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लोकतंत्र में मनमानापन….लोकतंत्र न राजनीति है, न व्यापार

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प्रफुल्ल कोलख्यान

अरविंद केजरीवाल, हेमंत सोरेन जैसे नेताओं को जेल में रखने के राजनीतिक प्रयोग और पराक्रम के राजनीतिक प्रभाव और चुनावी परिणाम की परीक्षा का दौर पूरा हो चुका है। तो फिर आगे क्या है! प्रतीक्षित और अपेक्षित परिणाम के प्रकाशित होने तक बस धुआंता हुआ अनुमान! फिलहाल तो यह सोचना जरूरी है कि मुठभेड़ की राजनीति और लोकतंत्र के मनमानेपन से बने घटना चक्र में अंतर्निहित कर्तव्य-संकट से नागरिक समाज का उबार कैसे हो!व्यापार और राजनीति दोनों ही ‘लुका-छिपी का खेल’ है, लेकिन जब राजनीति व्यापार हो जाये और व्यापार राजनीति तब लुका-छिपी के हाल का अनुमान लगाना बड़ी कठिन है। जब राजनीति पैसा कमाने का साधन बन जाये तो उसे व्यापार के अलावा कहा भी क्या जा सकता है? जब व्यापार सत्ता पर काबिज होने का रास्ता खोल दे तो उस व्यापार को राजनीति न कहा जाये तो क्या कहा जाये! लेकिन लोकतंत्र! लोकतंत्र न राजनीति है, न व्यापार है। लोकतंत्र जीवन का प्रकाश पर्व है।

लुका-छिपी लोकतंत्र के माफिक नहीं होता है। इस अर्थ में राजनीति, व्यापार और लोकतंत्र की भंगिमाएं एक दूसरे के विपरीत ठहरती है। जीवन विपरीतों के व्यवधानों में व्यवस्था का इंतजाम करता रहता है। विरुद्धों की संबद्धता के द्वंद्व को जीवन नैसर्गिक तौर-तरीका से साधता रहता है। जीवन और जगत में नैसर्गिक रूप से द्वंद्व होता है। द्वंद्व के होने से सीधे-सीधे इनकार नहीं किया जा सकता। दक्षिण-पंथी समझ द्वंद्व के भाववादी समाधान के लिए मानसिक और ‘आध्यात्मिक’ उपाय करती है।

वाम-पंथी समझ द्वंद्व के भौतिक समाधान के लिए ऐतिहासिक और वैज्ञानिक उपाय का रास्ता अख्तियार करती है। जीवन और जगत की व्याख्या के ये ही दो रास्ते हैं। कुल मिलाकर यह कि जीवन और जगत की व्यवस्था राजनीति या तो अध्यात्म का सहारा लेती है या विज्ञान का सहारा लेती है। पूंजीवाद को मनुष्यों, कह लें श्रमिकों के शोषण और बेहिसाब मुनाफे के लिए शासन-व्यवस्था में अध्यात्म का रास्ता सुविधाजनक लगता है लेकिन उत्पादन के लिए विज्ञान का सहारा तो लेना ही पड़ता है।

उदाहरण के लिए हैदराबाद में 15 मार्च 2024 को आयोजित विश्व आध्यात्मिक महोत्सव में भारत की महामहिम राष्ट्रपति, श्रीमती द्रौपदी मुर्मु के संबोधन को याद किया जा सकता है। शुरू में ही यह ध्यान में रख लेना होगा कि इस संबोधन के सफल संप्रेषण के लिए वैज्ञानिक माध्यमों का बेहिचक सहारा लिया गया। संप्रेषण की अंतर्वस्तु पर भी यहीं गौर कर लिया जा सकता है। खैर मुद्दे की बात यह है कि इस तरह के आयोजित कार्यक्रमों में ‘आध्यात्मिक राष्ट्रवाद’ के प्रति हमारे लोकतांत्रिक नेताओं के रुख को समझा जा सकता है।

