(न्यायपालिका के ये नए रुझान अब नियम बन रहे हैं!
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बादल सरोज
मौजूदा समय की खासियत सामान्यतः ऊंचाईयों में शुमार होने वाली हर चीज द्वारा अपनी अपनी नीचाईयों के नए-नए मुकाम गढ़ना है।
पुरानो को बदले बिना ही आचरण और बर्ताब के नए रूप और विधान बनाये जा रहे हैं, जो पहले से एकदम उलट हैं। खासी तेजी और योजनाबद्धता के साथ इन्हे “न्यू नॉर्मल”, मतलब “अब तो ऐसा ही चलेगा” के रूप में स्थापित किया जा रहा है। सोचे समझे तरीकों से यह प्रयत्न भी किये जा रहे हैं कि लोगों से हतप्रभ होने का उनका स्वाभाविक गुण ही छीन लिया जाए ; वे एक बात पर चौंककर “अरे, ये क्या हुआ” कह पाएं, इसके पहले ही दूसरी, तीसरी, चौथी ऐसी घटनाओं की बमबारी कर दी जाए कि अंततः वे चौंकना या आश्चर्यचकित होना ही भूल जायें। पिछले 8 साल इस “न्यू नॉर्मल” के आम प्रचलन में लाने के साल रहे हैं। जो थोड़ी बहुत कसर या एकाध जगह बची थी, अब उसे भी जद में लिया जा रहा है। हाल के दिनों में आए न्यायालयीन फैसले उसी की निरंतरता हैं।
ऐसे में हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र याद आते हैं। इसलिए कि डेढ़ सौ साल पहले जिस “अंधेर नगरी चौपट राजा” की बात वे कह गए थे, वह आज अपने पूरे उरूज पर आती जा रही है। संविधानसम्मत क़ानून के राज की अवधारणा को उलटने में संविधान में वर्णित सत्ता के दो अंग – विधायिका और कार्यपालिका – पहले से ही जुटे थे, अब तीसरे और तुलनात्मक रूप से तटस्थ माने जाने वाले अंग – न्यायपालिका – को भी काम पर लगा दिया गया है, जिसे देखकर आज भारतेन्दु दोहराते कि “रोअहू सब मिलिकै आवहु भारत भाई / हा हा भारत दुर्दशा न देखी जाहि!!”
गुजरात दंगों के पीड़ितों के लिए न्याय मांगने की मुहिम से जुड़ी तीस्ता सीतलवाड़ और पूर्व डीजीपी श्रीकुमार की याचिका खारिज करने के साथ ही उनके विरुद्ध पुलिसिया कार्यवाही करने के निर्देश वाले सर्वोच्च न्यायालय के “फैसले” और उसके नतीजे में अगले ही दिन गुजरात पुलिस द्वारा की गयी इन दोनों की गिरफ्तारी पर स्तब्ध लोकतांत्रिक भारत संभल पाता कि बस्तर के गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ठीक वैसा ही फैसला सुना दिया। प्रकरण यह था कि 2009 में छत्तीसगढ़ के सुकमा ज़िले के गोमपाड गाँव में सोलह आदिवासियों की पुलिस और सुरक्षा बलों द्वारा हत्या कर दी गयी| मारे गये लोगों में महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग थे| एक डेढ़ साल के बच्चे की तो उंगलियाँ ही काट दी गई थीं| इस हत्याकाण्ड की सीबीआई या किसी न्यायाधीश द्वारा जांच कराने की याचिका लेकर हिमांशु कुमार सर्वोच्च न्यायालय गए थे। उनकी याचिका को खारिज करते हुए 14 जुलाई 2022 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि 16 आदिवासियों की हत्या बाबत उनके द्वारा दायर किया गया मुकदमा झूठा है और इसके लिए हिमांशु कुमार पर पांच लाख रूपये का जुर्माना लगाया जाय। इसी के साथ ठीक तीस्ता के फैसले की तर्ज पर छत्तीसगढ़ सरकार और सीबीआई से हिमांशु कुमार के विरुद्ध कार्यवाही करने की सलाह भी दे डाली। यहां सवाल लगाया गया जुर्माना भर नहीं है। दुनिया के किसी भी न्याय विधान के हिसाब से आश्चर्यजनक बात यह है कि बिना किसी जांच के सुप्रीम कोर्ट ने “मामला झूठा होना” बता दिया। न्यायमूर्तियों के अनुसार पुलिस तफ्तीश कर चुकी है और मामला झूठा है। इस तरह जिस पुलिस पर इस हत्याकांड का आरोप है, उसी के द्वारा की गयी जाँच में खुद को दोषमुक्त करने को अदालत ने मान लिया।
