जाति अंत का सवाल दिल्ली दरबार में दाखिल*
*- प्रोफे. श्रावण देवरे*
जाति अंत का एजेंडा राष्ट्रीय स्तर पर एजेंडे के रूप में न आने पाए इसके लिए ब्राह्मणी छावनी सतत दांवपेंच व षड्यंत्र रचती आई है। 1947 तक अंग्रेज शासन में होने के कारण फुले, शाहू, पेरियार व अंबेडकर आदि को जाति अंत का सवाल राष्ट्रीय स्तर पर ले जाना आसान हुआ था। *तात्यासाहेब महात्मा जोतीराव फुले के सत्यशोधक आंदोलन के प्रभाव के कारण अंग्रजों को 1872 से जाति आधारित जनगणना कराने को बाध्य होना पड़ा था। आधुनिक काल में जातिअंत के सवाल को राष्ट्रीय एजेंडे पर लाने का यह पहला यशस्वी प्रयत्न था।*
उसके बाद छत्रपती शाहू महाराज ने 1902 में अपने राज्य में ब्राह्मणेतरों के लिए 50% जगहें आरक्षित करने का कानून बनाकर व वेदोक्त प्रकरण के द्वारा अखिल भारतीय ब्राह्मणी छावनी को दहशत में ला दिया। उसके बाद डा. अंबेडकर ने 1932 में ब्राह्मणी छावनी के अखिल भारतीय गांधी नेतृत्व को गोलमेज परिषद में आमने सामने चुनौती दी। नाशिक काळाराम मंदिर सत्याग्रह, स्वतंत्र मजूर पक्ष, *संविधान निर्माण जैसे अनेक धक्के देते हुए बाबासाहेब ने जातिअंत के सवाल को देश स्तर पर गुंजायमान रखा।*
स्वातंत्र्योत्तर काल में ब्राह्मणी छावनी के शासन प्रशासन में एकछत्र वर्चस्व व उनके द्वारा लागू नीतियों ने जाति के सवाल की लहर को किनारे कर दिया। जाति आधारित जनगणना बंद करना, हिन्दू कोड बिल नकारना, बाबासाहेब की देश की राजनीति से अपमानास्पद तरीके से बेदखली आदि कृत्यों से जाति के सवाल को सीमित करने का प्रयास हुआ। संविधान लागू होते ही एक ही साल के भीतर सभी पिछडों के आरक्षण पर बंदी लाने का प्रयत्न सुप्रिम कोर्ट के माध्यम से किया गया। किन्तु उसी समय *(1951-52) में रामास्वामी पेरियार के नेतृत्व में हुए उग्र ओबीसी आंदोलन के कारण संविधान में पहला संशोधन करना पड़ा। स्वातंत्र्योत्तर काल की यह पहली क्रांतिकारी घटना थी, जिसके कारण देशके सभी Sc+St+OBC पिछडी जातीयोंका आरक्षण बच गया व जातिव्यवस्थाअंत का प्रश्न अखिल भारतीय राजनीतिक एजेंडे पर आ गया।* सिर्फ हिंदी द्वेष के अतिरेक के कारण यह आंदोलन राष्ट्रीय आंदोलन न बनकर मद्रास प्रांत तक ही सीमित रह गया, मात्र उसका इफेक्ट पूरे देशभरमे हुआ।
कालेलकर आयोग को लागू करने की जिम्मेदारी नेहरू द्वारा राज्यों को सौंपकर जातिअंत के प्रश्न को राष्ट्रीय एजेंडे से पोंछने का प्रयास हुआ। जाति के सवाल को राज्य स्तर पर लाकर दबाया जा सकेगा ऐसा अनुमान ब्राह्मणी छावनी का था। किंतु इसके कारण जाति का सवाल और अधिक ही उग्र बनता गया। ओबीसी बहुल राज्यों में ओबीसी की स्वतंत्र राजनीति खड़ी होने लगी। *बिहार में जननायक कर्पूरी ठाकुर, उत्तर प्रदेश में रामनरेश यादव व तमिलनाडु में अण्णादुराई जैसे ओबीसी मुख्यमंत्रियों ने जातिअंत की राजनीति स्वतंत्र रूप से खड़ी की। राज्य स्तर की यह जाति अंत की राजनीति आगे चलकर जनता पार्टी के रूप में फिर से राष्ट्रीय स्तर पर संगठित रूप में और अधिक मजबूती से आ गई।* उसका परिणाम यह हुआ कि कालेलकर आयोग व बाद में मंडल आयोग की रिपोर्ट से जाति अंत का प्रश्न फिर से देश के एजेंडे पर छा गया।
