विक्रम सिंह
एक तरफ जहां उच्च बेरोजगारी और ग्रामीण आर्थिक हालात की कठिन परिस्थितियों में मनरेगा अपनी उपयोगिता साबित कर रहा है वहीं वर्तमान सरकार की मनरेगा पर लगातार हमले करने के लिए आलोचना हो रही है। वैसे तो कई शोध और सरकारी एजेंसियों के रिपोर्ट मनरेगा की उपयोगिता सिद्द कर चुके हैं लेकिन मोदी सरकार ने अपने पूरे कार्यकाल में मनरेगा का महत्व कभी समझा ही नहीं। एक अपवाद अगर था तो कोविड महामारी का समय जब वित्त मंत्री तक को इसका महत्व स्वीकार करना पड़ा और इसके लिए अतिरिक्त बजट का भी प्रबंध करना पड़ा। हालांकि यह बजट भी मनरेगा के तहत काम की उच्च मांग के सामने नाकाफी था। बहरहाल साल दर साल मनरेगा पर हमले बढ़ते गए। बजट निरंतर कम होता चला गया।
मनरेगा में काम करने के लिए परिवार का जॉब कार्ड होना जरूरी है। अगर परिवार का जॉब कार्ड नहीं बना है तो किसी भी सदस्य को काम नहीं मिलता है। दरअसल बिना जॉब कार्ड के मनरेगा में कोई काम मांग ही नहीं सकता है। यह उसी तरह है जिस तरह सभी वयस्क नागरिकों को मताधिकार तो है लेकिन अगर मतदाता सूची में नाम नहीं है तो अधिकार होने के बावजूद वोट नहीं दे सकते हैं। ठीक उसी तरह काम का अधिकार होने के बावजूद अगर जॉब कार्ड नहीं बना है तो मज़दूर काम नहीं मांग सकते।
वर्तमान में हमारे देश में 14.87 करोड़ जॉब कार्ड हैं जिनमें कुल मिलाकर 26.73 करोड़ मजदूर पंजीकृत हैं। इनमें से बहुत से मजदूर काम नहीं करते या बहुतों को काम नहीं मिलता है, लेकिन उनके पास अधिकार है कि वह कभी भी काम मांग सकते हैं। 26.73 करोड़ मजदूरों में से 14.39 करोड़ मजदूर सक्रिय मजदूर हैं। सक्रिय मजदूर उनको कहा जाता है जिन्होंने पिछले वर्ष एक भी दिन का काम किया है।
इसी तरह कुल जॉब कार्ड में से 9.73 करोड़ जॉब कार्ड सक्रिय हैं। अब सरकार ने बड़ी संख्या में जॉब कार्ड ही डिलीट कर दिए हैं। संसद में सरकार द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार वर्ष 2022-2023 में 5,18,91,168 जॉब कार्ड रद्द कर दिए गए हैं। पिछले वर्ष की तुलना में इनमें 247% की बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2021-2022 में 1.49 करोड़ जब कार्ड रद्द किये गए थे।
सबसे ज्यादा पश्चिम बंगाल से जॉब कार्ड काटे गए हैं। इसके बाद नंबर आता है आंध्र प्रदेश और तेलंगाना का। सरकार ने जॉब कार्ड काटने के जो कारण बताए हैं वो काफी दिलचस्प हैं। कुल मिलाकर सरकार ने जॉब कार्ड डिलीट करने के पांच कारण बताये है जैसे- फर्जी जॉब कार्ड, दोहरे (डुप्लीकेट) जॉब कार्ड, मजदूर काम करने के लिए तैयार नहीं है, ग्राम पंचायत से परिवार पलायन कर गए हैं तथा मज़दूरों की संख्या में कमी।
पहला और दूसरा कारण चलो मान भी लें लेकिन यह कैसे पता चला कि मज़दूर काम करने के लिए तैयार ही नहीं है। तय कौन कर रहा है कि मज़दूर काम नहीं करना चाहता है। इसके लिए कितने मज़दूरों से संपर्क किया गया और कितने मज़दूरों ने मना कर दिया कि वह काम करने के लिए इच्छुक नहीं हैं। यह सीधा सा तरीका है मज़दूरों को भविष्य में काम से महरूम करने का। हम सब जानते है कि मज़दूरों के जॉब कार्ड होने के बावजूद काम न कर पाने के कई कारण हैं। प्राथमिक कारण तो है ही काम न मिलना, काम और मजदूरी मिलने की पेचीदगियों से मज़दूरों का हतोत्साहित होना।
