अग्नि आलोक
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कला क्रांति है !

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–मंजुल भारद्वाज 

कला क्रांति है. कला चेतना है. कला चैतन्य प्रक्रिया है. मनुष्य को मनुष्य बनाने और मनुष्य में इंसानी बोध जगाये रखने की प्रक्रिया है कला. सब घालमेल तब होता है जब हम कला को एक वस्तु,एक प्रोडक्ट समझने लगते हैं. 

दुनिया में दो वाद हैं एक वो जो कला को सिर्फ़ भोग मानता है. उसका जीवन उद्देश्य ही भोग है.अब जिसका उद्देश्य ही भोग हो वो कला में भोग ढूंढ़ता है. 

कला में समर्पण अनिवार्य और अपरिहार्य तत्व है. समर्पण जब सत्ता की तरफ़ हो (यहाँ सत्ता का अर्थ है समाजिक सत्ता,आर्थिक सत्ता,राजनैतिक सत्ता,सांस्कृतिक सत्ता) तब आप सिर्फ़ भोगवादी कला के निर्वाहक हैं. आप को उसी तरह ढाला जाता है, सत्ता के तन्त्र उसी तरह की व्यवस्था का निर्माण करते हैं. सोचने का काम सत्ता करती है और उसके कर्म को हुनरमंद जिस्म करते हैं. 

इसलिए सत्ता दरबारी यानी प्रायोजित हुनरमंद जिस्मों की फ़ौज तैयार करती है. उसके लिए स्कूल बनाती है. उनको हर तरह के सम्मान और सुविधा से नवाजती है.वो एक तरह से सत्ता रत्न होते हैं. 

दूसरी ओर कला जो विद्रोह है व्यवस्था की जकड़न से,सत्ता से,मनुष्यता के क्षय से. वो कला मनुष्य में ‘विवेक’ जगाती है.जीवन से हारे मनुष्य में उम्मीद जगाती है.व्यवस्था के मवाद को खत्म करती है.

एक मनुष्यता की संस्कृति का निर्माण करती है.इस संस्कृति का निर्माण राजनैतिक सत्ता नहीं करती.संस्कृति का निर्माण कला करती है.कला सांस्कृतिक चेतना जगाती है.सांस्कृतिक चेतना संस्कृति का आधार है.

कला सांस्कृतिक क्रांति है.यह राजनैतिक सत्ता की तरह लाई नहीं जाती. यह खुद क्रांति है. कला की इस ताक़त को हर विचार धारा वाली  राजनैतिक सत्ता जानती है. उस ताक़त के जादुई प्रभाव का उपयोग करती है. परन्तु कला के ‘दृष्टि’ बोध पर प्रहार करती है. 

इसलिए ‘दृष्टि’ शून्य हुनरमंद जिस्मों को कलाकार के रूप में स्थापित करती है. बिना ‘दृष्टि’ बोध के कला वैसी ही है जैसे बिना मस्तिष्क के मनुष्य का शरीर. 

इसका विकराल रूप आज भूमंडलीकरण के विध्वंसक दौर में दिख रहा है. बिना सर के मनुष्य धड सब जगह भीड़ में घूम रहे हैं. वो सीधा संस्कृति के नाम संस्कृति पर हमला कर रहे हैं. पशु के लिए मनुष्य को मार रहे हैं क्योंकि राजनैतिक सत्ता चाहती है. मनुष्यता को पशु के लिए मारना आज नहीं हुआ है यह विगत सभी राजनैतिक सत्ताधीशों ने किया है. 

भूमंडलीकरण का आधार ही वर्चस्वाद है. खरीदो और बेचो से मनुष्यता का ह्रास है. इसलिए आज पूरी दुनिया में ‘सभ्यताओं’ की जंग चल रही है. भोगवादी सत्ता इतनी विकराल और विध्वंसक हो चूकी है की पूरी पृथ्वी धू धू कर जल रही है. 

इसकी वजह है कला के भोगवादी रूप का बोलबाला. क्योंकि चेतना शून्य मनुष्य सिर्फ़ विध्वंस करता है. चेतना का जागना ही कला है… और यही क्रांति है… 

अफ़सोस यह है की राजनैतिक सत्ता के परिवर्तन को ही हम क्रांति मानते हैं जो मनुष्य के रक्तपात से सनी होती है !

और चेतना को जागने के कर्म को … बस जारुकता …

जबकि चेतना अपने आप एक संस्कृति का निर्माण करती है … तमाम सत्ताओं के दमन के बावजूद कला चेतना जगाती है …यही उसका क्रांति रूप है …

राजनैतिक सत्ता समय समय पर सभ्यताओं को नष्ट करती है पर कला सांस्कृतिक चेतना को जगा सभ्यताओं का निर्माण करती रही है. कला को समझना है तो मानव की उत्क्रांति को समझना अनिवार्य है. 

कला को आप 5-10 साल के अंतराल पर होने वाली राजनैतिक तख्ता पलटने की क्रांतियों से नहीं समझ सकते. आप एक मुद्दे पर आन्दोलन करो तुरंत किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री बन जाओ या 70 साल में कुछ नहीं हुआ का जुमला चलाकर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमन्त्री बन जाने के सत्ता परिवर्तन से कला का मुल्यांकन नहीं कर सकते. 

कला मनुष्यता की शाश्वत प्रक्रिया है जो व्यवस्था के ठोस रूप में नहीं होती अपितु कल्पना के सूक्ष्म रूप में बसती है. इसलिए कला के प्रदर्शनकारी स्थलों को कला समझना भूल है. कला के प्रदर्शनकारी स्थल कला नहीं है कला वो सूक्ष्म प्रक्रिया है जो मनुष्य में चैतन्य प्रकिया का विकिरण करती है. यह विकिरण ही क्रांति है!

चुनौती है …

-मंजुल भारद्वाज

इस वक्त हर चैतन्यशील

परिवर्तन के लिए खप रहा है

संकल्प को सिद्ध करने की 

जद्दोजहद में पल पल 

बदलाव की इबारत लिख रहा है !

सबसे बड़ी चुनौती 

गोबर खाने का गुणगान 

मूत्र का सेवन 

पशु के लिए मनुष्य का 

कत्तल करने वालों में 

इंसानी अहसास को जगाने की है !

चुनौती 

सिर्फ़ किसी पार्टी से 

चुनाव जीतने भर की नहीं है 

अपितु 

भारत सरकार से 

जनता की जीत की है !

चुनौती 

अलग अलग अपने अपने 

सिद्धांतों, मान्यताओं से प्रतिबद्ध 

इन सूरमाओं को 

एक साथ जोड़ने की है !

चुनौती है 

भीतरघात करने वालों को 

सही समय पहचान कर 

बाहर करने की 

चुनौती है 

बूंद के 

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