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प्राणतत्त्व के विकास के लिए अश्विनी-मुद्रा

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डॉ. विकास मानव

     अश्विनी-मुद्रा में हम अपने गुदा-द्वार को भीतर खींचते हैं और फिर छोड़ देते हैं, भीतर खींचते हैं और छोड़ देते हैं। जैसे हम मल को रोकने के लिए गुदा-द्वार को भीतर खींचते हैं वैसे ही इस मुद्रा में भी गुदा-द्वार को भीतर खींचते हैं और छोड़ देते हैं।

     जिस भांति अश्व यानि घोड़ा लीद करने के बाद अपने गुदा-द्वार को बाहर-भीतर करता है, ठीक उसी भांति करना होता है। इसीलिए इस मुद्रा का नाम अश्विनी-मुद्रा पड़ा है।

       इस मुद्रा के साथ हम योग की दो प्रक्रियाओं कुंभक तथा रेचक का प्रयोग करते हैं। कुंभक में हम भीतर श्वास लेते हैं, पूरे पेट तक, नाभि तक श्वास लेते हैं और फिर श्वास को भीतर ही रोक लेते हैं। जितनी देर तक हमारा शरीर रोक सके उतनी देर तक रोकते हैं।

      फिर रेचक में हम पेट को भीतर सीकोड़ लेते हैं और अपनी सारी श्वास को बाहर निकाल देते हैं। और श्वास को फिर बाहर ही रोक देते हैं जितनी देर हमारा शरीर रोक सके। 

इस मुद्रा में हमें कुंभक से शुरू करना होता है। श्वास को भीतर रोकने से शुरू करना होता है। हम अपनी सारी श्वास को भीतर लेते हैं और भीतर रोक कर हम अश्विनी-मुद्रा करते हैं। गुदा-द्वार को भीतर खींच लेते हैं, फिर छोड़ देते हैं, भीतर खींच लेते हैं फिर छोड़ देते हैं। और तब तक करते हैं, जब तक हमारा शरीर श्वास को भीतर रोके रखता है।

       फिर हम रेचक करते हैं। रेचक में हम पेट को भीतर सीकोड़ लेते हैं और अपनी सारी श्वास को बाहर निकाल देते हैं। और अब श्वास को बाहर ही रोक लेते हैं। अब हम अपने गुदा-द्वार को बारी-बारी से भीतर खींचते है और छोड़ देते हैं। भीतर खींचते हैं और छोड़ देते हैं। 

पहले श्वास भीतर रोककर गुदा-द्वार को भीतर खींचना और छोड़ना होता है फिर श्वास को बाहर रोककर गुदा-द्वार को भीतर खींचना है और छोड़ देना होता है। 

क्या होगा गुदाद्वार को बारी-बारी से भीतर खींचने और छोड़ने से? 

    हमारा गुदा-द्वार पूरी तरह से बंद नहीं होता है। जब हम गुदाद्वार को भीतर सीकोड़ते हैं तब वह पूरी तरह से बंद होता है। हमारी ऊर्जा मूत्र-द्वार से तो बाहर जा ही रही है, गुदा-द्वार से भी बाहर जा रही है! उर्जा के उपर नहीं उठने में गुदा-द्वार का पूरा बंद नहीं होना भी एक कारण है। यदि गुदा-द्वार खुला होगा तो उर्जा को उपर उठने के लिए नीचे ठोस जगह नहीं मिलेगी और वह नीचे गुदा-द्वार में दबाव बनाकर बाहर निकलने लगेगी और उर्जा उपर की अपेक्षा नीचे के छेद से बाहर जाने लगेगी। अतः अश्विनी-मुद्रा नीचे के छेद को बंद करने की तैयारी है।

हमारा गुदा-द्वार बहुत बीमार है। अनियमित भोजन से उसकी मांसपेशियों में अनावश्यक तत्व भर गये हैं, मांसपेशियां कठोर हो गई हैं जिससे गुदा-द्वार पूरी तरह से बंद नहीं हो पाता है। अतः हमारी उर्जा उस मार्ग से बाहर चली जाती है।