कुछ भी हो लेकिन यह मुख्य कारण नहीं है कि लोग काम नहीं करना चाहते हैं। यकीनी तौर पर इसकी पुष्टि तो खुद मजदूर या पंचायत कर सकती है लेकिन उन तक प्रशासन पहुंच ही नहीं रहा। हालांकि कानून में प्रावधान है कि अगर जॉब कार्ड काटना है तो इसकी सूचना और कारण पंचायत को देकर अनुमोदित करवाना होगा, लेकिन यह प्रक्रिया प्रशासन नहीं अपना रहा। उल्टे प्रशासन तो कई जगह अपना पीछा छुड़ाने के लिए कह रहा है कि जिनके नाम कटे हैं वह नई सूची में जोड़ लिए जाएंगे, परन्तु कब, यह कोई नहीं बता रहा।
गौरतलब है कि जितने परिवारों के पास जॉब कार्ड होता है उनमें से केवल 50 प्रतिशत के आसपास को ही प्रतिवर्ष काम मिल पाता है। इतनी बड़ी संख्या में जॉब कार्ड डिलीट करके यह आंकड़ा सुधारने की भी कवायद हो सकती है। यह कोई सामान्य बात नहीं है बल्कि बहुत खतरनाक रुझान है। लगातार बढ़ती बेरोजगारी विशेष तौर पर ग्रामीण बेरोजगारी के चलते मनरेगा में काम की मांग लगातार बढ़ रही है। इस वर्ष भी पहले कुछ महीनों में ही काम की मांग पिछले वर्षों की तुलना में 10 प्रतिशत तक अधिक रही है।
मनरेगा जॉब कार्ड बनाने की कठिन प्रक्रिया होते हुए भी मजदूरों की संख्या में इज़ाफ़ा हो रहा है। अभी तक यह प्रचारित किया जाता था कि नौजवान मनरेगा में काम नहीं करना चाहते, लेकिन 18 से 30 वर्ष की आयु वाले नौजवान मज़दूरों के पंजीकरण में बढ़ोतरी हुई है। संसद में एक सवाल के जवाब में ग्रामीण विकास मंत्री गिरिराज सिंह ने बताया कि इस वर्ष आयु के नौजवानों का मनरेगा में पंजीकरण 2.95 करोड़ से बढ़कर 3.06 करोड़ हो गई है। वर्ष 2022-23 में कुल मजदूरों का 57.43 प्रतिशत महिलाओं का है।
बेरोजगारी के चलते काम की बड़े स्तर पर मांग और जरूरत होते हुये भी मनरेगा में 100 दिन का काम पूरा करने वाले परिवारों की संख्या चिंताजनक रूप से कम है। गौरतलब है कि मनरेगा में प्रत्येक परिवार को हर महीने 100 दिन का रोजगार देने का कानूनी प्रावधान है। ग्रामीण बेरोजगारी और महंगाई की स्थिति में हर परिवार चाहता है कि उसको 100 दिन का रोजगार मिले। लेकिन राजनीतिक इच्छा शक्ति और बजट की कमी के चलते अनेकों कारण बता कर परिवारों का 100 दिन के रोजगार का हक़ कभी भी पूरा नहीं किया जाता है। 100 दिन का रोजगार पूरा करने वाले परिवारों की संख्या पिछले दस वर्षों में कभी भी 10 प्रतिशत तक नहीं पहुंची है। प्रतिवर्ष औसत काम के दिन भी सामान्यत: 50 तक नहीं पहुंचते हैं। पिछले वर्ष तो यह 48 ही थे।
जब मनरेगा लागू हुआ था तो इसको लागू करने और इसके जरिये गांव में विकास के लिए ग्राम सभाओं और ग्राम पंचायतों की महत्वपूर्ण भूमिका तय की गई थी। मौलिक अवधारणा यह भी थी कि ग्राम पंचायतें मनरेगा को धरातल पर लागू करेंगी। ग्राम पंचायतें ग्राम सभा के माध्यम से लम्बे समय और अल्पावधि के लिए परिप्रेक्ष्य योजना तैयार करेंगी। क्योंकि पंचायतें जानती हैं कि गांव में कितने लोग काम करने वाले हैं और कहां काम की जरूरत है। इसके जरिये गांव के सतत विकास की कल्पना की गई थी।
गांव में कृषि की ज़मीन के विकास, खाली या बंजर ज़मीन का उपयोग, पौधा-रोपण और उनकी देखभाल के तमाम कामों की व्यवस्थित योजना की जिम्मेदारी ग्राम पंचायत की तय की गई थी। दरअसल सोच यह थी कि लोग कल्पना करें कि वह एक दशक या एक निश्चित समय के बाद अपने गांव को कहां देखना चाहते हैं। इसके लिए मनरेगा के जरिये मानव संसाधन का बेहतरीन उपयोग किया जा सकता है लेकिन समय के साथ पंचायतों की भूमिका सतही तौर पर केवल ग्राम सभा में काम के तथा कथित सेल्फ पास करवाना रह गई है।
