(नजरिया : बृंदा करात, अंग्रेजी से अनुवाद : संजय पराते)*
असम के मुख्यमंत्री अपनी शालीन भाषा के लिए नहीं जाने जाते हैं, लेकिन इस बार उन्होंने खुद को मात दे दी है। गुजरात के सूरत में भाजपा के लिए प्रचार करते हुए उन्होंने कहा, “मोदी को वोट दो – देश में एक मजबूत नेता के बिना, आफताब जैसे हत्यारे हर शहर में उभरेंगे और हम अपने समाज की रक्षा नहीं कर पाएंगे।” श्रीमान सरमा एक ऐसे राज्य असम के मुख्यमंत्री हैं, जहां महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा सबसे ज्यादा होती है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा के मामले में यह राज्य देश के पांच सबसे खराब राज्यों में से एक है। यह उन राज्यों में से है, जहां इस तरह की हिंसा की रिपोर्टिंग बहुत कम होती है। यह उन राज्यों में से है, जहां घरेलू हिंसा का औचित्य भी सबसे अधिक प्रतिपादित किया जाता है। क्या उन्होंने कभी इस मुद्दे को सार्वजनिक बयानों के जरिए या सरकार की नीति के माध्यम से संबोधित किया है? एनएफएचएस-5 ने अपनी 2021 की रिपोर्ट में चौंकाने वाला आंकड़ा बताया है कि भारत में एक तिहाई महिलाएं घरेलू हिंसा और/या यौन हिंसा का अनुभव करती हैं। इससे भी ज्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि 77 फीसदी ने इस मुद्दे की रिपोर्ट नहीं की।
भारत का एक संविधान है, जो पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता की गारंटी देता है। फिर भी, इसे अपनाने के 73 साल बाद, महिलाओं के खिलाफ पुरुषों द्वारा की जाने वाली घरेलू हिंसा के मामलों में यह गारंटी छीज जाती है और घरेलू हिंसा की रिपोर्ट न होने वाले मामलों का प्रतिशत काफी ऊंचा है। क्या अपनी पत्नियों को पीटने वाले ये सारे मर्द आफताब हैं? क्या ये सभी शादियां “लव जिहाद” हैं? महिलाएं अपने ही घर में असुरक्षित क्यों हैं? मुख्यमंत्री जिस कद्दावर नेता की पैरवी कर रहे हैं, वह कहां हैं? सरमा जैसे नेताओं का इस देश में होना शर्म की बात है, जो इस तरह के अपराधों के मूल कारणों को संबोधित करने के बजाय अपने जहरीले इस्लामोफोबिया को कम करने के लिए सबसे भयानक अपराध का उपयोग करते हैं। स्पष्ट रूप से, उनकी चिंता का विषय महिलाओं के खिलाफ हिंसा नहीं है और न ही उनको तथ्यों की कोई परवाह है। श्रद्धा हत्याकांड और उसके बाद की घटनाएं भारत की राजधानी में हुईं, जहां की पुलिस सीधे मोदी की “मजबूत” सरकार के अधीन है। दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में भारी वृद्धि हुई है, जिससे यह देश का सबसे असुरक्षित शहर बन गया है। यह शक्तिशाली व्यक्ति कहाँ है? वह और उसका साया बलात्कार और हत्या के जघन्य अपराधों के दोषी अपराधियों को ठीक इसलिए रिहा करने में व्यस्त थे, क्योंकि अपराधियों के नाम आफताब नहीं थे।
महिलाओं के खिलाफ अपराध करने वाला उत्पीड़क एक अपराधी है और उसे दंड मिलना ही चाहिए, चाहे उसका नाम आफताब हो या बिल्किस बानो प्रकरण के हत्यारे और बलात्कारी जसवंत नाई, गोविंद नाई, शैलेश भट्ट, राधेश्याम शाह, बिपिन चंद्र जोशी, केसरभाई वोहानिया, प्रदीप मोरधिया, बकाभाई वोहानिया, राजूभाई सोनी, मितेश भट्ट और रमेश चंदना हो ; या फिर वे हाथरस में युवा दलित महिला के बलात्कारी और हत्यारे संदीप, रामू, लवकुश और रवि ही क्यों न हो। लेकिन किसी अपराध को सांप्रदायिक बनाना भारत के कानूनी ढांचे पर हमला है।