      अश्विनी-मुद्रा से हमारे गुदा-द्वार की मांसपेशियों से अनावश्यक तत्व बाहर निकल जाएंगे। अश्विनी-मुद्रा गुदा-द्वार की वर्जीश है, कसरत है, जिससे  गुदाद्वार की मांसपेशियां नरम और लोचपूर्ण हो जाएंगी।

      मांसपेशियां नरम और लोचपूर्ण हो जाएंगी तो गुदाद्वार स्वतः ही पूरी तरह से बंद हो जाएगा और गुदा-द्वार यदि पूरा बंद हो जाए तो मूलबंध लगना शुरू हो जाता है। यानि हम कह सकते हैं कि अश्विनी मुद्रा मूलबंध की सीढ़ी है। 

क्या होगा कुंभक और रेचक करने से? 

     अश्विनी-मुद्रा में हम शुरूआत कुंभक से करते हैं, श्वास को भीतर रोकने से करते हैं। कुंभक पहले करते हैं और रेचक बाद में करते हैं। कुंभक में जब हम श्वास को भीतर रोक लेते हैं… सामान्यतः हमारी श्वास जब भीतर जाती है तो भीतर गई नहीं कि वापिस बाहर लौट आती है, भीतर ठहरती नहीं है, इसलिए श्वास के साथ आए सारे प्राणों को शरीर पी नहीं पाता है। दूसरे श्वास छाती से ही लौट जाती है, नाभि तक पहुंच नहीं पाती है जिससे कुंडलिनी उर्जा को प्राण तत्व नहीं मिल पाते हैं और वह सक्रिय नहीं हो पाती है। क्योंकि प्राण तत्व कुंडलिनी उर्जा का भोजन है, ईंधन है। 

      कुंभक में जब हम श्वास को भीतर रोकते हैं। और नाभि तक श्वास को भर लेते हैं तो श्वास के साथ आए प्राण तत्व मूलाधार पर सोयी कुंडलिनी ऊर्जा को मिलने लगती है और वह सक्रिय होने लगती है।

 जब हम रेचक करते हैं, श्वास को बाहर निकाल कर बाहर ही रोक देते हैं तो पेट के भीतर सीकुड़ने से नाभि के पास कुंभक द्वारा सक्रिय हुई कुंडलिनी उर्जा को उपर उठने में मदद मिलती है, क्योंकि नाभि के सिकुड़ने से पेट में शून्य बनता है और शून्य उर्जा को अपनी ओर खींचता है।

      यानि कुंभक में हम श्वास को भीतर रोककर कुंडलिनी 

उर्जा तक प्राण तत्व भेजकर उसे सक्रिय करते हैं और रेचक में हम श्वास को बाहर रोकते हैं ताकि पेट में बना शून्य उसे अपनी ओर खींचे और कुंडलिनी उर्जा उपर चक्रों को सक्रिय करती हुई सहस्त्रार की ओर बहने लगे। 

*प्रयोग में कैसे उतरते हैं :*

      अश्विनी-मुद्रा हम सुखासन या किसी आरामदायक कुर्सी पर बैठकर भी कर सकते हैं। यानि हमारा शरीर आरामदायक स्थिति में हो। यदि हम किसी ऐसे आसन में बैठते हैं पद्मासन या किसी ऐसे आसन में जिसमें ज्यादा समय तक बैठना मुश्किल हो। पैरों में अकड़न हो, या दर्द हो तो हमारी उर्जा बंट जाएगी और हमारे मुद्रा प्रवेश में बाधा आएगी। 

      सुखासन में बैठना बेहतर होता है। इसमें हमारी रीढ़ सीधी होना बहुत जरूरी है। रीढ़ का सीधा होना इस मुद्रा में महत्वपूर्ण बात है। रीढ़ के सीधी होने पर हमारा शरीर जमीन के गुरुत्वाकर्षण के बाहर रहता है।