सवाल यह है कि क्या भारत का संविधान किसी भी अर्थ में धार्मिक या आध्यात्मिक ग्रंथ है? क्या भारत का संविधान ‘आध्यात्मिक राष्ट्रवाद’ का आधार बनाता है? क्या संविधान के सामने भक्ति-भाव और श्रद्धा से सिर झुकाना पूरी निष्ठा सच्ची श्रद्धा से संविधान के प्रति शासकों के दायित्व का पूरा होना माना जा सकता है? पूरी निष्ठा और सच्ची श्रद्धा से संविधान के पालन और भारत की अखंडता को सुरक्षित रखने की शपथ में सिर्फ भौगोलिक अखंडता का भाव शामिल है या सामाजिक अखंडता का भाव भी शामिल नहीं है? यहां तो धार्मिक सीरियलों के प्रसारण के दिनों टीवी सेट भी आध्यात्मिक यंत्र हो जाता है। फिर भी, इन सवालों के जवाब भारत के नागरिक समाज को खोजना ही होगा।

मनुष्य का मनुष्य के द्वारा शोषण किये जाने के विरोधी समाजवाद को उत्पादन और शासन दोनों की व्यवस्था के लिए विज्ञान का रास्ता सुविधाजनक लगता है। वर्ण-व्यवस्था श्रमिक विभाजन का ऐसा इंतजाम है जिस का नकारात्मक असर समाज और शासन व्यवस्था पर पड़ता है। यह नकारात्मक असर जीवन के हर क्षेत्र में विषमता की खाई को हर पल चौड़ा और गहरा बनाता है। विषमता लोकतंत्र के लिए जहर से कम नहीं होता है।

जाहिर है कि समाजवाद के प्रति थोड़ा-बहुत भी आग्रह और अपील रखनेवाली राजनीति की वैचारिकी अनिवार्य रूप से वर्ण-व्यवस्था और राष्ट्रवाद के आध्यात्मिक स्वरूप के प्रति सावधान और सचेत रहती है। जबकि भारतीय जनता पार्टी की राजनीति की वैचारिकी में ‘आध्यात्मिक राष्ट्रवाद’ के आग्रह और अपील की ही प्रधानता रहती है। इस अर्थ में भारतीय जनता पार्टी भारत को अन्य सभी राजनीतिक दलों से भिन्न और विशिष्ट है।

कम्युनिस्ट विचारधारा के अलावा कोई अन्य राजनीतिक विचारधारा पूरी तरह से वैज्ञानिक समाजवाद को अपना एक-निष्ठ आधार नहीं मानती है। मनुष्य के बुनियादी स्वभाव और पूंजीवाद के प्रभाव से लोकतांत्रिक पटल पर राजनीतिक लुका-छिपी का खेल चलता रहता है। इस संदर्भ का उल्लेख किये बिना आज भारत की राजनीतिक गतिविधि को समझना मुश्किल है। क्योंकि भारतीय जनता पार्टी की पूरी जमात और कांग्रेस के राहुल गांधी के द्वारा जिस तरह से अपनी-अपनी राजनीति को चुनाव से सीमित न करके विचारधारा की लड़ाई के रूप में आगे बढ़ाया जा रहा है, अन्य राजनीतिक दलों को भी देर-सबेर किसी-न-किसी विचारधारा के साथ खड़ा होना ही होगा।

भारत का संविधान उतना वाम जरूर है जितना वाम मानव देह में दिल होता है। कांग्रेस समेत अन्य राजनीतिक दलों की भी वैचारिक स्थिति उतनी वाम जरूर है, जितना वाम संविधान है। इस अर्थ में देर-सबेर चुनावी राजनीति समेत भारत की समग्र राजनीति भारतीय जनता पार्टी बनाम अन्य के रूप में ही चल सकती है।

संविधान के रहते राजनीतिक विचारधारा की लड़ाई का राजनीतिक और सामाजिक दुश्मनी में बदलते जाना बहुत दुर्भाग्यजनक है। इस के मूल में कहीं-न-कहीं संविधान की अवहेलना जरूर है। तनाव पूर्ण वैश्विक वातावरण में देश की आंतरिक राजनीति में इस प्रकार के गृह-कलह का संकेत बहुत भयावह हैं। लोकतंत्र में मनमानापन अंततः राजनीति को मुठभेड़ बना देता है। मन की बात करते-करते यही भूल गये कि लोकतंत्र का प्राण मनमर्जी में नहीं जनमर्जी में बसता है!