पहली बात तो यह है कि जस्टिस पी एन भगवती ने जब जनहित याचिकाओं की परंपरा शुरू की थी, तो वह न्यायपालिका के क्षेत्र में एक नया प्रयोग था, जिसका परिणाम न्याय और जन अधिकारों सहित अन्य क्षेत्रों में, उत्साहजनक और बेहतर रहा। इसने लोगों में न्याय के प्रति उम्मीद जगाई थी – बेलगाम और निरंकुश सत्ता के मन में क़ानून के राज का भय पैदा किया था। लेटलतीफी के लिए जाने जाने वाले और ‘जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड’ के पर्याय से बन गए भारत के न्याय तंत्र में जरूरी मामलों में सहज न्याय मिल जाने की संभावना पैदा की थी। “न्यू नॉर्मल” अब साँस लेने के इस छोटे से जरिये को भी बंद कर देना चाहता है।
दूसरी बात यह कि सुप्रीम कोर्ट ने यह झाड़ूमार निष्कर्ष उस बस्तर के बारे में दिया है, जहाँ स्थानीय पुलिस द्वारा इससे पहले किये गए जिन-जिन हत्याकांडों की निष्पक्ष जांचें हुईं, उन सभी में पुलिस को दोषी पाया गया, इन्हें मुठभेड़ नहीं, जानबूझकर की गई हत्याएं माना। हिमांशु कुमार ने इनमे से कुछ गिनाये भी हैं। जैसे :
2009 में सिंगारम गाँव में 19 आदिवासियों को लाइन में खड़ा करके पुलिस ने गोली से उड़ा दिया था, जिनमें चार लड़कियां थीं – जिनके साथ पहले बलात्कार किया गया था | इस मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपनी जाँच रिपोर्ट में इसे फर्जी मुठभेड़ बताया।
2008 में माटवाड़ा में सलवा जुडूम कैम्प में रहने वाले तीन आदिवासियों की पुलिस ने चाकू से आँखें निकाल ली थीं और उन्हें मार कर दफना दिया था और इसका इलज़ाम माओवादियों पर लगा दिया था | मानवाधिकार आयोग ने इस मामले की जाँच की और स्वीकार किया कि हत्या पुलिस ने की थी। इस मामले में थानेदार और दो सिपाही जेल गए |
2012 में सारकेगुडा गाँव में सत्रह आदिवासियों की हत्या सीआरपीएफ ने की| सरकार ने कहा यह लोग माओवादी थे| गाँव वालों ने बताया कि मारे गये लोग निर्दोष थे, जिसमें नौ बच्चे थे| अंत में न्यायिक आयोग की जांच रिपोर्ट में पाया गया कि मारे गये लोग निहत्थे निर्दोष आदिवासी थे| दोषी पुलिस अधिकारी भी नामजद हुए।
2013 में एडसमेट्टा गाँव में सात आदिवासियों की पुलिस ने हत्या की | सरकार द्वारा दावा किया गया कि यह लोग माओवादी थे | बाद में न्याययिक आयोग की रिपोर्ट आई कि यह लोग निर्दोष आदिवासी थे |
सुरक्षा बलों के सिपाहियों द्वारा आदिवासी महिलाओं से बलात्कार की शिकायतें दर्ज कराई गई| राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की टीम ने जांच की और रिपोर्ट दी कि सोलह आदिवासी महिलाओं के पास प्राथमिक साक्ष्य मौजूद हैं, जिससे पता चलता है कि उनके साथ सुरक्षाबलों के सिपाहियों ने बलात्कार किये हैं |
वर्ष 2017 में तब की भाजपा सरकार ने सीपीएम के छग राज्य सचिव संजय पराते, जेएनयू प्रोफेसर अर्चना प्रसाद, नंदिनी सुन्दर, विनीत तिवारी सहित 6 सामाजिक कार्यकर्ताओं पर उनके नामा गाँव के दौरे से लौटकर आने के 6 महीने बाद हुयी एक हत्या में नामजद कर दिया। खुद सुप्रीम कोर्ट ने पहले इसमें गिरफ्तारी पर रोक लगाई, बाद में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने जाँच की और माना कि पुलिस और सरकार ने इन सभी को प्रताड़ित करने के लिए यह झूठा मुकदमा लगाया था और हरेक को एक-एक लाख रूपये का मुआवजा देने के आदेश भी दिए।
