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*कृत्रिम मेधा- मिथ्या प्रचार :  गुम होतीं नौकरियाँ और किलर कम्प्यूटर

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पुष्पा गुप्ता

     ज्यॉफ्री हिंटन ने एडिनबर्ग विश्वविद्यालय से पढ़ाई की. 1972 में एडिनबर्ग में ही उन्होंने “न्यूरल नेटवर्क” की परिकल्पना की थी – गणित पर आधारित एक ऐसा तंत्र जो सूचनाओं को विश्लेषित कर स्वयं सीख सके! इन दिनों किसी ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया. 

_आगे बढ़ने के पहले न्यूरल नेटवर्क से एक संक्षिप्त परिचय :_

       कंप्यूटर किसी काम को कैसे करे इसकी विधि को अल्गोरिद्म कहते हैं – काम करने का तरीका. न्यूरल नेटवर्क से तात्पर्य है अनेक ऐसे अल्गोरिद्म की श्रृंखला जो मानव मस्तिष्क की तरह अनेक सूचनाओं, आँकड़ों के बीच सम्बन्ध खोजे, देखे और समझे. हमारे मस्तिष्क में (हमारे पूरे सेंट्रल नर्वस सिस्टम में) बस दो किस्म की विशेष कोशिकाएं रहती हैं – न्यूरॉन और ग्लाया.

      न्यूरॉन दूसरे न्यूरॉन से सूचनाएं ग्रहण करते हैं, उन सूचनाओं का विश्लेषण करते हैं और फिर अपने निष्कर्ष नयी सूचनाओं के रूप में दूसरे न्यूरॉन्स को देते हैं. न्यूरॉन एक दूसरे से साइनैप्स के द्वारा संपर्क में रहते हैं. न्यूरॉन और साइनैप्स के इस जाल से ही कंप्यूटर टेक्नोलॉजी का न्यूरल नेटवर्क आया है.

    विचार था कि कंप्यूटर इसी ढर्रे पर काम करे और इसके लिए जो तंत्र विकसित किया गया उसे न्यूरल नेटवर्क या कभी कभी बस न्यूरल नेट्स कहा गया.

पचहत्तर वर्षीय ज्यॉफ्री हिंटन को कृत्रिम प्रज्ञा का जनक (फादर ऑफ़ अर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) कहा जाता है. वे टोरंटो विश्वविद्यालय में प्राध्यापक थे, जब 2012 में उन्होंने अपने दो विद्यार्थियों के साथ एक न्यूरल नेटवर्क विकसित किया जो हजारो चित्रों के विश्लेषण कर सकता था और उन्हें ‘देख’ कर खुद को सामान्य वस्तुओं को पहचान पाना सिखा देता था.

      गूगल ने इस नए तंत्र (सिस्टम) को 4.4 करोड़ डॉलर में खरीदा और उसके बाद हिंटन गूगल के लिए कृत्रिम प्रज्ञा पर काम करने लगे. और, हिंटन के एक विद्यार्थी ने, जो न्यूरल नेटवर्क पर शोध में उनके साथ थे, सान फ्रांसिस्को की कंपनी ओपन एआई के साथ काम करना शुरू किया.

       जब मार्च 2023 में ओपन एआई ने अपना चैटजीपीटी लाया तो शायद पहली बार कृत्रिम प्रज्ञा पर हो रहे शोध पर इस क्षेत्र के वैज्ञानिकों और उद्यमियों ने चिंता व्यक्त की. कोई एक हजार लोगों ने एक खुले पत्र पर अपने दस्तखत किये.

       वे कह रहे थे कि चैटजीपीटी से अधिक शक्तिशाली कृत्रिम प्रज्ञा उत्पाद पर अभी छह महीने तक कुछ काम नहीं हो और इस बीच सभी लोग इस पर सोच कर एक रास्ता खोजें. एलन मस्क ने भी इस पर दस्तखत किया था. उसके कुछ दिनों के बाद एक चालीस साल पुरानी अकादमिक संस्था, एडवांसमेन्ट ऑफ़ अर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के वर्तमान और पूर्व कार्यकारी अधिकारियों ने कृत्रिम प्रज्ञा पर अपनी एक चेतावनी निर्गत की. 

हिंटन, इन दोनों पत्रों में किसी से साथ, नहीं जुड़े थे. पिछले हफ्ते अपने सीईओ सुन्दर पिचई से उन्होंने बात की और इस हफ्ते गूगल छोड़ दिया. उनका कहना था जब तक वे गूगल की कृत्रिम प्रज्ञा परियोजनाओं पर काम कर रहे थे तब तक कृत्रिम प्रज्ञा को खतरनाक बताना उनके लिए दोमुँहा बनने के समान था.