ऐसा माना जा सकता है कि यही वह समय है जब राजनीतिक विचारधारा को अधिक जन-संवेदी बनाये जाने की जरूरत सब से अधिक है। इनकार नहीं किया जा सकता है कि जन-संवेदी बनाने का मतलब इस बात पर सहमति अर्जित करना है कि आध्यात्मिक और धार्मिक दृष्टि-कोण व्यक्तिगत और उस लोक से जुड़े रहकर ही सार्थक हैं, सामाजिक और इस लोक के मामलों में विभिन्न भौतिक और वैज्ञानिक समाजवादी दृष्टि-कोण ही प्रासंगिक हैं। लोकतंत्र सुदृढ़ और शुद्ध रूप से इस लोक का प्रसंग है।

लोकतांत्रिक राजनीति की लुका-छिपी के खेल में मीडिया का महत्व प्रकाश-पुंज का है। प्रकाश की चरित्रगत विशेषता है लुके-छिपे को खुले में ले आना। जन-अनुभव है कि आज प्रकाश दिखाने के साथ-साथ छिपाने का भी माध्यम बन रहा है। आज मीडिया बहुत खर्चीला बन गया है। मीडिया के संचालकों की भूमिका में वे ही हैं जिन के अपरिपक्व हित ‘आध्यात्मिक राष्ट्रवाद’ के दृष्टि-कोण से पोषित हैं। मीडिया की भूमिका का परिप्रेक्ष्य मीडिया घरानों की पहल पर ठीक होने से रही। हां, मीडिया कर्मी के हित और मीडिया घरानों के हित के फर्क में जिस दिन मीडिया कर्मी अपने हित की परिपक्वता को ठीक-ठीक समझ लेंगे, उस दिन से मीडिया के परिप्रेक्ष्य के सही होने की शुरुआत हो सकती है।

अभी विधानसभाओं के चुनाव जारी और प्रतीक्षित है। यह सच है कि कांग्रेस शासित इलाका आदर्श स्थिति में नहीं पहुंच गया है, लेकिन यह तो भारतीय जनता पार्टी शासित इलाकों का भी सच है। राज्य कांग्रेस शासित हो या भाजपा शासित हो प्रधानमंत्री होने के नाते वे अपने दायित्व से मुंह नहीं मोड़ सकते हैं। लेकिन वह तो इस तरह से अपना भाषण कर रहे हैं जैसे कांग्रेस का सत्ता में आना ‘गलती’ से होता है। किस की गलती से? यानी कांग्रेस का सत्ता में आना मतदाता समाज के गलत निर्णय का नतीजा होता है और वहां का मतदाता समाज गलती का खट्टा-मिट्ठा अनुभव लेने के लिए ‘बाध्य’ है।

लोकसभा का परिणाम आने के बाद अयोध्या यानी फैजाबाद के मतदाता समाज के साथ भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों के द्वारा किया गया व्यवहार क्या सत्ता की इसी समझ से समर्थित माना जा सकता है! इसे चुनावी राजनीति के बयानों के खाता में डालना कहीं से उचित नहीं है। इस तरह के बयानों को भ्रामक भाषण के रूप में ही चिह्नित किया जाना चाहिए। कौन चिह्नित करेगा? केंद्रीय चुनाव आयोग! उम्मीद तो की ही जा सकती है। लेकिन लोकतंत्र में अंतिम उम्मीद तो मतदाता समाज की सुमति में ही निहित होती है।

ऐसा लग रहा है कि भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक गाड़ी का चक्का बहुत तेजी से घूम रहा है। लेकिन राजनीति की गाड़ी ऐसी जगह पर पहुंच गई है जहां चक्का जमीन से बत्तीस इंच नीचे धंसा हुआ है। चुनावी राजनीति में बाहरी दुनिया का दृश्य बहुत तेजी से बदल रहा है। बाहर झांकने पर लगता है कि ‘सब कुछ’ तेजी से बदल रहा है। भीतर देखने पर पता चलता है, ‘सब कुछ’ ठहरा हुआ है। ठहरा हुआ है लेकिन गाड़ी के कंपन के साथ घरघराहट गाड़ी के चलते रहने का आभास दे रही है।

यह घरघराहट घर-घर के आहत होने की आहट से बनी है। आंख मुंद लेने पर ‘सब कुछ’ बहुत तेजी से चलता हुआ लगता है। इस ऐंद्रजालिक दृश्य-श्रव्य घटना चक्र (इपीसोड) के बीच फंसे भारत के लोगों के लिए आंख मुंद लेने पर ‘कहीं कुछ अशुभ नहीं’ का बोध हो सकता है। आंख थोड़ी भी खुली रहे तो नजारा कुछ दूसरा ही दिखता है।