महिलाओं के प्रति इतनी असंवेदनशीलता केवल असम के मुख्यमंत्री में ही नहीं दिखती हैं। मोदी सरकार में आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के राज्य मंत्री कौशल किशोर के बारे में रिपोर्ट है कि उन्होंने यह कहा है : “शिक्षित लड़कियों को ऐसे रिश्तों में नही आना चाहिए। उन्हें ऐसी घटनाओं से सीखना चाहिए। उन्हें अपने माता-पिता की सहमति से ही किसी के साथ रहना चाहिए और ऐसे संबंधों को पंजीकृत कराना चाहिए।” कई लोगों ने लड़की को ही अपनी हत्या के लिए दोषी ठहराने वाले उनके बयान की उचित ही आलोचना की है।
कौशल किशोर की दृष्टि से – (1) अपने माता-पिता की अवहेलना कर अपना साथी चुनने का उसका फैसला गलत था। (2) यदि उसने लिव-इन रिलेशनशिप में रहने के बजाय अपने रिश्ते को पंजीकृत कराया होता और शादी की होती, तो ऐसा नहीं होता। (3) उसे लिव-इन रिलेशनशिप के रिश्ते के खतरे का पता होना चाहिए था, क्योंकि वह शिक्षित थी। किशोर कौशल के विचारों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए, क्योंकि सरकार या उनकी पार्टी के पदाधिकारियों में से किसी एक व्यक्ति द्वारा भी इसका खंडन–मंडन नहीं किया गया है।
हम मान लेते हैं कि मंत्री शिक्षित है और इसलिए उन्हें इन तथ्यों का बेहतर पता होना चाहिए। एनसीआरबी की नवीनतम रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले वर्ष (2021 में) दहेज से संबंधित मौतों में 6,589 महिलाएं मारी गईं हैं। ये सभी विवाह “माता-पिता द्वारा अनुमोदित” थे। एनएफएचएस के आंकड़े भी मुख्य रूप से इसी श्रेणी के परिवारों के हैं। क्या विवाह के लिए माता-पिता की स्वीकृति ने इन युवतियों की हत्या को या एक तिहाई महिलायें जिस घरेलू हिंसा का सामना कर रही हैं, उसको रोका है? इसके अलावा, मंत्री को कानून के बारे में स्वयं को शिक्षित करना चाहिए कि लिव-इन पार्टनरशिप को घरेलू हिंसा की शिकायतों के मामलों में कानून द्वारा मान्यता प्राप्त है। हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने सभी महिलाओं के लिए प्रजनन की स्वतंत्रता को बरकरार रखा है, चाहे वे विवाहित हों या अविवाहित।
मंत्री के तर्क आपत्तिजनक हैं, न केवल इसलिए कि वे पीड़िता को ही दोष देते हैं, बल्कि इसलिए भी कि वे “स्वीकृत” विवाहों के मामलों में महिलाओं द्वारा जिस घरेलू हिंसा का सामना किया जा रहा है, उसको छुपाते और अनदेखा भी करते हैं और यदि एक महिला पितृसत्तात्मक लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन करती है, जैसे कि श्रद्धा ने किया, उसके खिलाफ हिंसा का औचित्य भी प्रतिपादित करते हैं। ऐसा रवैया सामाजिक कलंक के डर को जन्म देता है, जो लड़कियों को उनके खिलाफ हिंसा की रिपोर्ट करने से रोकता है और यह रवैया ऐसे हिंसक रिश्ते को तोड़ने में एक अतिरिक्त बाधा है।