10 साल के बाद फिर से गठित तीसरे मोर्चे से जनता दल का उदय हुआ। 1977 में जनता पार्टी में ओबीसी का सिर्फ *‘प्रभाव’* था, इसलिए मंडल आयोग की रिपोर्ट पार्लियामेंट में प्रस्तुत होने के पहले ही जनता पार्टी की सरकार गिराने में ब्राह्मणी छावनी को कामयाबी मिल गई थी। लेकिन दस वर्ष के बाद 1988 में तीसरे मोर्चे में जनता दल के रूप में भारतीय राजनीति में ओबीसी का *‘वर्चस्व’* निर्णायक हो चुका था। इसलिए मंडल आयोग का क्रियान्वयन शुरू होने के बाद ही ब्राह्मणी छावनी जनता दल की सरकार गिराने में सफल हो पाई। *राष्ट्रीय स्तर पर मंडल आयोग लागू होने के कारण जाति अंत के प्रश्न ने देश की राजनीति को आमूलचूल बदल कर रख दिया है।*
ऐसी प्रचंड प्रतिकूल परिस्थिति में भी ब्राह्मणी छावनी ने चार रणनीतिक निर्णय लेकर और षड्यंत्र पर षड्यंत्र करते हुए भारतीय राजनीति में बाजी मार ली। *उनका पहला रणनीतिक कृति कार्यक्रम था ओबीसी का धार्मिक- सांस्कृतिक स्तर पर अपहरण करना। उसके लिए उन्होंने मंदिर- मस्जिद व हिन्दू- मुस्लिम ध्रुवीकरण की राजनीति की।* दूसरा रणनीतिक निर्णय- प्रत्येक राजनीतिक पार्टी को ओबीसी वर्ग की प्रत्येक जाति से ‘जाति का नेता’ तैयार करने के लिए लगाया गया। जिसके कारण ओबीसी वर्ग की सामाजिक- राजनीतिक गुणात्मकता को प्रभावहीन करने में ब्राह्मणी छावनी को सफलता मिल चुकी है। तिसरा रणनीतिक निर्णय- ब्राह्मणी छावनी के विरोध में मजबूती से लड़ने वाले यादव, कुनबी, कुर्मी, माली, जैसी बहुसंख्यक ओबीसी जातियों के खिलाफ ओबीसी की अल्पसंख्यक जातियों को भड़काकर उन्हें अलग थलग करने और उन्हें संघ भाजपा की ताकत बनाने में ब्राह्मणी छावनी को सफलता मिल गई।
*उसके लिए रोहिणी आयोग का खेल खेला गया। रोहिणी आयोग से अल्पसंख्यक छोटी ओबीसी जातियों को कुछ भी मिलने वाला नहीं है किन्तु ओबीसी में फूट डालकर संघ- भाजपा को फायदा निश्चित रूप से हो रहा है। रेंडके आयोग ने भी वही काम किया।* 2006 में कांग्रेस सरकार में स्थापित रेंडके आयोग ने 2008 में अपनी क्रांतिकारी रिपोर्ट पेश किया। बाद में भाजपा सरकार ने इदाते समिति स्थापित करके रेणके आयोग की रिपोर्ट को डायल्यूट करके निर्रथक किया। रेंडके आयोग व दादा इदाते समिति से प्रत्यक्षतः भटकी-घुमंतु जातियों को तो कुछ नहीं मिला लेकिन घुमंतु-भटकी जातियों को ओबीसी से तोड़ने में भाजपा- कांग्रेस को सफलता जरूर मिल गई।
*ब्राह्मणी छावनी का चौथा सबसे बड़ा षड्यंत्र था- देश के दलित राजनैतिक नेताओं को सत्ता का लालच दिखाकर संघ- भाजपा के खेमे में लाना।* बाबासाहेब अंबेडकर ने सतत रूप से दलित+आदिवासी+ओबीसी इस जातिअंतक समीकरण को सामने रखा। संघ भाजपा ने इस समीकरण का बारीकी से अध्ययन किया व देश की राजनीतिक शक्ति रहे कांशीराम- मायावती, रामविलास पासवान आदि जैसे नेताओं को ओबीसी से तोड़कर उन्हें संघ – भाजपा के खेमे में लाया गया।
