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कहीं हम स्टार्ट-अप अर्थव्यवस्था से ज्यादा उम्मीद तो नहीं लगा रहे हैं

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गुलाम अहमद

जिन प्रवृत्तियों ने इस संकट को जन्म दिया है, वे दरअसल स्टार्ट-अप पारिस्थितिक तंत्र की ही देन हैं। इसमें मूल्य बढ़ाने के लिए लाभप्रदता पर विचार किए बिना स्टार्ट-अप को आगे बढ़ाने की कोशिश की जाती है और जो इसमें सफल होते हैं, वे आमतौर पर निवेशकों का बहुत सारा पैसा खर्च करके ही ऐसा करते हैं। अत्यधिक जोखिम उठाना और नियम-कानूनों की सीमाओं का उल्लंघन करना इस प्रक्रिया की निहित प्रवृत्तियां हैं। कभी-कभी जब ये पूरी वित्तीय प्रणाली पर संभावित व्यवधान के साथ नियंत्रण से बाहर जाने का खतरा पैदा करते हैं, तो उदार नियामकों को भी कार्रवाई करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। दूसरे शब्दों में, किसी स्टार्ट-अप की सफलता भावी समस्याओं के लिए बीज बोती है।

बीते 31 जनवरी को स्टार्ट-अप दुनिया में भारत के सबसे मशहूर नामों में से एक पेटीएम पेमेंट बैंक के खिलाफ भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के आदेश के बाद पेटीएम संदेह के घेरे में आ गया है। इससे न केवल पहले से ही घाटे में चल रहे पेटीएम बैंक की मुश्किलें बढ़ गई हैं, बल्कि शेयर बाजार में भी इसके शेयरों में निरंतर उतार-चढ़ाव देखा जा रहा है।स्टार्ट-अप की दुनिया के कुछ बड़े नाम पेटीएम या बायजू जिन संकटों से जूझ रहे हैं, वे दरअसल स्टार्ट-अप की मौजूदा संस्कृति की ही देन हैं, जिसमें नियम-कानूनों की परवाह किए बगैर महज संभावनाओं के स्वप्न तले स्टार्ट-अप को आगे बढ़ाने की कोशिश की जाती है।

हालांकि पेटीएम बैंक के खिलाफ केंद्रीय बैंक की यह पहली कार्रवाई नहीं थी, बल्कि यह मार्च, 2022 से ही चल रहा था, जब पेटीएम बैंक को तत्काल प्रभाव से नए ग्राहकों को जोड़ने से रोकने के लिए कहा गया था और इसके खिलाफ एक व्यापक ऑडिट शुरू किया गया था। अक्तूबर, 2023 में आरबीआई ने ‘अपने ग्राहक को जानें’ (केवाईसी) मानदंडों का अनुपालन नहीं करने के कारण पेटीएम बैंक पर 5.39 करोड़ रुपये का आर्थिक जुर्माना भी लगाया था। नवीनतम कार्रवाई में अनिवार्य रूप से पेटीएम बैंक की बैंकिंग गतिविधियों को रोकने का निर्देश दिया गया है। हालांकि ऐसा लगता है कि पेटीएम यूपीआई ऐप जिसकी वजह से कंपनी ने पहली बार शोहरत हासिल की थी, फिलहाल चालू रहेगा।

पेटीएम की यह पूरी कहानी दरअसल स्टार्ट-अप की दुनिया की हकीकतों को सामने लाती है। स्टार्ट-अप की दुनिया में दरअसल वैश्विक अर्थव्यवस्था की दो अलग-अलग प्रवृत्तियां साथ दिखती हैं। इसमें एक ओर तो एक नए तरह के ‘निवेशकों’, वेंचर पूंजीपतियों या एंजेल इन्वेस्टर्स के एक वर्ग का उदय हुआ, जो उन लोगों की श्रेणी में थे, जो मूल रूप से उद्यमों के मुनाफे में हिस्सेदारी के बजाय उनमें अपने निवेश के मूल्य में वृद्धि से मुनाफा कमाते हैं। दूसरे शब्दों में, वे उस उद्यम के शेयर खरीदकर फंड उपलब्ध कराते हैं और इन शेयरों के मूल्य में वैसे ही वृद्धि से लाभ की उम्मीद करते हैं, जैसे शेयर बाजार के कारोबार में करते हैं। ये ‘मूल्य’ जो उद्यम की दीर्घकालिक कमाई की संभावनाओं पर आधारित होते हैं, प्रकृति में पूरी तरह से सट्टा जैसे होते हैं और वास्तव में अर्जित मुनाफे के बजाय व्यवसाय के विकास की संभावनाओं से जुड़े होते हैं। इन्हीं संभावनाओं के चलते इतने सारे स्टार्ट-अप को विकास के लिए फंडिंग मिलती रहती है, भले ही वर्षों तक वे मुनाफा न कमाएं। निवेशक भी अपने जोखिम को कम करने के लिए निवेश को कई उद्यमों के बीच वितरित करके उनमें विविधता लाते हैं।