    अब गूगल छोड़ने के बाद कृत्रिम प्रज्ञा का जनक उसके खतरों के प्रति हम सबों को सचेत कर रहा है.

       पिछले दस वर्षों से हिंटन कृत्रिम प्रज्ञा के विकास में लगे थे. उनका विश्वास था जब ये मशीन खुद सीखने लगेंगी तो बहुत काम बहुत आसान हो जाएंगे. उन्हें इसका भय एकदम नहीं था कि मशीनें मेधा में मनुष्य की बराबरी करने लगेंगी.

    दो वर्ष पहले तक वे सोचते थे कि कम से कम तीस से पचास वर्ष लगेंगे मशीनों को मानव-मस्तिष्क के निकट आने में. अब वे वैसा नहीं सोचते. पिछले वर्ष तक उनका विश्वास था कि गूगल जैसी विश्वसनीय कंपनी इस क्षेत्र में एक सच्चे प्रबंधक का काम करते हुए इस उद्योग में हो रहे शोध को सही दिशा में रखेगी. 

अब नहीं. जब ओपन एआई ने अपना चैटजीपीटी ला दिया और माइक्रोसॉफ्ट ने अपने सर्च इंजन बिंग के साथ अपना कृत्रिम मेधा से सशक्त किया हुआ चैटबॉट जोड़ कर गूगल के सबसे महत्वपूर्ण धंधे, उसके सर्च इंजन पर ग्रहण लगा दिया तब गूगल ने भी, अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए, कृत्रिम मेधा के क्षेत्र में अग्रणी बन सकने पर अपनी पूरी शक्ति लगा दी है.

       माइक्रोसॉफ्ट और गूगल, इन महारथियों के बीच होती लड़ाई में कोई आश्चर्य नहीं कि मानवता झुलस जाए.

       उनकी पहली चिंता है कि इंटरनेट झूठे छाया चित्रों, वीडियो और लेखों से भर जाएगा. एक औसत व्यक्ति कभी नहीं जान पाएगा कि क्या सच है क्या झूठ. उनकी यह भी चिंता है कि कृत्रिम मेधा के चलते भारी संख्या में लोग अपनी नौकरियों से हाथ धो बैठेंगे.

 अभी चैटजीपीटी जैसे चैटबॉट मनुष्यो की मदद करते हैं, उनके साथ काम करते हैं; जल्द वे मनुष्यों को हटा कर उनके बदले काम करने लगेंगे. वकीलों के मुंशी, वैयक्तिक सहायक, अनुवादक या कोई भी काम जिसे आज हम नीरस कहते हैं, जिन्हे करने वालों को कोल्हू का बैल बताते हैं वे सभी काम बस एक-दो वर्षों में मशीनें करने लगेंगी. 

     अब कम्पनियाँ (या अन्य शोधकर्ता) अपने कृत्रिम मेधा तंत्र को स्वयं कंप्यूटर कोड लिखने दे रहे हैं. जल्द वे स्वयं उन कोड को कार्यान्वयित भी करने लगेंगे. और हिंटन को डर है एक दिन वे आटोमेटिक हथियार – वे हत्यारे मशीन वास्तविक हो जाएंगे. हम उन्हें इंटरनेट पर लिखा सब कुछ सिखा रहे हैं. और उन असंख्य सूचनाओं से वे कुछ अप्रत्याशित भी सीखेंगे. 

       बहुत लोग, जिनमे हिंटन के विद्यार्थी भी शुमार हैं, सोचते हैं यहकै डर काल्पनिक है नहीं तो कुछ अतिरंजित. हिंटन सोचते हैं गूगल और माइक्रोसॉफ्ट की प्रतिस्पर्द्धा में कुछ भी हो सकता है.

      इसे कोई वैश्विक नियामक भी शायद ही रोक सके. परमाणु और नाभिकीय अस्त्रों के विकास को उपग्रहों में लगे कैमरों से देखा जा सकता है. सामान्य दीखते ऑफिसों के अंदर सामान्य कपड़े पहने सॉफ्टवेर इंजीनियर चुप चाप क्या कर रहे हैं इसे कोई उपग्रह नहीं देख सकता.

   (दो मई के न्यूयॉर्क टाइम्स में छपे  लेख पर आधारित)

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