अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

बुद्ध, कबीर, नानक, फुले, अंबेडकर जैसे चिंतकों ने बहुजनों को ज्ञान दिया

Share

 अभय कुमार

बात गत 21 जुलाई, 2024 की है। सुबह होते ही जब अपना मोबाइल देखा तो पाया कि गुरु पूर्णिमा से संबंधित अनेक सारे संदेश आए हुए थे। दिल्ली यूनिवर्सिटी के ‘स्कूल ऑफ़ ओपन लर्निंग’ के छात्रों को मैंने पिछले सेमेस्टर में राजनीति शास्त्र पढ़ाया था। उसी क्लास के एक छात्र ने मुझे ‘डियर टीचर’ का संदेश भेजा था। कुछ छात्रों ने मुझे फोटो फॉरवर्ड की थीं। एक फोटो ऐसा था, जिसमें एक लंबी दाढ़ी वाले गुरु कुछ लिख रहे हैं और उनकी तुलना ईश्वर से की गई थी। अगर किसी को वाक़ई लगता है कि गुरु ईश्वर का अवतार है और उसकी हर बात को आंख बंद करके मान ली जानी चाहिए, तो वह वैसा करने के लिए पूरी तरह से आज़ाद हैं।

लेकिन मेरा अनुभव शिक्षकों के साथ अच्छा नहीं रहा है। मैंने शिक्षकों के समूह के ज़्यादातर लोगों को रूढ़िवादी पाया है। वह यथास्थिति को बनाए रखने वाला वर्ग है। भारत जैसे जाति के शोषण और भेदभाव पर आधारित समाज में, मैंने शिक्षकों को अक्सर जातिवाद और कम्युनलिज्म का घोर समर्थक पाया है। कोई इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि शिक्षकों के समूह में ज़्यादातर वे हैं, जो ऊंची जातियों में पैदा हुए हैं। ऐसे शिक्षक क्लासरूम में भी जातिवादी भेदभाव करते हैं और अल्पसंख्यक विरोधी बातें बोलते हैं।

जातिवादी शिक्षक समाज का इतना ज़्यादा नुक़सान करता है, जिसका अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल है। वह समाज में जाति का वायरस बच्चों के दिमाग़ में डालता है। वह ऊंची जाति के बच्चों को आगे बैठाता है, उनको मेधावी कहता है, ज़्यादा नंबर देता है, दुलार-प्यार करता है। वहीं दूसरी तरफ़, दलित, आदिवासी, पिछड़े और मुस्लिम समाज के बच्चों को क्लास में पीछे बैठाता है, उनका हर वक्त अपमान करता है, उनका मनोबल तोड़ता है और उनके दिलों में हीन भावना भरने की हरसंभव कोशिश करता है।

कई मामले तो ऐसे भी आए हैं, जहां दलित समाज का छात्र जब सवर्ण लोगों के लिए रखे गए पानी के मटके से अपनी प्यास बुझाने की कोशिश की है, उसको बुरी तरह से मारा गया है। इतना ही नहीं, स्कूल में भी कई बार दलितों को क्लास से बाहर बैठाया जाता है और दलित बच्चों के साथ भोजन के मामले में भेदभाव किया जाता है। ऊंची जातियों के शिक्षकों द्वारा जाति का नाम लेकर बच्चों को गाली देना और मारना तो रोज़ का मामला बन गया है, जिसके ख़िलाफ़ अक्सर कोई कार्रवाई नहीं होती है।

सवाल है कि स्कूल के माहौल को ख़राब करने में अगर शिक्षक ज़िम्मेदार नहीं हैं, तो कौन हैं? क्या ऐसे शिक्षकों को ईश्वर का दर्जा देना चाहिए? शोषक और भेदभाव करने वाले पूजनीय कैसे हो सकते हैं?

