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*स्त्री के मासिक-चक्र का ज्योतिषीय गणित*

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      पवन कुमार ‘ज्योतिषाचार्य’

आधुनिक जीवविज्ञान के अनुसार एक सामान्य बालिग़ नारी में प्रत्येक मास एक अण्डा का निर्माण होता है जिसकी आयु लगभग एक दिन की होती है। अन्य किसी भी दिन आधान असफल होता है  किन्तु आधुनिक जीवविज्ञान में यह ज्ञात करने का कोई उपाय नहीं है कि उस एक दिन का ठीक-ठीक निर्धारण कैसे किया जाय। इसका कारण यह है कि मासिकधर्म के कालक्रम में ऐसी कोई नियमितता वैज्ञानिकों द्वारा नहीं देखी गई है जिसके आधार पर आधानकाल का निर्धारण किया जा सके।

      ऐसी नियमितता न मिल पाने का कारण यह है कि आधुनिक वैज्ञानिकों का ईसाई कैलेण्डर ही अवैज्ञानिक और अशुद्ध है जिसमें सायन सौर वर्ष के बारह मनमाने विभाग करके मासों के अनियमित और अप्राकृतिक मान निर्धारित किये गए हैं। भारतीय ज्योतिष में ग्रहों की प्राकृतिक गति के आधार पर समस्त घटनाओं का अध्ययन करने की दीर्घ परम्परा रही है जिस कारण समस्त परिघटनाओं की सही व्याख्या सम्भव है।

     प्रस्तुत आलेख में प्राचीन भारतीय ग्रन्थों के आधार पर उपरोक्त समस्या का हल ढूंढने का प्रयास किया गया है।

वशिष्ठ संहिता (आधानाध्याय) के अनुसार “सभी स्त्रियां चन्द्रात्मिका हैं, और सभी पुरुष सूर्यात्मक हैं , जिस कारण चन्द्रवश रज और सूर्यवश वीर्य का निर्माण होता है”। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सूर्य और चन्द्रमा की परस्पर गति के आधार पर रज और वीर्य के संयोग का काल निर्धारित होना चाहिए । सूर्य और चन्द्रमा की परस्पर गति के आधार पर जो कालमान बनता है वह भारतीय ज्योतिष में चान्द्रमान कहलाता है।

     आधुनिक पश्चिमी साहित्य में इसी को लूनी-सोलर कैलेंडर कहा जाता है, जिसके अनुसार सूर्य की तुलना में चन्द्रमा की गति के आधार पर मासों का निर्धारण किया जाता है । वेद के अनुसार पूर्णमासी के दिन मास की पूर्णता होती है जब सूर्य और चन्द्रमा परस्पर सम्मुख होते हैं और एक-दूसरे पर पूर्ण दृष्टि रखते हैं , जिस कारण रज और वीर्य की भी परस्पर पूर्ण दृष्टि और संयोग का काल वही होता है।

     किन्तु यह गर्भाधान का केवल दीर्घकालीन औसत मान है , जिसे निश्चित मान देने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका मंगल की होती है। वशिष्ठ संहिता का कथन है : “प्रत्येक (चान्द्र-) मास में चन्द्रमा और मंगल का जब योग होता है अथवा अनुपचय-स्थान में स्थित चन्द्रमा पर मंगल की दृष्टि जब होती है तब (स्त्रियों को) रजोधर्म होता है” ( “अनुपचयस्थे चन्द्रे धरणिसुतवीक्षणाद्वापि” ; धरणिसुत means Mars)।

चन्द्रमा पर मंगल की दृष्टि आधे से अधिक हो यह तभी सम्भव है जब मंगल से चन्द्रमा ७०° से १२०° अंश अथवा १६५° से २४०° अंश आगे स्थित हो, जो ३६०° अंशों में केवल १२५° अंश-मात्र है। चन्द्रमा और मंगल की युति ३०° अंशो तक होती है , अर्थात जब दोनों एक ही राशि में हो । अतः ३६०° अंशों में से केवल कुल १५५° अंशों का कुल मान है जब अनुपचय स्थानों में चन्द्रमा के रहने से रज-काल रहता है। द्वादशभावों में से आठ भाव अनुपचय हैं (१, २, ४, ५ ,७ ,८ ,९ ,१२), अर्थात दो तिहाइ। अतएव १५५ अंशों में से भी केवल दो-तिहाई ही सार्थक रहेंगे , जो ३६० अंशों का २८.७०४ प्रतिशत है। एक चान्द्रमास औसतन २९.५३०५८८ दिनों का होता है, जिसका २८.७०४ प्रतिशत है ८.४७६३७ दिन।

     चन्द्रमा जब सूर्य के सान्निध्य में रहता है तो अस्त-दोष के कारण चन्द्रमा की शक्ति का क्षरण होता है, अतः यह काल रजोधर्म का विपरीत काल होता है जिसमें मृत अण्ड के साथ रज का निष्कासन होता है। एक चान्द्रमास का आधा हिस्सा ही ऋतुकाल होता है क्योंकि कृष्णपक्ष में चन्द्रमा क्षीण होता है । अष्टमी को पूरा गिन लेने से तीस तिथियों में से सोलह तिथियाँ ऋतुकाल की होती है , यद्यपि तीस तिथियों का आधा ही वास्तव में शुद्ध ऋतुकाल होता है। ऋतुकाल का आरम्भ रजोदर्शन से होता है जब स्त्री को पुष्पवती कहा जाता है। इस ऋतुकाल में भी आरम्भिक चार दिन अशुद्ध माने जाते हैं और ऋतुकाल का दशम दिन भी वशिष्ठ संहिता में वर्जित माना गया है।

