जेल में बंद बेलारूस के ह्यूमन राइट्स एडवोकेट आलिस को नोबेल का शांति पुरस्कार
इस साल के नोबेल शांति पुरस्कार का ऐलान हो गया है। ये पुरस्कार मानवाधिकार के लिए काम करने वाले एक व्यक्ति और दो संगठनों को दिया गया है। इनमें बेलारूस के ह्यूमन राइट्स एडवोकेट आलिस बिलिआत्स्के के अलावा रशियन ह्यमून राइट्स ऑर्गनाइजेशन मेमोरियल और यूक्रेनियन ह्यूमन राइट्स ऑर्गनाइजेशन सेंटर फॉर सिविल लिबर्टीज शामिल हैं।
इससे पहले टाइम मैगजीन ने भारत से तीन लोगों के नाम नोबेल पीस प्राइज की दौड़ में होने की जानकारी दी थी। इनमें फैक्ट चेकर मोहम्मद जुबैर और प्रतीक सिन्हा के अलावा सांप्रदायिकता के खिलाफ काम करने वाले कारवां-ए मोहब्बत संस्था के हर्ष मंदर थे।
तीनों ही भारतीयों को नोबेल भले ही न मिल सका हो, लेकिन बातचीत में इन तीनों ने कहा कि पुरस्कार के लिए शॉर्टलिस्ट होने से वे बहुत खुश हैं, क्योंकि इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनके काम को पहचान मिली है।
सबसे पहले प्रतीक सिन्हा की बात, जो ऑल्ट न्यूज के को-फाउंडर हैं…
करियर के बारे में…
2017 में हमने ऑल्ट न्यूज शुरू किया था। मैंने 2003 में इंजीनियरिंग की डिग्री ली थी। 2017 तक मैंने इंजीनियर के तौर पर ही काम किया। मैं इंजीनियर तो बन गया, लेकिन मुझे लग रहा था कि मैं अपनी स्किल्स का इस्तेमाल समाज के लिए कर सकता हूं।
पिता मुकुल सिन्हा गुजरात हाई कोर्ट में वकील थे। उन्होंने अहमदाबाद में गुजरात दंगों से जुड़े मुकदमे लड़े हैं। मेरी मां भी एक्टीविस्ट रहीं, इसलिए घर में सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा होती थी। यहीं से मेरी पृष्ठभूमि तैयार हुई।
जुबैर से मुलाकात पर…
मैं 2014 में जुबैर से मिला। हम अच्छे दोस्त बन गए। 2016 में मैंने जुबैर से कहा कि हम दोनों के पास फेसबुक और ट्विटर पर मिलाकर करीब 80 हजार फॉलोअर हैं। अच्छा ऑडिएंस है। हम मिलकर मीडिया स्पेस में कुछ कर सकते हैं। खासकर मिसइंफॉर्मेशन के फील्ड में।
ऑल्ट न्यूज की शुरुआत पर…
दिसंबर 2016 में मैंने अपना कॉन्ट्रैक्ट छोड़ दिया। जुबैर उस समय नोकिया में काम कर रहे थे। वे अब भी फुल टाइम जॉब करते हैं क्योंकि उन्हें परिवार चलाना है। वे नौकरी नहीं छोड़ सकते। शुरुआत में मैंने ऑल्ट न्यूज शुरू किया और जुबैर वॉलंटियर करते थे।
घटना जिसका असर रहा…
अगस्त 2016 में गुजरात के ऊना में एक रैली हुई थी। अभी कांग्रेस विधायक जिग्नेश मेवाणी ने एक संस्था बनाई थी- ऊना दलित अधिकार समिति। गुजरात में 4 दलित बच्चों को मारा गया था। उसकी प्रतिक्रिया में अगस्त 2016 में रैली की गई थी। ये रैली अहमदाबाद से ऊना तक जानी थी। मेरे माता-पिता की संस्था जन संघर्ष मंच के कई सदस्य इसमें शामिल थे। मैं और मां भी रैली में थे। मैंने इसके वीडियो बनाए और सोशल मीडिया पर इसका डॉक्यूमेंटेशन किया था।
11 जुलाई 2016 को गुजरात के ऊना में खुद को गौ रक्षक समिति का सदस्य बताने वाले लोगों ने दलित युवकों को बुरी तरह पीटा था। इसी के विरोध में दलित नेता जिग्नेश मेवाणी ने आंदोलन किया था।