संघ -भाजपा के उपरोक्त चार षड्यंत्र संपूर्ण देश के प्रत्येक राज्य में सफल हुए अपवाद सिर्फ तमिलनाडु रहा। *करुणानिधि- पेरियार के तमिलनाडु में पिछले 50 -55 सालों से संघ- भाजपा का एक भी षड्यंत्र सफल नहीं हो सका।*
इस प्रकार चार रणनीतिक कृति कार्यक्रम के क्रियान्वयन के बल पर भाजपा- कांग्रेस की ब्राह्मणी छावनी ने जातिअंतक, बलशाली, क्रांतिकारी ओबीसी शक्ति को क्षीण किया जिसके कारण ही ब्राह्मणी छावनी को 2014 में प्रतिक्रांति करने में कामयाबी मिली हुई है।
अब देश में फिर से एक बार राष्ट्रीय स्तर पर सत्ताधारी पार्टी के विरोध में एक राजनैतिक गठबंधन खड़ा करने का प्रयत्न चल रहा है। परंतु आज तक के हुए गठबंधन और अभी होनेवाले गठबंधन में एक मूलभूत अंतर रहने वाला है।
देश में पहली बार ब्राह्मणी छावनी ने अपना नंगा नाच देश के सामने पेश किया है इस बार की सत्ताधारी पार्टी ने अपनी ब्राह्मणी विचारधारा को स्पष्ट रूप नीतिगत स्वरूप में लागू करने की शुरुआत की है। वर्णव्यवस्था नष्ट करने वाली बौद्ध क्रांति निष्प्रभावी करने के लिए पुष्यमित्र शुंग ने ईसवी सन् 01 में जो प्रतिक्रांति की, उस ब्राह्मणी प्रतिक्रांति ने वर्णव्यवस्था से हजारों गुना टिकाऊ व मजबूत जातिव्यवस्था का निर्माण किया। *अब संविधान व लोकतंत्र को नष्ट करते हुए 2014 में जो प्रतिक्रांति की है वह जातिव्यवस्था से भी लाखों गुना ज्यादा टिकाऊ व मजबूत नई ब्राह्मणी व्यवस्था का निर्माण करने वाली है। अर्थात जाति-वर्ग व्यवस्था का निम्नतम और हीनतम स्तर पर पुनर्जीवन!* ऐसी परिस्थिति में इस ब्राह्मणी छावनी का विरोध करने वाला गठबंधन कैसा होना चाहिए व किसके नेतृत्व में होना चाहिए इस पर चर्चा करना अत्यंत आवश्यक है।
केंद्रीय सत्ताधारी भाजपा के विरोध में हो रहे गठबंधन का नेतृत्व करने की इच्छा बहुत सारे छोटे बड़े राजनैतिक नेताओं के मन में पैदा हुई है। *किन्तु संविधान बचाओ व लोकतंत्र बचाओ जैसे मुद्दे लेकर कांग्रेस इस गठबंधन का नेतृत्व करने की इच्छा रखती है। ऐसा बचावात्मक गठबंधन संघ- भाजपा के लिए सुविधाजनक होने के कारण वह इसके लिए पूरक कृति कार्यक्रम अपनाकर इसे आगे बढ़ा रही है।* राहुल गांधी को गुजरात न्यायालय से दो साल की सजा सुनाने और उसके आधार पर उनकी सांसदी रद्द करने के पीछे यही दिखाने का प्रयत्न है कि राहुल गांधी ही भाजपा के सबसे बडे शत्रु हैं। यह सिद्ध करने का प्रयास शुरू है ताकि भाजपा-विरोधी गठबंधन का नेतृत्व राहुल गांधी के पास अपने आप आ जाए। ऐसा अनुमान संघ- भाजपा का है।