दूसरी प्रवृत्ति डिजिटल प्रौद्योगिकी का उदय है, जो हमारे काम करने के तरीके को बदल रही है, जैसे ऑनलाइन शॉपिंग, दुकान पर जाकर खरीदारी करने की जगह ले रहा है, ऐप के माध्यम से कैब बुक हो रही है या भोजन मंगाया जा रहा है और इन सब के लिए डिजिटल साधनों से भुगतान भी किया जा रहा है। वास्तव में कोई भी नया उद्यम स्टार्ट-अप है, लेकिन आजकल जिसे स्टार्ट-अप कहा जाता है, वे डिजिटल प्रौद्योगिकी पर आधारित वैसे नए व्यवसाय हैं, जो सट्टे की तर्ज पर काम कर रहे निवेशकों द्वारा वित्त पोषित होते हैं।

पेटीएम बैंक भी पारंपरिक बैंकों के साथ निजी बैंकों के एक विशेष वर्ग को बढ़ावा देने की रिजर्व बैंक की एक खास पहल का नतीजा था, जिसका उद्देश्य वित्तीय समावेशन को प्रोत्साहित करना था। हालांकि इन बैंकों को छोटी जमा राशि स्वीकार करने और ग्राहकों को भुगतान व पैसे भेजने की सुविधा देने की अनुमति थी, लेकिन कर्ज देने की अनुमति नहीं थी। लेकिन यह पहल वास्तव में कभी सफल नहीं हो सकी। वर्ष 2015 में जिन 11 संस्थानों को सैद्धांतिक रूप से पेमेंट बैंक स्थापित करने की अनुमति दी गई, उनमें से मात्र छह ही चालू हैं। इसलिए पेमेंट बैंक की व्यवहार्यता हमेशा से ही एक मुद्दा रही है।

हालांकि पेटीएम पेमेंट बैंक प्रकरण की सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है, सिवाय इसके कि रिजर्व बैंक ने अपनी कार्रवाई के व्यापक कारणों को सार्वजनिक किया है, और वे अनिवार्य रूप से प्रणालीगत नियमों के उल्लंघन की ओर इशारा कर रहे हैं।

जिन प्रवृत्तियों ने इस संकट को जन्म दिया है, वे दरअसल स्टार्ट-अप पारिस्थितिक तंत्र की ही देन हैं। इसमें मूल्य बढ़ाने के लिए लाभप्रदता पर विचार किए बिना स्टार्ट-अप को आगे बढ़ाने की कोशिश की जाती है और जो इसमें सफल होते हैं, वे आमतौर पर निवेशकों का बहुत सारा पैसा खर्च करके ही ऐसा करते हैं। अत्यधिक जोखिम उठाना और नियम-कानूनों की सीमाओं का उल्लंघन करना इस प्रक्रिया की निहित प्रवृत्तियां हैं। कभी-कभी जब ये पूरी वित्तीय प्रणाली पर संभावित व्यवधान के साथ नियंत्रण से बाहर जाने का खतरा पैदा करते हैं, तो उदार नियामकों को भी कार्रवाई करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। दूसरे शब्दों में, किसी स्टार्ट-अप की सफलता भावी समस्याओं के लिए बीज बोती है।

  जब स्टार्ट-अप की दुनिया के कुछ बड़े नामों, जैसे पेटीएम या बायजू को इस संकट का सामना करना पड़ता है, तो स्टार्ट-अप्स के भविष्य पर सवाल उठते हैं, लेकिन उनके बारे में यह कोई हैरानी की बात नहीं है। यह कई देशों में और अलग-अलग रूपों में दोहराया जाने वाला एक खास पैटर्न है और यह उस प्रवृत्ति से जुड़ा है, जिसे वित्तीयकरण (स्टार्ट-अप को पैसा मुहैया कराने का तरीका) कहा जाता है। वास्तविक उत्पादन की तुलना में वित्तीय गतिविधियों में असंगत वृद्धि और उनके माध्यम से लाभ कमाना ही असल वित्तीयकरण है, जिसमें वास्तव में किसी उद्यम का मूल्य बनता है।

वर्ष 2008 का वैश्विक वित्तीय संकट भी एक ऐसा ही संकट था, जिसकी उत्पत्ति उन्हीं प्रवृत्तियों से हुई थी, जिन्हें वित्तीय क्षेत्र को नियंत्रित करने वाले नियमों में ढील दिए जाने से बढ़ावा मिला था। पहली नजर में लगता है कि स्टार्ट-अप पारिस्थितिकी तंत्र उद्यमिता और नवाचार के फलने-फूलने की गुंजाइश बनाता है, जिससे वित्तीय संसाधनों पर पारंपरिक नियंत्रण के बिना नए खिलाड़ियों को मैदान में प्रवेश करने की अनुमति मिलती है। जबकि इसके पीछे बड़े वित्तीय संसाधनों पर नियंत्रण रखने वाले लोग होते हैं और पारिस्थितिकी तंत्र का चरित्र मुख्य रूप से उनके हितों से आकार लेता है।

इसलिए पेटीएम संकट के मद्देनजर हमें जरा रुककर विचार करना चाहिए कि कहीं हम स्टार्ट-अप अर्थव्यवस्था से ज्यादा उम्मीद तो नहीं लगा रहे हैं! रिजर्व बैंक को भी पेटीएम प्रकरण के संबंध में कई जवाब देने होंगे, उसके पिछले फैसले शायद इसके लिए मंच तैयार कर रहे हों।
(-लेखक सेंटर फॉर इकनॉमिक स्टडीज ऐंड प्लांनिंग, जेएनयू में प्रोफेसर हैं) 

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