ऐसा लग रहा है कि जम्मू-कश्मीर और हरियाणा विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद भाजपा की राजनीतिक गाड़ी का चक्का या तो ठीक से जमीन पकड़ लेगा या फिर गियर छोड़ देगा। मुश्किल यह है कि यह दृश्य-श्रव्य-चक्र जरूर ऐंद्रजालिक है लेकिन आम लोगों के पैर के नीचे लगातार गर्म होती जा रही रेत ऐंद्रजालिक नहीं है बल्कि भारतीय जन-जीवन का ज्वलंत राजनीतिक यथार्थ है। ऐसे में कोई आंख मुंदे तो कैसे! आंख-कान बेच खाये हुए लोगों की बात और है। दृश्य-श्रव्य के घूमते घटना चक्र के बीच क्या मतदाता समाज का नागरिक जीवन कर्तव्य-संकट में फंस गया है!

आंख थोड़ी भी खुली हो तो आशंकाओं के द्वीपों के बीच कुछ धुंधले-धुंधले दृश्य नजर आ सकते हैं। समझ में आने लायक बात यह है कि जिस तरह से राहुल गांधी, अखिलेश यादव और इंडिया अलायंस के सांसदों ने मिलकर चुस्ती से संसदीय सक्रियता दिखलाई वह दस साल से प्रश्न-विहीन संसद की अभ्यासी भारतीय जनता पार्टी, खासकर पार्टी के ‘दो बड़े नेताओं’ को भीतर से काफी अ-सहज कर देनेवाला दृश्य-श्रव्य था। आखिर कब तक और कैसे पीठासीन अधिकारी इस अ-सहजता से इन्हें उबारने में सफल रहेंगे! भारतीय जनता पार्टी ने घटक दलों के सांसदों से अलग-अलग रिश्ता ‘सुलझाने’ की गुप-चुप कोशिश की मगर चालाकी ससमय पकड़ में आ गई। भारतीय जनता पार्टी के ‘दो बड़े नेताओं’ को तो अभी अपने अध्यक्ष के चयन के मसले को भी सुलझाना है।

ऐसा तो नहीं माना जा सकता है कि विपक्ष के सारे नेता पाक-साफ हैं। लेकिन यह भी तो नहीं है कि सत्ताधारी दलों के सारे नेता परम-पवित्र हैं। समझ में आने लायक बात है कि ‘जाति धर्म दल’ आदि की परवाह किये बिना सरकार और सरकारी संस्थाएं सभी आरोपियों पर संतुलित, कम-से-कम आंख में न चुभने वाली, कार्रवाई नहीं करती है। बल्कि कहा जा सकता है कि अधिकतर मामलों में एकतरफा कार्रवाई करती है। ऊपर से मीडिया विपक्षी दल से जुड़े आरोपी नेताओं और कार्यकर्ताओं के आरोपों को निर्णायक तरीका से पेश करती हैं।

यह बात साफ-साफ समझ लेने की जरूरत है कि आम लोगों के जीवन में सहिष्णुता का मर्म लगातार छीज रहा है। बिल्कुल हाल के दिनों विपक्षी नेताओं की करतूतों के लिए जिस तरह से पूरे दल को, उस से भी अधिक उस के शीर्ष नेताओं को बेधड़क गुनहगार ठहराने की कोशिश की जा रही है, जिस तरह से राहुल गांधी और अन्य विपक्षी नेताओं के बयानों को तोड़-ममोड़कर नफरती माहौल बनाया जा रहा है, लगता है कहीं कोई गड़बड़ी पक रही है। पहले जिस तरह राहुल गांधी को घेरे में लेने की कोशिश हुई थी उसे किसी अन्य तौर-तरीका अपनाकर फिर दोहराया जा सकता है।

अरविंद केजरीवाल, हेमंत सोरेन जैसे नेताओं को जेल में रखने के राजनीतिक प्रयोग और पराक्रम के राजनीतिक प्रभाव और चुनावी परिणाम की परीक्षा का दौर पूरा हो चुका है। तो फिर आगे क्या है! प्रतीक्षित और अपेक्षित परिणाम के प्रकाशित होने तक बस धुआंता हुआ अनुमान! फिलहाल तो यह सोचना जरूरी है कि मुठभेड़ की राजनीति और लोकतंत्र के मनमानेपन से बने घटना चक्र में अंतर्निहित कर्तव्य-संकट से नागरिक समाज का उबार कैसे हो!

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