केवल राफेल जैसे व अडानी जैसे भ्रष्टाचार के वर्गीय मुद्दे लेकर भाजपा विरोधी लड़ाई नहीं जीती जा सकती। ब्राह्मणी छावनी को अपनी भाजपा पार्टी खड़ी करने के लिए मंडल-विरोधी लड़ाई करनी पड़ी है, उसके लिए उसे राम के नाम पर सांस्कृतिक राजनीति करनी पड़ी है। मंदिर- मस्जिद ध्रुवीकरण के द्वारा हिन्दू- मुस्लिम दंगे करवाने पड़े है। ओबीसी वर्ग में फूट डालने के लिए रोहिणी आयोग और रेंडके आयोग का खेल खेलना पड़ा। ओबीसी से तोड़कर दलित नेताओं को संघ- भाजपा के खेमे में लाना पड़ा। *भाजपा केवल कांग्रेस का विरोध करके बड़ी हुई पार्टी नहीं है बल्कि वह अपनी विचारधारा व रणनीतिक एजेंडे के क्रियान्वयन से बड़ी हुई पार्टी है. लोकतंत्र-विरोध व संविधान-विरोध यह सिर्फ उसका ऊपर ऊपर का कवच है अंदर गर्भगृह ब्राह्मणवादी महाशक्ति से भरा हुआ है, जो जाति व्यवस्था से भी लाखों गुना ज्यादा शोषण करनेवाली महाभयंकर नई ब्राह्मणी व्यवस्था निर्माण करने की क्षमता रखती है।*
ऐसे समय में केवल लोकतंत्र बचाओ, संविधान बचाओ जैसे कामचलाऊ मुद्दे लेकर तुम उसका कवच भी नहीं भेद सकते उसके गर्भगृह तक जाने की तो सोच भी नहीं सकते। भाजपा अपनी ताकत सांस्कृतिक प्रतिक्रांति से कमाती रहती है यह भूलकर चलनेवाला नहीं है।
भाजपा को घर में घुसकर मारना है तो तुम्हें उसके सांस्कृतिक नाभि केन्द्र पर चोट करने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है। भाजपा की सांस्कृतिक शक्ति पर वही पार्टी प्रहार कर सकती है जो स्वयं अपनी ताकत सांस्कृतिक क्रांति से कमाती रहती है। *आज के समय देश में वैसी एक ही पार्टी है, और वह है डीएमके व वैसी क्षमता वाला एक ही नेता है, और वह है एम के स्टालिन!*
बिल्कुल ठीक समय पर स्टालिन ने भारतीय राजनीति के क्षितिज पर धमक दी है। डीएमके पार्टी का जन्म ही मूलतः ब्राह्मणी छावनी के विरोध में ‘विद्रोह’ करने से हुआ है। रामास्वामी पेरियार दक्षिण भारत में कांग्रेस के जाने माने नेता थे, गांधी के अत्यंत नजदीकी नेता थे। वायकोम जैसे मंदिर सत्याग्रह के कारण वे उस समय के सबसे बड़े नेता के रूप में भी प्रसिद्ध हुए थे। परंतु गांधी व कांग्रेस की आरक्षण विरोधी नीतियों के के कारण उन्होंने *ब्राह्मणी कांग्रेस को लात मारकर स्वतंत्र रूप से ‘स्वाभिमानी आंदोलन’ खड़ा किया और इसी स्वाभिमानी आंदोलन से डीएमके (DMK) नाम की क्रांतिकारी पार्टी का जन्म हुआ है।*
आरक्षण का विस्तार, मंदिर प्रवेश, जैसे सामाजिक विषयों के आंदोलन के साथ उन्होंने रामायण- महाभारत के विरोध में भी अब्राह्मणी प्रबोधन करके सांस्कृतिक क्रांति की भी शुरुआत की। अर्थात *जनसंघ-भाजपा नाम की पार्टी जब पैदा ही नहीं हुई थी उस समय डीएमके पार्टी (DMK) अपनी सांस्कृतिक- सामाजिक ताकत के साथ मजबूती से खड़ी थी।* डीएमके पार्टी की स्थापना 17 सप्टेंबर 1949 को हुई और सिर्फ 19 वर्ष के अंदर ही वह तमिलनाडु की सत्ता को काबिज कर गई। *ओबीसी के नेतृत्व में हुई यह क्रांति केवल राजनैतिक ही नहीं बल्कि ब्राह्मणी संस्कृति के विरोध में अब्राह्मणी क्रांति थी।* जिसके कारण इस राज्य में बीते 50-55 सालों से ब्राह्मणी छावनी पराभूत जीवन जी रही है। भारत में शक्तिशाली दिखने वाले कांग्रेस, संघ- जनसंघ, भाजपा, बजरंग दल, विश्वहिंदू परिषद वगैरह पार्टियां और संगठन वहाँ तामीळनाडू मे अस्तित्व की भीख मांगते फिर रहे हैं!