      रीढ़ सीधी होगी तो हमारा शरीर शिथिल होगा और यदि शरीर शिथिल होगा तो हम आसानी से ज्यादा श्वास को ज्यादा समय तक बाहर-भीतर रोक सकेंगे। और सबसे खास बात यह है कि रीढ़ यदि सीधी होगी तो उर्जा को चक्रों पर गति करने में आसानी होगी। यदि रीढ़ सीधी नहीं होगी तो शरीर में तनाव होगा और मुद्रा में प्रवेश करना बहुत मुश्किल होगा। 

अश्विनी-मुद्रा को सामान्यतः जितने समय तक हम कर सकें उतने समय तक ही करना होता है। इसके तीन चरण हैं।

    *पहला चरण -*

पहला चरण सक्रिय प्रयास का है। पहले पांच से दस मिनट तक हमें हमें सक्रिय प्रयास करना होता है। सक्रिय प्रयास में चलना, दौड़ना, व्यायाम, खेलना या नाचना, कुछ भी कर सकते हैं। जिसमें शरीर से पसीना निकल आए ताकि मुद्रा प्रयोग के समय बाधा देने वाले तत्व पसीने के द्वारा शरीर से बाहर निकल जाए और हमारे शरीर में दबी हुई उर्जा सतह पर आ जाए जिससे उर्जा को उपर उठने के लिए लिए रास्ता मिल जाए।

*दूसरा चरण -*

    दूसरे चरण में दस मिनट हमें अश्विनी-मुद्रा में प्रवेश करना होता है, दस मिनट से ज्यादा समय तक भी कर सकते हैं, लेकिन शरीर के साथ जबरदस्ती नहीं करना है। पहले कुंभक करते हुए श्वास भीतर नाभि तक लेकर रोकना है और गुदा-द्वार को बारी-बारी से भीतर खींचना और छोड़ना है। फिर रेचक करते हुए पेट को भीतर खींचते हुए सारी श्वास को निकाल कर बाहर रोक देना है और गुदा-द्वार को बारी-बारी से भीतर खींचना और छोड़ना है। 

*तीसरा चरण -*

    तीसरा चरण दस मिनट का है। तीसरे चरण में अश्विनी मुद्रा करने के बाद हमें शरीर को ढीला छोड़कर विश्राम में लेटना होता है। हमने अश्विनी-मुद्रा के साथ कुंभक और रेचक करके उर्जा को उपर तो उठा लिया है, लेकिन सारी ऊर्जा अभी उपर नहीं गयी है, कुछ उर्जा नाभि से उपर स्वाधिष्ठान चक्र पर ही अटक जाती है, इसका कारण यह है कि हम सतत रीढ़ को सीधा नहीं रख पाते हैं। उस ऊर्जा को हम उपर सहस्त्रार तक पहुंचाते हैं तो ही उर्जा जागरण के लिए रास्ता बनेगा। नहीं तो उर्जा वहीं अटकी रहेगी और दर्द पैदा करेगी, अकड़न पैदा करेगी। 

शरीर को शिथिल छोड़ देना होता है। श्वास को धीमी और गहरी कर नाभि तक चलने देना होता है। और अपना सारा ध्यान सहस्त्रार चक्र पर लगा देना होता है। सिर में लगा देना होता है। हमारा ध्यान जहां पर होगा, हमारी उर्जा उसी दिशा में गति करेगी। शरीर शिथिल होगा और हमारा ध्यान सिर में सहस्त्रार चक्र पर होगा तो थोड़ी ही देर में हमें ऊर्जा रीढ़ से उपर गति करती हुई महसूस होगी। 

      अश्विनी-मुद्रा करने के बाद यदि हम सहस्त्रार चक्र पर ध्यान केंद्रित करते हैं तो नाभि पर उठी हुई उर्जा सहस्त्रार की ओर गति करने लगती है और कुंडलिनी उर्जा जागरण के लिए रास्ता बनना आसान होता जाता है।

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