आफताब पूनावाला द्वारा श्रद्धा वाकर की जघन्य हत्या और उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े करने में शामिल क्रूरता और अमानवीयता ने एक आदतन उत्पीड़नकर्ता के साथ लिव–इन के रिश्ते में फंसी एक युवती की असहायता को दिखाया है। उसके शुभचिंतकों और काम पर उनके सहयोगियों की गवाहियों से पता चलता है कि उसने बार-बार हिंसा का निशाना बनने के अपने अनुभव को उनके साथ साझा किया था, फिर भी उसे उस अपमानजनक रिश्ते से बाहर निकालने के प्रयास सफल नहीं हुए। उसके खिलाफ हिंसा के सबूत अब वे मीडिया के साथ साझा कर हैं, जो उसके दोस्तों ने पुलिस के साथ पहले कभी साझा नहीं किए।
घरेलू संबंधों में पुरुष हिंसा को एक ऐसी संस्कृति द्वारा सशक्त किया जाता है, जो इस तरह के दुर्व्यवहार का सामान्यीकरण करती है या इस उत्पीड़न को सहन करने योग्य मानती है और एक महिला से इसके साथ तालमेल बिठाने की अपेक्षा करती है। यह एक ऐसी संस्कृति है, जो विद्रोह करने वाली महिला को या जो ऐसी गुलामी के खिलाफ बोलता है या जो पतिव्रता की अवधारणा पर सवाल उठाता है, को बदनाम करती है। मनु स्मृति के शब्दों में, “एक अच्छी महिला को हमेशा अपने पति की भगवान की तरह पूजा करनी चाहिए”। नौजवानों के लिए हमारी शिक्षा व्यवस्था ऐसे विचारों पर सवाल भी नहीं उठाती, ध्वस्त करना तो दूर की बात है। इसके विपरीत पुत्र प्रधान विचारधाराएँ हावी हैं। आज सत्ता में वे लोग हैं, जो ऐसी विचारधाराओं के वाहक हैं। जो चाहते हैं कि उदाहरण के लिए, हमारे बच्चों को हाल ही में यूजीसी के निर्देशों के अनुसार खाप पंचायतों के चमत्कारों को पढ़ाया जाएं, जबकि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ऐसी जातिवादी संस्थाओं को “इज्जत के लिए की गई हत्याओं” में उनकी भूमिका के लिए दोषी ठहराया गया है।
पिछले दशक में महिलाओं के अधिकारों और समानता के ढांचे में गंभीर गिरावट देखी गई है। पितृसत्तात्मक धारणाओं और प्रथाओं की शक्ति को भारत में एक राजनीतिक व्यवस्था के साथ नया जीवन मिला है, जो सबसे प्रतिगामी सामाजिक सोच को बढ़ावा देने में कोई संकोच नहीं करती है और जो महिलाओं की स्वायत्तता के सख्त खिलाफ हैं। जो ताकतें मनु स्मृति को भारत के संविधान का आधार बनाना चाहती थीं, वे अब सत्ता में हैं। जब तक सत्ता में बैठे लोगों द्वारा ऐसी प्रचलित प्रतिगामी संस्कृतियों को बढ़ावा दिया जाता रहेगा, तब तक भारत की बेटियों को संविधान द्वारा गारंटीकृत अधिकार- जीवन के अधिकार – और कानूनों की सुरक्षा, जो उन्हें बहुत कड़े संघर्ष के बाद प्राप्त हुई है, की रक्षा करने में कठिनाई होगी। किसी भी महिला को अपने रिश्ते के भीतर हिंसा का सामना नहीं करना चाहिए, भले ही यह उसके माता-पिता द्वारा अनुमोदित रिश्ता हो या अपनी पसंद का रिश्ता हो। हमें एक ऐसे समाज का और ऐसे सामाजिक बुनियादी ढाँचे का निर्माण करने की जरूरत है, जो युवा महिलाओं को अपने पैरों पर खड़े होने के लिए सशक्त करे। यही वह रास्ता है, जिससे श्रद्धा को बचाया जा सकता था।
*(बृंदा करात सीपीआई (एम) की पोलित ब्यूरो सदस्य हैं और राज्यसभा की पूर्व सदस्य हैं।)*