*आरक्षण की व्यापकता सभी अब्राह्मण समाज घटकों तक ले जाते हुए उसे 69% तक पहुंचाना। इस अब्राह्मणी आरक्षण को संविधान की नौंवी अनुसूची का संरक्षण प्राप्त कराना, किसी भी परिस्थिति में नौकरशाही में ब्राह्मणों का प्रतिनिधित्व 3% से ऊपर न होने पाए इसका ध्यान रखना, ब्राह्मणों का 10% ईडब्ल्यूएस आरक्षण लागू ना करना। मंदिरों से ब्राह्मण पुजारियों को बाहर करके दलित+आदिवासी+ओबीसी पुजारियों को सरकारी कर्मचारी के रूप में भर्ती करना, रामायण, महाभारत, पुराण कथा, मनुस्मृति वगैरह ब्राह्मणी ग्रंथों का अब्राह्मणी प्रबोधन करनेवाले ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट निर्माण करके उन्हें चलाना जैसे कितने ही काम वहाँ सरकारी स्तर पर सतत चलते रहते हैं।*
यह काम उत्तर भारत में अनेक बार सत्ता प्राप्त करने के बावजूद कांशीराम- मायावती व लालू- मुलायम नहीं कर सके। यदि डीएमके पार्टी का अनुकरण करते हुए कांशीराम-मायावती व लालू-मुलायम आदि यूपी बिहार में ऐसी अब्राह्मणी क्रांति किए होते, तो ब्राह्मणी छावनी 2014 में प्रतिक्रांति कतई नहीं कर पाती। लोहियावादी समाजवादी लालू मुलायम से यह अपेक्षा करना गलत ही होगा, क्योंकि खुद लोहिया ही राम-कृष्ण के भक्त थे किन्तु खुद को अंबेडकरवादी कहलाने वाले कांशीराम- मायावती से यह अपेक्षा करना उचित था। परंतु कांग्रेस-संघ-भाजपा की ब्राह्मणी छावनी से गठबंधन करके अस्तित्व के लिए संघर्ष करती बहुजन समाज पार्टी की तरफ से इस प्रकार की अब्राह्मणी क्रांति करना असंभव ही था। बसपा केवल संघ-भाजपकी ‘‘दलित सेल’’ बनके रह गयी है! हाथी को गणेश बनाने का मतलब होता है, ब्राह्मणी संस्कृती को शरण जाना!
