्षों में गरीब व मध्यम किसानों ने मजबूरी में जो अपनी  जमीन बेचा है उस बिकी हुई जमीन का एक बड़ा हिस्सा उन्हीं 6% लोगों के पास ही इकट्ठा होता गया है। ऊसर, बंजर, परती, जंगल, तालाब, आदि पर सबसे ज्यादा अवैध कब्जा दखल इन्हीं वर्गों का है। 
इन्हीं 6% लोगों का रूझान जिधर ज्यादा होता है, अक्सर जीत उधर ही होती है। 2007 में बसपा की बहुमत की सरकार तभी बन पायी थी जब इन 6% लोगों का रुझान बसपा की तरफ हो गया था। 2012 में सपा की जीत इसीलिए हुई थी कि सपा की तरफ उन का ज्यादा रुझान बन गया था। उन्हीं 6% लोगों का समर्थन पाकर कांग्रेस लगभग पचपन साल केन्द्र की सत्ता में रही है। और तो और ब्रिटिश साम्राज्य ने इन्हीं के सहयोग से देश पर 200 साल तक शासन किया। आज जब यही 6% अभिजातों का रूझान भाजपा की तरफ होता है तो भाजपा जीत जाती है। यहां तक कि चुनावबाज कम्यूनिस्ट पार्टियां भी अक्सर तभी जीत पाती हैं जब इन अर्धसामन्ती भूस्वामियों का रूझान उनकी तरफ हो जाता है। 
इन अर्धसामन्ती भूस्वामियों का रुझान उधर ही होता है, जिधर देश के बड़े पूंजीपति होते हैं, देश के बड़े पूंजीपति उधर ही होते हैं, जिधर सबसे ज्यादा काला धन इकट्ठा होता है। सबसे ज्यादा काला धन उधर ही होता है, जिधर ज्यादातर विदेशी साम्राज्यवादी शक्तियों का रुझान होता है, ज्यादातर विदेशी साम्राज्यवादियों का रूझान उधर ही होता है जिधर उनके सरगना अमेरिकी साम्राज्यवाद का रुझान होता है। इस तरह भारत के आम चुनाव में सबसे ज्यादा और निर्णायक दखल अमेरिकी साम्राज्यवाद का होता है। हर आम चुनाव से पहले रूपये के मुकाबले डालर का रेट गिर जाता है क्योंकि उस समय विदेशी साम्राज्यवादियों का काला धन डालर से बदल कर रूपये की शक्ल ले रहा होता है। फिर रूपये की शक्ल में काला धन चुनाव में झोंक दिया जाता है। 
कानूनी तौर पर एक विधान सभा प्रत्याशी अधिकतम 40 लाख रूपया खर्च कर सकता है। परन्तु विभिन्न सूत्रों से पता चल रहा है कि बड़ी पार्टियों के कई प्रत्याशी ऐसे रहे हैं जो पांच करोड़ से लेकर बीस करोड़ तक खर्च किये हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो बीस करोड़ से भी ज्यादा खर्च कर डाले हैं। 40 लाख से ऊपर जो भी चुनावी खर्च आता है उसका हिसाब वे सरकार को नहीं देते। यह काला धन ही होता है। इस तरह चुनाव में 90% से लेकर 99% भूमिका काले धन की होती है। सफेद धन के भरोसे चुनाव लड़कर शायद ही कोई जमानत बचा पाता है।
काले धन की हेराफेरी में विदेशी साम्राज्यवादियों की मदद यही 6% के लोग ही करते है, प्रचार करने से लेकर वोट खरीदने तक यही लोगों तक कालाधन पहुंचाते हैं। अधिकांश भूमिहीन व गरीब किसानों, खेत मजदूरो को लालच देकर फंसा लेते हैं। जिससे वे इनके इशारे पर वोट दिया करते हैं। छोटे-छोटे जातिवादी छत्रपों को यही लोग काले धन की लालच देकर खरीदते हैं। सत्ता की कुर्सी पर चाहे दलित का बेटा बैठे चाहे किसान का बेटा, चाहे धरती पुत्र, चाहे सूर्य पुत्र, चाहे चाय वाला बैठे, चाहे कुल्फी वाला बैठे, चाहे आयरन लेडी बैठे या गोबर की लेडी बैठे मगर जमीनी तौर पर सत्ता यही 6% लोग ही चलाते हैं। 
धार्मिक सत्ता हो या राजनीतिक सत्ता हर तरफ इन्हीं 6% लोगों का दबदबा है। जेल, अदालत, सेना, पुलिस, नौकरशाही में बड़े प्रशासनिक पदों पर इन्हीं का वर्चस्व कायम है। जमीन की हैसियत के आधार पर ठेका, पट्टा, कोटा, परमिट, लाइसेंस, एजेन्सी, सस्ते कर्ज, अनुदान, आधुनिक शिक्षा, आदि यही लोग हासिल करते रहे हैं। सभी पूंजीवादी पार्टियों के बड़े पदों पर यही लोग बैठे हैं। बड़े व विदेशी अनुदान पाने वाले गैरसरकारी संस्थाओं के 95% मालिक इन्हीं अर्धसामन्ती वर्गों में से हैं।
अगर ईवीएम में हेरा-फेरी और छेड़छाड़ की कोई गुंजाइश हो सकती है तो इन्हीं 6% लोगों में से जो बड़े ऊंचे पदों पर रहते हैं वही कर या करा सकते हैं। मतदाता सूची से विरोधी मतदाताओं का नाम गायब करने का काम भी यही लोग कर सकते हैं। यही लोग गाय, गोबर, गंगा, मंदिर, मस्जिद, अगड़ा, पिछड़ा, दलित के नाम पर दंगा-फसाद माबलिंचिंग कराने में मुख्य भूमिका निभाते हैं। जाति- धर्म, फर्जी देशभक्ति रा फर्जी राष्ट्रवाद के नाम पर नकली दुश्मन खड़ा करके जनता को जनता से लड़ाते हैं।
विदेशी पूंजी की सेवा करने वाले इन फर्जी राष्ट्रवादियों के सहयोग से ही हमारे देश में फासीवादी ताकतें फल-फूल रही हैं। जब तक कृषि क्रान्ति के जरिए जमीन का सही बंटवारा करके भूमिहीन व गरीब किसानों को जमीन नहीं दी जायेगी, तथा विदेशी साम्राज्यवादियों और उनके दलालों की सारी पूंजी जब्त नहीं होगी तब तक भारतीय जनता की गुलामी की बेड़ियां नहीं टूटेंगी। इस क्रान्ति के बगैर चुनाव में किसी को भी हरा-जिता लें मगर फासीवाद कत्तई नहीं परास्त होगा। अत: कृषि क्रांति ही फासीवाद का विकल्प है।
*रजनीश भारती*

*जनवादी किसान सभा*

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