रैली के आखिरी दो दिन तक मेनस्ट्रीम मीडिया ने इसे कोई खास तवज्जो नहीं दी। मेरे वीडियो और तस्वीरें ही सोशल मीडिया पर शेयर हो रहे थे। मेरे लिए वह सफर बहुत अहम था। तब मैं समझ पाया था कि मैं मीडिया क्षेत्र में भी काम कर सकता हूं। तब मैंने तय कर लिया था कि अब मुझे मीडिया में ही काम करना है।
नोबेल के लिए नॉमिनेशन पर…
हम नहीं जानते हैं कि हमें नॉमिनेट किया गया है या नहीं। पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट ने फरवरी में हमारा नाम रिकमंड किया था। टाइम मैगजीन में एक आर्टिकल आया कि हम शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए पसंदीदा लोगों में से एक हैं। ये हमारे काम पर मुहर लगाता है। हम फेक न्यूज और मिसइंफॉर्मेशन के खिलाफ काम कर रहे हैं। इससे साबित होता है कि ये देश के अहम मुद्दे हैं और हमारा काम अहम है।
आगे की प्लानिंग पर…
काम तो आगे बहुत करना है। अभी तो हमें सिर्फ 5 साल हुए हैं। एक तरह से हमने अभी शुरुआत भी नहीं की है। ज्यादातर लोग जो पुरस्कार जीतते हैं उन्हें 30-35 साल के काम के लिए ये पुरस्कार मिलता है। हम इसके लायक हैं या नहीं, इस पर मैं टिप्पणी नहीं करूंगा। ये जरूर कहूंगा कि हमें अभी बहुत काम करना है। हमें शिक्षा और पत्रकारिता के अलावा तकनीकी क्षेत्र में भी काम करना है।
हमें लॉन्ग फॉर्म जर्नलिज्म करना है। जुबैर और मैं दोनों ही इंजीनियर हैं। पहले हमें मीडिया की बहुत समझ नहीं थी। अब हम जानते हैं कि मीडिया कैसे काम करता है। हमारी राजनीतिक समझ भी बढ़ी है और देश के मुद्दों की समझ भी बढ़ी है।
फैक्ट चेकिंग की जरूरत पर…
मैं 2013-14 से सोशल मीडिया पर फैक्ट चैकिंग कर रहा हूं। तब मिसइंफॉर्मेशन अलग तरह का था। तब डेटा महंगा और इंटरनेट की स्पीड कम थी। ज्यादातर फोटो शेयर होती हैं। मुझे याद है कि ताइवान की एक तस्वीर शेयर करके दावा किया गया था कि ये गुजरात का बस स्टैंड हैं। मैंने फैक्ट चैक कर बताया था कि ये ताइवान की है। मैं सोशल मीडिया पर बहुत वक्त बिताता था। फेक न्यूज या गलत जानकारियों को शेयर होते देखता था।
मुझे अहसास हो रहा था कि आगे चलकर इस दिशा में काम करने की जरूरत है। जुबैर भी सोशल मीडिया पर बहुत वक्त बिता रहे थे। हम दोनों जानते थे कि ये मुद्दा बड़ा होगा। हम फैक्ट चैकिंग के बारे में काफी कुछ समझते थे। 2017 में ये भी अहसास हुआ कि जो पारंपरिक पत्रकार थे, उनके पास ऐसे टूल्स नहीं थे कि फेक तस्वीरों या वीडियो को वेरिफाई कर सकें। तब कोई इस दिशा में खास काम कर भी नहीं रहा था। इसलिए हमने फेक न्यूज को रोकने के लिए काम शुरू किया।
हमारे पास ग्राउंड रिपोर्ट करने की ट्रेनिंग भी नहीं थी। इसलिए हमारे पास उस समय जो स्किल्स थीं, उन्हीं का इस्तेमाल करके हमने फैक्ट चैक का काम शुरू किया।
जर्नलिज्म के बारे में…