*आज भारत की राजनीति में संघ-भाजपा के विरोध में मजबूती से खड़ी रहने वाली तीन ही पार्टियां हैं।*
*अखिलेश -मुलायम की समाजवादी पार्टी (उप्र)*
*तेजस्वी- लालू की राष्ट्रीय जनता दल (बिहार)*
और
*स्टालिन-करुणानिधि की डीएमके (DMK) पार्टी (तमिलनाडु).*
*आडवाणी की राम रथयात्रा संपूर्ण भारत में घूमी, किन्तु यह राम-रथयात्रा तमिलनाडु में प्रवेश करने की हिम्मत नहीं दिखा सकी, इस राम रथयात्रा को रोककर आडवाणी को जेल में डालने की हिम्मत सिर्फ लालू-मुलायम ही कर सके।* क्योंकि बाकी सभी पार्टियां ब्राह्मणी कांग्रेस-भाजपा की उप पार्टियां हैं. कॉंग्रेस, भाजपा ये मुख्य ब्राह्मणी पार्टियां और राष्ट्रवादी कॉंग्रेस, तृणमूल कॉंग्रेस, तेलंगना राष्ट्र समिती पार्टी, वाएसआर कॉंग्रेस पार्टी, तेलगू देशम पार्टी, बसपा, लोकजनशक्ती पार्टी यह उनकी उप पार्टियां है! यह सब ब्राह्मणवादी पार्टियां संघ के ब्राह्मणी गर्भनाल को हाथ भी नहीं लगा सकते। आज भारत में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस पार्टी, केजरीवाल की आप पार्टी, शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, ठाकरे की शिवसेना पार्टी, नवीन पटनायक की बीजू जनता दल पार्टी (उड़ीसा), फारुख अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस पार्टी व महबूबा मुफ्ती की पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (जम्मू कश्मीर), जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस पार्टी व चंद्राबाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी (आंध्रप्रदेश) जैसी अनेक उप पार्टियां हैं।
*कांग्रेस सहित सभी पार्टियां और उप पार्टियां ये सब और उसी प्रकार कम्युनिस्ट पार्टियां भाजपा के विरोध में तो हो सकती हैं लेकिन वे संघ-RSS के विरोध में नहीं जा सकतीं। क्योंकि भाजपा का विरोध करनेका मतलब होता है- राजनीतिक विरोध- जो भाजपा के विरोधमे चुनाव लढकर स्पष्ट दिखता है! परन्तु संघ-RSS का विरोध करनेका मतलब होता है- उसकी ब्राह्मणी संस्कृती की विचारधारा का विरोध करना- जो ब्राह्मण विरोधी कानून करना और कृति कार्यक्रमों के द्वारा दिखाई पड़ता है।*
तमिलनाडु में डीएमके ने जो ब्राह्मण विरोधी काननू बनाये और उन्हें कड़ाई से लागू भी किया जो आज भी जारी है, ऐसे कानून बनाने की हिम्मत खुद को क्रांतिकारी कहलानेवाले बहुजन समाज पार्टी व कम्युनिस्ट पार्टियां भी नहीं कर सकीं। अपने सत्ता काल में ये पार्टियां ब्राह्मणी एजेंडा ही लागू कर रहीं थीं। *इसीलिए संघ-भाजपा की ब्राह्मणी गर्भनाल को हाथ लगाने की हिम्मत डीएमके पार्टी को छोड़कर अन्य कोई भी नहीं कर सकती।*
आज संपूर्ण भारत में ओबीसी वर्ग जाति आधारित जनगणना आंदोलन का नेतृत्व कर रहा है, जाति-आधारित जनगणना अर्थात जातिअंतक क्रांति का महाद्वार है जिसके कारण जातिअंत का प्रश्न फिर से एक बार देश के राजनीतिक एजेंडे पर आया है। ऐसी परिस्थिति में कट्टर ब्राह्मणवादी, पूंजीवादी व जातिव्यवस्था वादी भारतीय जनता पार्टी के विरोध में राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन बन रहा है तो उसका स्वरूप *’जातिअंतक- वर्गअंतक राजनीतिक गठबंधन’* ऐसा ही होना चाहिए और इस गठबंधन का नेतृत्व *डीएमके पार्टी* ही कर सकती है, उसी प्रकार इस विरोधी गठबंधन का नेता *स्टालिन* ही हो सकते हैं।
स्टालिन ने राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे जातिअंतक-वर्गअंतक मोर्चे के गठन की तैयारी शुरू भी की है, 8 अप्रैल 2023 को स्टालिन ने दिल्ली में सामाजिक न्याय परिषद आयोजित किया था इस परिषद का मुख्य एजेंडा *देशमे जाति आधारित जनगणना और देश का फेडरल स्ट्रक्चर* यह था! इस परिषद में सभी भाजपा विरोधी मुख्य पार्टियों के प्रतिनिधि उपस्थित थे। *इस परिषद को जो अभूतपूर्व प्रतिसाद मिला उससे यह निश्चित हो गया कि अब स्टालिन के नेतृत्व में अखिल भारतीय भाजपा विरोधी राजनीतिक गठबंधन साकार होगा, जो 2024 के चुनाव में भाजपा को पराभूत करेगा और स्टालिन के नेतृत्व में फुले-शाहू- आंबेडकर-पेरियारवाद सरकार की स्थापना होगी।*
मराठी से हिंदी अनुवाद-चन्द्र भान पाल
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