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*आयु- गणना का ज्योतिषीय विधान*

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   ~ पवन कुमार ‘ज्योतिषाचार्य’

   ज्योतिष का व्यवसाय करने वाले लोग जानते हैं कि आचार्य वराहमिहिर द्वारा निर्दिष्ट आयु जानने की विधि असफल है और उन्होंने मय, यवन, मणित्थ, पराशर, जीवशर्मा और सत्याचार्य आदि जिन आचायों के विचार लिखे हैं उनमें मतैक्य नहीं है।

      उन्होंने सूर्यादि सात ग्रहों को जो १९, २५, १४, १२, १४, २१, २० वर्ष दिये हैं वह अब न तो प्रचलित है, न निर्विवाद है न सफल है। इसमें उस उच्च-नीच को पूर्ण महत्त्व है जो विवादग्रस्त है और चल है।

     ग्रहों की जिस उच्च स्थिति में एक आचार्य चक्रवर्ती राजा होने का फल लिखता है उसी को दूसरा केवल दीर्घायु का द्योतक बताता है परन्तु कहीं-कहीं इन दोनों में से एक गुण भी नहीं मिलता। आचार्य ने कई स्थानों पर लिखा है- “एतद् बहूनां मतम्” अर्थात् यह बहुमत है, सबका मत नहीं।

       जातककेशवीकार ने आयुदय के योगों का विस्तृत वर्णन करने के बाद लिख दिया कि सुयोगों के फल पापियों को नहीं मिलते। इन्हें वे ही पाते हैं जो धर्मिष्ठ हैं, सुशील हैं, सात्त्विक भोजन करते हैं और पथ्य से रहते हैं.

 स्याद् धर्मिष्ठ सुशीलपच्यमुभुजां न स्यादिदं पापिनाम्।

      वराहमिहिर का कथन है- 

“यस्मिन् योगेपूर्णमायुः प्रदिष्टं तस्मिन्प्रोक्तं चक्रवर्तित्वमन्यैः । 

प्रत्यक्षोऽयं तेषु दोषः परोपि जीवन्त्यायुः पूर्णमर्थैर्विनापि॥

  जैमिनि ज्योतिष में आयु के निर्णय को परस्पर विरुद्ध अनेक विधियाँ हैं। उनमें जैमिनिसूत्र और जातककेशवी को विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त है किन्तु जैमिनिसूर का आज तक न तो निर्विवाद अर्थ लग सका है न उसके अनुसार सत्य आयु बताने में कोई समर्थ है।

      काशी के प्रतिष्ठित विद्वान् श्री विनायक शास्त्री वेताल ने अपने भाष्य में लिखा है कि जैमिनि के सूरसागर को पार करने की इच्छा से अनेक ज्योतिषी उस वृद्धवचन रूपी नाव पर बैठे पर एक भी पार न कर सका। फिर भी मैं पृष्टता करके गुरु कृपा के भरोसे अपनी बुद्धि लगा रहा हूँ ( पर वृद्धावस्था में शास्त्री जी भी हताश थे)।

    श्रीमन्महर्षिवरजैमिनिसूत्रसिन्धी आरुह्यवृद्धसुवचोरचनार्थनावम् । 

पारं यियासुषु न कोपि कृती तथापि धृष्टो मतिं गुरुपदादिह पातायामि॥

        जैमिनि के फलादेश का मूलाधार है लग्नेश, अष्टमेश और राशियों के चर, स्थिर तथा द्विस्वभाव आदि नाम पर ये सिद्धान्त उपपत्ति से होन हैं। वस्तुतः न तो कोई ग्रह किसी राशि का स्वामी है और न राशियाँ चर-स्थिर हैं। मेष चर है तो वृष स्थिर क्यों? क्या सिंह और वृश्चिक स्थिर है? क्या आकाश में भिन्न-भिन्न स्वभावों वाली १२ राशियों क्रम से बैठी हैं? क्या मेष-सिंह पुरुष हैं और वृष-वृश्चिक स्त्री हैं? क्या लग्न और अष्टम स्थानों का सचमुच आयु से कोई विशिष्ट सम्बन्ध है?