कोई भी हमारी वेबसाइट पर जाकर देख सकता है कि हम क्या काम कर रहे हैं। हम राजनीतिक पार्टी की पोस्ट का फैक्ट चैक करते हैं। जो लोग ये कहते हैं कि हम एक सैट नैरेटिव के तहत काम कर रहे हैं, वे गलत कह रहे हैं। हमारा काम सबके सामने है और कोई भी हमारी वेबसाइट पर आकर इसे देख सकता है।
पत्रकारिता में सिर्फ हमारे लिए ही नहीं, सभी पत्रकारों के लिए काम करना मुश्किल हो गया है। इसी वजह से ज्यादातर मीडिया आउटलैट सरकार समर्थक होते जा रहे हैं। इसकी एक वजह ये है कि विज्ञापनदाता भी सरकार के नियंत्रण में हैं। इसी वजह से सरकार के काम का क्रिटिकल एनालिसिस नहीं होता है।
जुबैर पर केस के बारे में…
हम लोग निशाने पर है हीं, जुबैर पर इतने फर्जी मुकदमे लगाए गए। 1983 के मामले के लिए 2022 में व्यक्ति को जेल भेजा जा रहा है। वह भी उस पोस्ट के लिए, जो 2018 में शेयर की गई थी। आरोप लगाया गया कि इससे सामाजिक व्यवस्था बिगड़ रही है। इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है। हम जानते हैं कि हम निशाने पर रहेंगे। हमारे काम को ऐसी अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलती है, तो हम अपने आप को थोड़ा मजबूत महसूस करते हैं। सरकार भी जानती है कि हमें निशाना बनाने पर अंतरराष्ट्रीय जगत में सुर्खियां बन सकती हैं।
दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने 28 जून को मोहम्मद जुबैर को अरेस्ट किया था। उन पर धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का आरोप लगा था।
बिजनेस मॉडल पर…
हम लोगों का बिजनेस मॉडल डोनेशन पर चलता है। मैंने ब्रिटेन के गार्जियन न्यूज पेपर के मॉडल के बारे में एक आर्टिकल पढ़ा था कि कैसे वह नुकसान उठाने वाले वेंचर से यूजर से पैसा लेकर फायदा उठाने वाला वेंचर बन गया। वही आइडिया हमारे दिमाग में था। हम लोगों से डोनेशन के मॉडल पर काम करते हैं
मोहम्मद जुबैर बोले- नोबेल के लिए नॉमिनेट होना महान अहसास
हमारे नॉमिनेशन के बारे में कोई आधिकारिक जानकारी नोबेल समिति की तरफ से नहीं है, लेकिन इस बारे में जानकर कि हम नॉमिनेट या शॉर्टलिस्ट हुए हैं, यही अपने आप में बहुत महान अहसास है। हमें ये जानकर बहुत अच्छा लग रहा है कि ऑल्ट न्यूज के काम को दुनिया पहचान रही है और वह उसका सम्मान कर रही है।
ट्विटर पर भले ही मेरे बहुत सारे फॉलोअर हैं, लेकिन वास्तविक जीवन में कुछ दोस्तों को छोड़कर कोई नहीं जानता था कि मैं ऑल्ट न्यूज का हिस्सा हूं। मेरे जेल जाने के बाद हजारों लोगों ने मेरा साथ दिया। हम अपनी संस्था के लिए जो काम कर रहे हैं, उसका समर्थन किया।
अपने काम के लिए ऐसा समर्थन मिलते देखना अच्छा अहसास है। जो लोग हमारे साथ हैं, वे ये बात समझते हैं कि हमारे खिलाफ सभी मामले फर्जी हैं। इनका मकसद हमें निशाना बनाना और हमारे काम को प्रभावित करना था। हम बिना किसी राजनीतिक दवाब के काम करते हैं।
हर्ष मंदर ने कहा– ये नॉमिनेशन मेरा नहीं, लड़ाई में शामिल रहे सभी साथियों का