ऐसे अनगिनत मामले हैं जिन्हे बस्तर के सामाजिक कार्यकर्ता उठाते रहे हैं। पुलिस उन्हें प्रताड़ित करती रही है। देर से ही सही, पर कुछ मामलों में न्याय भी मिलता रहा है। मगर तीस्ता सीतलवाड़ और हिमांशु कुमार के मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने “न्यू नॉर्मल” का एक के बाद दूसरा उदाहरण पेश किया है। ठीक ऐसे ही, कई इससे भी ज्यादा हतप्रभ करने वाले उदाहरण और भी हैं, इनमे से दो का उल्लेख जरूरी है क्योंकि उनके निहितार्थ कुछ ज्यादा ही अजीब और असामान्य हैं।
हाल का मद्रास हाईकोर्ट का मंगलसूत्र – तमिलनाडु में इसके समतुल्य धागे को ताली कहते हैं – न पहनने को तलाक का आधार बताने वाला निर्णय इनमे से एक है। हाईकोर्ट ने अपने फैसले में एक नजीर देते हुए कहा है कि “याचिकाकर्ता/पत्नी द्वारा ‘मंगलसूत्र’ हटाने को एक ऐसा कार्य कहा जा सकता है, जो अव्वल दर्जे की मानसिक क्रूरता को दर्शाता है, क्योंकि यह पीड़ा का कारण हो सकता था और प्रतिवादी की भावनाओं को ठेस पहुंचा सकता था।” जेएनयू के छात्रनेता उमर खालिद के मामले में सुनवाई करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट की खंडपीठ ने तो राजनीतिक विमर्श की अब तक की मान्यताओं को ही उलट-पुलट कर रख दिया। उसने प्रधानमंत्री के लिए ‘जुमला’ शब्द का इस्तेमाल करने को गलत बताया, शाहीन बाग की औरतों द्वारा ऊँट को पहाड़ के नीचे लाए जाने की बात पर भी आपत्ति की और सवाल किया कि इसमें ऊंट किसे कहा जा रहा है? संघियों पर खालिद की टिप्पणी कि “आपके पूर्वज दलाली कर रहे थे’” भी न्यायमूर्तियों को आपत्तिजनक लगी और उन्होंने “लक्ष्मणरेखा” तय करने का उपदेश दे दिया।
विडंबना यह है कि यही जज और इसी सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अदालत के बाहर ठीक इसके उलट अच्छी-अच्छी बातें बोलते हैं, मगर आसंदी पर बैठकर अलग ही भाषा बोली जा रही है। यह दोहरापन इस “न्यू नॉर्मल” की लाक्षणिक विशेषता है। मोटा-मोटी इस विशेषता को मोदी-मॉडल कहा जा सकता है। इधर मोदी खुले समाज’ की अवधारणा पर जी-7 और अतिथि देशों के एक संयुक्त बयान पर हस्ताक्षर करते हुए ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों के मूल्यों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मजबूती के साथ पुष्टि करते हैं, उसे प्रोत्साहित करने की बात करते हैं। इस स्वतंत्रता को लोकतंत्र की रक्षा करने वाली और लोगों को भय और दमन से मुक्त रहने में मदद करने वाली बताते हैं। वहीँ ठीक उसी समय उनकी सरकार पत्रकार मोहम्मद जुबैर को उस मामले को सामने लाने के लिए गिरफ्तार कर रही थी, जिसे भाजपा की प्रवक्ता नूपुर शर्मा ने दिया था और जिनकी आज तक भी गिरफ्तारी नहीं हुई है। इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय खबर आई है कि सुप्रीम कोर्ट ने भाजपा की प्रवक्ता रही नुपुर शर्मा को पैगंबर मोहम्मद पर की गई टिप्पणी को लेकर कई राज्यों में उनके खिलाफ दर्ज प्राथमिकियों/शिकायतों के संबंध में दंडात्मक कार्रवाई से संरक्षण प्रदान कर दिया।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने भारतवासियों से भारत की दुर्दशा पर रोने का ही आमंत्रण नहीं दिया था, उन्होंने इस दुर्दशा का अन्त करने का प्रयास करने का आह्वान भी किया था। आज वे ऐसा करते, तो उस समय के अपने संवाद को अद्यतन करते हुए कहते कि ;
“भीतर-भीतर सब रस चूसै,
हंसि हंसि के तन मन धन मूसे।
जाहिर बातन में अति तेज,
का सखि साजन? नहिं सखि मोदी॥“
न्यायपालिका के ये नए रुझान अपवाद नहीं हैं, अब वे नियम बन रहे हैं और नए नियम बना रहे हैं। लोकतंत्र में लोक ही सर्वोच्च शक्ति है, वही अपने साथ किये जा रहे अन्याय को रोक सकता है।
(लेखक बादल सरोज ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)