जब प्रशासन पंचायतों और ग्राम सभाओं के जरिये स्थानीय लोगों की भागीदारी नहीं करवाता तो देश की पंचायतों का एक बड़ा हिस्सा मनरेगा के प्रति उदासीन हो जाता है। यह उनके लिए एक बोझ बन कर रहा जाता है। वहीं एक बड़ा हिस्सा इसका उपयोग केवल भ्रष्टाचार के लिए करता है। पिछले कुछ वर्षों में, ग्राम सभाओं की भागीदारी करने के बजाय फंड प्रबंधन को केंद्रीकृत कर दिया गया है।
मनरेगा के कार्यान्वयन में ज्यादा से ज्यादा केंद्रीयकरण किया जा रहा है। पिछले नौ वर्षों में तो एक चलन सा बन गया है कि सीधे केंद्र (ग्रामीण विकास मंत्रालय) से आदेश लागू होते हैं और राज्यों को केवल उनको लागू करना होता है। मनरेगा को लागू करने में राज्यों के अनुभवों को नीति निर्धारण में कोई स्थान नहीं दिया जाता। हाल ही में हमने देखा है कि किस तरह केंद्र के निर्णयों के कारण कई राज्यों द्वारा मनरेगा में मजदूरों को दी जाने वाली सहायता पर रोक लग गई है। उदाहरण के लिए गर्मियों में ज्यादातर राज्यों में काम करने के समय में कुछ लचीलापन था।
जैसे भीषण गर्मी से बचने के लिए मज़दूरों को सुबह जल्दी और शाम को देर तक काम करने की छूट थी ताकि दोपहर के समय मजदूर अपने घर पर आराम कर पाएं। काम के घंटों में यह लचीलापन कई राज्यों में लागू किया जाता था, जो मनरेगा को लागू करने के अनुभवों के आधार पर था। वैसे भी मनरेगा में काम ‘पीस वर्क’ के आधार पर होता है न कि दैनिक आधार पर। इसके मायने हैं कि एक निश्चित काम करना होता है चाहे यह दिन के किस भी और कितने भी समय में किया जाये।
लेकिन केन्द्रीय मंत्रालय द्वारा दिन में दो बार जीओ-टैग्ड ऑनलाइन हाजरी के चलते मज़दूरों को तपती धूप में मनरेगा कार्यस्थल पर रहने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। इससे मजदूर भारी बेरोजगारी होने के बावजूद गर्मियों में मनरेगा के तहत काम नहीं कर पा रहें है क्योंकि इतनी भीषण गर्मी में कठोर शारीरिक श्रम लगभग असंभव हो जाता है। गौरतलब है कि गर्मियों के कुछ महीनों में तो सरकार ही लोगों को धूप में बाहर न निकलने की सलाह जारी करती है।
हालांकि ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा कराए गए एक आंतरिक अध्ययन में मनरेगा के विकेंद्रीकरण पर जोर दिया गया है जिससे जमीनी स्तर पर इसको लागू करने में अधिक “लचीलापन” मिल सके। इसी अध्ययन में NMMS के माध्यम से दिन में दो बार ऑनलाइन हाज़री से मजदूरों के लिए पैदा हो रही दिक्कतों के बारे में चेताया है। लेकिन केंद्र सरकार ठीक इसके विपरीत काम कर रही है और मनरेगा का ज्यादा से ज्यादा केन्द्रीयकरण कर रही है।
मनरेगा में भ्रष्टाचार ख़त्म करने के नाम पर इसका अंतहीन केन्द्रीयकरण और तकनीक का बेहताशा प्रयोग मज़दूरों और गांव में इसे लागू करने वाली संस्थानों के लिए समस्या पैदा कर रहा है। केंद्र सरकार ऐसा दिखा रही है कि भ्रष्टाचार केवल केंन्द्र से ही ख़त्म होगा।इसलिए सीधे केंद्र से फतवे और केंद्र को रिपोर्टिंग। इसी के नाम पर NMMS के जरिये दिन में दो बार ऑनलाइन हाज़िरी होती है। अब तो मनरेगा के तहत आने वाली वर्क साइट की निगरानी के लिए ड्रोन का इस्तेमाल किया जायेगा।
केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा जारी गाइडलाइंस के मुताबिक ड्रोन्स की मदद से वर्क साइट पर जारी कामों की मॉनिटरिंग, पूरे हो चुके काम की जांच, काम का आंकलन और शिकायत मिलने पर मामले की जांच की जाएगी। ड्रोन का इस्तेमाल लोकपाल द्वारा किया जायेगा। इसके लिए प्रत्येक जिले में एक लोकपाल तैनात किया जाएगा, जो स्वतः संज्ञान लेकर शिकायतों को दर्ज करके उन्हें 30 दिनों के भीतर निपटाएगा।
मंत्रालय द्वारा जारी मानक संचालन प्रक्रिया (SOP) में यह सब बातें तो प्रस्तावित हैं लेकिन इसके लिए राज्यों को कोई अतिरिक्त फंड नहीं दिया जा रहा है। इससे राज्यों पर ही आर्थिक बोझ पड़ेगा। इसमें भी निजीकरण का रास्ता खोज लिया गया है इसलिए केंद्र ने राज्य सरकार को ड्रोन खरीदने के बजाए ड्रोन एजेंसियों को हायर करने का निर्देश दिया है।
किसी भी स्तर पर भ्रष्टाचार बिना लोगों की सक्रिय भागीदारी से नहीं ख़त्म किया जा सकता। केवल तकनीक के सहारे भ्रष्टाचार से नहीं लड़ा जा सकता। तकनीक की अपनी सीमाएं हैं और इंसान इसे भलीभांति जानता है। इसके लिए मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की दरकार होती है। एक संस्कृति का निर्माण करना होता है। मनरेगा में भी अगर भ्रष्टाचार से पार पाना है तो लोगों की भागीदारी से ही होगा। सोशल ऑडिट की अवधारणा का यही आधार है।
केंद्र सरकार भ्रष्टाचार के नाम पर बड़े बदलाव कर रही है लेकिन सोशल ऑडिट के लिए न तो गंभीर है और न ही इसके लिए उपयुक्त बजट का प्रबंध करती है। वैसे भी स्थानीय राजनेताओं और प्रशासन को भ्रष्टाचार का पता लगाने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास करने की जरूरत नहीं है। यह तो एक खुला रहस्य है जो सबको पता है। ज़रूरत है तो इसके खिलाफ खड़े होने की। लेकिन गांव में ठेकेदारों, राजनेताओं और अधिकारियों का नापाक गठजोड़ पूरी ताल-मेल से भ्रष्टाचार करता है। मजदूरों के प्रश्न पूछने या आंदोलन करने पर उल्टा उनको ही शिकार बनाया जाता है।
यह सब तो हथकण्डे हैं- मज़दूरों के सामने नित नई मुश्किलें खड़ी करके, नई जटिलताएं पैदा करके- मनरेगा को लागू करने वाली एजेंसियों और मजदूरों को हतोत्साहित करने की। ताकि वह मनरेगा के काम में रूचि न दिखाए। इसके साथ ही जुड़ती है बहुत कम मजदूरी और मजदूरी मिलने में देरी का मामला। कम बजट के कारण मजदूरी के भुगतान में देरी होती है क्योंकि केंद्र सरकार समय पर राज्यों के लिए फंड रिलीज़ नहीं करती और कम फंड देती है।
प्रत्येक वर्ष मनरेगा में मजदूरी और सामग्री दोनों के मद में समय पर बजट नहीं दिया जाता है। प्रत्येक वर्ष साल के अंत तक बजट ख़त्म हो जाता है और मजदूरों को काम नहीं मिल पाता। हर बजट का लगभग 20% हिस्सा पिछले साल की देनदारियों में चला जाता है। संसद में सरकार द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार केंद्र सरकार को राज्यों को मजदूरी के मद में 6366 करोड़ रुपये भी देने हैं। पश्चिम बंगाल में तो पिछले वर्ष से ही भ्रष्टाचार के नाम पर मनरेगा के लिए फंड ही नहीं दिया जा रहा है। भ्रष्टाचार का तो पता नहीं लेकिन मजदूरों की ज़िन्दगी ज़रूर ख़त्म हो रही है।
(विक्रम सिंह, अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन के राष्ट्रीय संयुक्त सचिव हैं।)