अवार्ड के लिए नॉमिनेशन का मतलब है कि नफरत का दौर, जो हमारे देश में चल रहा है, उसका सामना करना जरूरी है। मोहब्बत की लड़ाई का महत्व पूरी दुनिया समझ रही है। मैं मानता हूं कि मैं अकेले इस लड़ाई में शामिल नहीं हूं। बहुत से लोग ये लड़ाई लड़ रहे हैं
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वे इस नफरत का सामना करने की कोशिश कर रहे हैं। इसकी कीमतें चुका रहे हैं। बहुत से लोगों को जेल में भेजा गया, क्योंकि वे संविधान पर चल रहे हैं। देश आजाद हुआ था, तब संविधान ने ये भरोसा दिया था कि किसी भी धर्म या भगवान को मानने वाले सभी लोग बराबर हैं और उनमें फर्क नहीं होगा।
ये नॉमिनेशन सिर्फ मेरा नहीं, बल्कि उन सब साथियों का है, जो इस लड़ाई में शामिल रहे हैं। IAS सर्विस में मैं लगभग दो दशक तक था। ये सेवा मेरे दिल के बहुत करीब रही है।
देश के सबसे अंतिम व्यक्ति को न्याय दिलाने की कोशिशों में वे साल बीते। 2002 के गुजरात नरसंहार के बाद मैंने ये महसूस किया कि कई लड़ाइयां ऐसी हैं जो आप सरकार के भीतर रहकर लड़ सकते हैं, लेकिन अब जो लड़ाई सामने दिख रही है, उसे सरकार के भीतर रहकर नहीं लड़ा जा सकता है।
गुजरात के सांप्रदायिक दंगों के बाद मुझे ये अहसास हुआ कि हम उस दिशा में जा रहे हैं, जहां संविधान ही दांव पर है। संविधान के जो वादे थे वे दांव पर हैं। मुझे ये लगा कि संविधान की रक्षा की लड़ाई ऐसी है, जिसके लिए मुझे आजाद नागरिक होना जरूरी है।
इसलिए ही मैं IAS सेवा से बाहर निकला। मुझे अब लगता है कि सरकारी सेवा से बाहर आकर लड़ाई लड़ने का मेरा फैसला सही था। थोड़ा फर्क जो हम ला पाए हैं, वो स्वतंत्र हैसियत की वजह से ही आया।
मैं समझता हूं कि आज का दौर जिससे हम गुजर रहे हैं, अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों के बराबरी के अधिकारों की एक लड़ाई तो है, लेकिन एक दूसरी लड़ाई है शांतिपूर्ण तरीके से सरकार और सत्ता के खिलाफ अपनी आवाज उठाना और विरोध दर्ज कराना। ये अब बहुत मुश्किल हो गया है। अब UAPA के तहत केस हो जाते हैं, ED की छापेमारी हो जाती है। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ इस तरह के कानूनों का इस्तेमाल किया जा रहा है।
सरकार ये चाहती है कि राजनीतिक क्षेत्र में, मीडिया में, समाज में विरोधी आवाज पूरी तरह खत्म हो जाए। इसलिए ही हम चाहते हैं कि ये लड़ाई जारी रहे। अपने मूल्यों के हिसाब से जिंदगी को गुजारने की कीमत होती है और हमें खुशी से उसे स्वीकार करना जरूरी है। मुझे किसी तरह का कोई अफसोस नहीं है।
बेलारूस के ह्यूमन राइट्स एडवोकेट आलिस बिलिआत्स्के को इस पुरस्कार के लिए चुना गया है। आलिस ने 1980 में बेलारूस की तानाशाही के खिलाफ डेमोक्रेसी मूवमेंट का आगाज किया था। वे आज तक अपने देश में सच्चा लोकतंत्र बहाल करने की जंग लड़ रहे हैं। रूस-यूक्रेन जंग में बेलारूस के राष्ट्रपति लुकाशेंको व्लादिमिर पुतिन के साथ खड़े हैं। आलिस का संगठन जेल में बंद लोकतंत्र समर्थकों को कानूनी मदद मुहैया कराता है। आलिस खुद भी अभी जेल में हैं।