       जैमिनि का कथन है कि जिस ग्रह के अंश सबसे अधिक हों वह आत्म कारक है, उससे कम अंश वाला अमात्यकारक होता है और अंशों के ही आधार पर उसके बाद क्रमशः भ्राता, माता, पिता, पुत्र, जाति और पत्नी के कारक माने जाते हैं। यहाँ यहाँ की राशि का कोई महत्त्व नहीं है।

       क्या यह विधान तर्कसंगत है? क्या किसी ग्रह में अंशों की संख्या अधिक होने से विशिष्ट गुण आ जाते हैं? नक्षत्रचक्र के वास्तविक आरंभ स्थान से आरंभ करने पर क्या ये अंश टिक पायेंगे? क्या महर्षि जैमिनि के समय राशियाँ प्रचलित थीं? हम लग्न को मानें कि जैमिनि के भावलग्न को? कौन सत्य है?

       क्या शनि का नौकरों से, मंगल का माता एवं मित्रों से, बुध का मामा-मामी से, गुरु का पितामह पितामही से और शुक्र का सास-ससुर आदि से कोई विशिष्ट सम्बन्ध होता है?

        यदि ग्रहों के अंशों और नवांशादिकों से हो सारे फल ज्ञात हो जाते हैं तो राशि का इतना यशोगान क्यों? क्या जैमिनि के समय राहु और केतु ग्रह माने जा चुके थे? जैमिनि सूत्र का दृष्टिनियम अन्य ग्रन्थों से भिन्न है। उसमें १, ४, १० राशियों में बैठे ग्रह एकादश स्थान को भी देखते हैं तथा २, ४, ८ और ११ में बैठे पष्ठ स्थान को भी देखते हैं।

        इनके अतिरिक्त अन्य अनेक नियमों में भिन्नता है। सत्य यह है कि जैमिनि के नाम से यह ग्रन्थ लिखने वाले ने भी उन परम्पराओं को आँख मूंदकर मान लिया है जिनमें कल्पना है पर हेतु नहीं है, उपपत्ति नहीं है। धरती पर कहीं ऐसा क्रम दिखाई  नहीं देता कि पुरुषों और स्त्रियों, दुष्टों और सज्जनों के तथा चलों और अचलों आदि के ग्राम क्रम से और नियम से बसे हॉ तो आकाश की राशियों में यह नियम कैसे बन गया ?

       नक्षत्रों में पुरुष-स्त्री का जो नियम है वह राशि में उलट जाता है। पुष्य पुरुष है पर उसकी राशि कर्क स्त्री है। क्यों?

जैमिनिसूत्र के पाठक जानते हैं कि उसमें अभी यह निर्णय नहीं हो सका है कि :

(१) दिनेश का अर्थ रवि है या अष्टमेश।

(२) मन्द का अर्थ शनि है या लग्न।

(३) चन्द्र का अर्थ चन्द्रमा है या द्वितीय स्थान या द्वितीयेश और,

(४) काल शब्द का अर्थ सप्तम स्थान है या होरालग्न।

       केशवी केशवी में ग्रहों की नैसर्गिक मैत्री, तात्कालिक मैत्री, पंचधा मैत्री, होरावल, द्रेष्काणवल, नवमांशबल, द्वादशांश बल, त्रिंशांश बल, सप्तमांशवल, उच्चादि बल, समविषमबल, केन्द्रादिबल, दिग्बल, नवोन्नतबल, पक्षबल, दिनरात्रि बल, वर्ष-मासहौरेशादि बल, अपनवल, चेष्टायल, भावका दृष्टिबल, स्वामिबल, दिग्बल, शुभपंक्तिसप्तवर्ग, अशुपंक्तिसप्तवर्ग, इष्टबल, कष्टबल, सद्बल, असद्बल, चेष्टागुण, आश्रयगुण, दायांश, अंशायु, पिण्डायु, निसर्गायु, जीवायु आदि के विवेचन द्वारा सूक्ष्म आयु जानने के लिए बृहत् प्रयत्न किया गया है।

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