      अतः तीस तिथियों में से केवल एक तिहाई तिथियाँ ही ऋतु हेतु शुद्ध मानी गयी हैं। अतएव उपरोक्त ८.४७६३७ दिनों का एक तिहाई, अर्थात कुल ऋतुकाल में से केवल २.८२५४६ दिन ही आधान हेतु उपयुक्त होते हैं। दीर्घकालीन गणनानुसार इसका आधा ही वास्तव में सार्थक होता है, क्योंकि दीर्घकाल के दौरान ऋतुकाल के आधे भाग में चन्द्र-मंगल की उपरोक्त युति अथवा दृष्टि कृष्णपक्ष में होती है जो रज हेतु अनुपयुक्त होता है। इसकी व्याख्या निम्नोक्त है।

√सूर्यसिद्धान्तानुसार एक महायुग के १५७७९१७८२८ दिनों में २२९६८३२ भौम भगण (३६० अंशों का भ्रमण एक भगण कहलाता है) तथा ५७७५३३३६ चान्द्र भगण होते हैं, अतः मंगल की तुलना में (१५७७९१७८२८ – २२९६८३२ =  एक महायुग में चन्द्रमा के ५५४५६५०४ भगण होते हैं।

     इस कारण एक भौम-चान्द्र भगण अथवा एक भौम-चान्द्रमास में (१५७७९१७८२८ – ५५४५६५०४  २८.४५३२५१ )=दिन होते हैं जो कि आधुनिक वैज्ञानिकों के मतानुसार मासिकधर्म का औसत चक्र है , जबकि एक सौर-चान्द्रमास में (१५७७९१७८२८ – ५३४३३३३६  २९.५३०५८८ )=दिन होते हैं (क्योंकि एक महायुग में ५७७५३३३६ -४३२०००० = ५४३३३३३६)= सौर-चान्द्रमास होते हैं)। इस कारण सौर-चान्द्र कालमान की तुलना में भौम-चान्द्र कालमान का परस्पर अन्तर लगभग १३.७ मासों में एक पक्ष का हो जाता है।

      फलस्वरूप आज यदि मंगल और चन्द्रमा की युति शुक्लपक्ष में है , तो १३.७ मास बाद कृष्णपक्ष की उसी तिथि में यह युति होगी। अतएव दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य में चन्द्र-मंगल युतियों का आधा शुक्लपक्ष में तथा शेष आधा कृष्णपक्ष में होता है। ]

      दीर्घकालिक औसत यह है कि प्रत्येक चान्द्र-मास में केवल १.४१३ तिथि अथवा १.३९ दिन ही आधान सम्भव होता है। इसमें भी ग्रहों के अस्त, नीचत्व आदि अशुभ योग त्याग दें तो प्रत्येक मास लगभग एक दिन अथवा उससे भी न्यून ही आधान हेतु रज उपयुक्त होता है।आधुनिक विज्ञान भी यही कहता है.

       यह तो दीर्घकालिक औसत मान है, आधान का वास्तविक काल तो मुहूर्त-निर्णय के शास्त्रीय नियमों के आधार पर ही निर्धारित करना चाहिए । दुर्भाग्य की बात है कि अब हिन्दुओं में मुहूर्त के आधार पर गर्भाधान का निर्णय नहीं होता और न ही गर्भाधान-संस्कार किया जाता है। अतः धर्म-सम्मत काम के साक्षात ब्रह्म-स्वरूप होने का भगवद्-गीता का वचन अब व्यवहार में प्रयुक्त नहीं होता , और धर्म का साधन न होकर काम केवल वासना का साधन बन गया है। यह नहीं भूलना चाहिए कि गीता का प्रवचन द्वापर के अन्त में हुआ था, अतः इसके वचनों का पालन कलियुग का धर्म है।

     होरा ग्रंथों में सप्तांश वर्ग को संतानोत्पत्ति हेतु महत्वपूर्ण कहा गया है, जिसके सात देवता हैं : क्षार , क्षीर , दधि , आज्य , इक्षुरस , मद्य और शुद्धजल। क्षीर और आज्य शुभ हैं ; दधि , इक्षुरस और शुद्धजल मध्यम हैं, तथा क्षार एवं मद्य अशुभ हैं। बृहदारण्यक-उपनिषद् के अन्त में इन शुभ देवताओं का सम्बन्ध गर्भाधान-संस्कार से जोड़कर फलकथन कहा गया है।

      जातक के सप्तांश-वर्ग के चन्द्रमा के आधार पर सप्तांश की विंशोत्तरी सारिणी बनाएं और उसके आधार पर तय करें कि शुभ देवता वाले ग्रह का काल कब है, जिसमें मुहूर्त-निर्णय के द्वारा गर्भाधान का सही काल निर्धारित करें। ब्रह्मचारी गुरु हेतु ऐसा मुहूर्त शिष्य के आगमन का काल होता है।

      एक स्त्री के सम्पूर्ण जीवन में लगभग ४०० बार रजोदर्शन होता है, अर्थात ४०० चान्द्र-मासों या ३२.३४ वर्षों तक ऐसा सम्भव है। प्रथम बार रजोदर्शन होने के ज्योतिषीय योगों के आधार पर संहिता ग्रंथों में विस्तार से फल-कथन कहा गया है।

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