बुद्ध की एक पेंटिंग

कुछ दिनों पहले ही झारखंड से यह बात आई है कि वहां के कुछ सवर्ण शिक्षक खुलेआम यह बात कह रहे हैं कि वे पढ़ाना नहीं चाहते हैं, क्योंकि अगर उन्होंने ज्ञान बांट दिया तो आदिवासी और दलित के बच्चे कल कुर्सी (नौकरी) पाकर उनके बराबर बैठ जाएंगे। दरअसल, यह हाल सिर्फ़ झारखंड का ही नहीं है। ऐसी ही स्थिति पूरे देश में है, क्योंकि ज्ञान पर हमेशा से ही मुट्ठी भर जातियों का क़ब्ज़ा रहा है। उन्होंने कभी नहीं चाहा कि ज्ञान सब तक पहुंचे।

इसकी पुष्टि हिंदू धर्म के ग्रंथ भी करते हैं। मसलन, एकलव्य ज्ञान पाने के लिए द्रोणाचार्य के पास गया था। क्या हुआ उसके साथ? ज्ञान के बारे में कहा जाता है कि इसे जितना फैलाया जाता है, उतना ही बढ़ता है। मगर द्रोणाचार्य ने ज्ञान को बांटने के बजाय, एक बहुजन का अंगूठा काटना पसंद किया ताकि एक सवर्ण अर्जुन की कुर्सी के आसपास एक बहुजन न बैठ पाए।

अगर अर्जुन ईर्ष्या की वजह से एकलव्य का अंगूठा काट लेता तो यह बात कुछ हद तक समझ में भी आती, क्योंकि कई बार लोग ख़ुद के स्वार्थ के लिए घृणित से घृणित कार्य करने के लिए तैयार हो जाते हैं। मगर ध्यान देने वाली बात है की द्रोण ने अंगूठा काटा। उन्होंने यह ख़ुद के लिए नहीं काटा था, बल्कि अपने वर्ग के हितों को पूरा करने के लिए किया था। सच तो यह है कि उन्होंने एकलव्य को धोखा देकर सवर्ण समाज के स्वार्थ को पूरा किया, ताकि कोई बहुजन बराबरी की दावेदारी न कर पाए।

उपरोक्त प्रसंग मिथक ही सही लेकिन आज भी भारतीय समाज का सच है। यही स्वार्थ आज देश भर के शिक्षण संस्थानों में देखा जाता है, जहां बहुजन का अंगूठा काटने के लिए ‘द्रोणाचार्य गण’ हर वक्त साज़िश करते रहते हैं। कहना अतिशयोक्ति नहीं कि कल का एकलव्य आज का रोहित वेमूला है। हर रोज़ एक रोहित को मारा जा रहा है। इस खूनी खेल में क्या शिक्षक शामिल नहीं हैं?

बहुजनों के ख़िलाफ़ साज़िश हर तरफ़ हो रही है। प्राथमिक स्कूल से लेकर यूनिवर्सिटी तक बहुजन विरोधी ताक़तें क़ाबिज़ हैं। कई तरह से बहुजनों को शिक्षा से वंचित किया जा रहा है। मिसाल के तौर पर, दलित और बहुजन के इलाक़ों के स्कूलों में सुविधा नहीं होती है। शिक्षकों की भी कमी होती है। अगर किसी सवर्ण शिक्षक की वहां नौकरी लग जाती है तो वह बग़ैर पढ़ाए सैलरी उठाने की हरसंभव कोशिश करता है। मुखिया, सरपंच, पदाधिकारी और नेताओं के साथ वह ‘कास्ट नेटवर्क’ का सहारा लेकर बहुजनों के स्वार्थ पर हमला करता है और अपनी धांधली स्कूल के भीतर चलाता है। बहुजन समाज के बच्चों को प्यार से पढ़ाने और उनको आगे बढ़ाने के बजाय वह उनके साथ ऐसा सुलूक करता है ताकि वे अगले दिन से स्कूल न आएं। कई बार ऐसा देखा गया है कि वह छोटे-छोटे बच्चों का यौन शोषण भी करता है। स्कूल के संसाधन का भी दुरुपयोग वह ख़ुद के स्वार्थ के लिए करता है। जब भी मौक़ा मिलता है, सवर्ण शिक्षक बहुजन समाज के अभिभावकों से ‘विद्या दान’ देने के बदले बेगारी का काम करवाता है।

दरअसल शिक्षा दोधारी तलवार है। अगर इसका उपयोग समाज को आगे लाने में किया जाए तो समाज में सामाजिक बदलाव होगा और वंचितों को उनका हक़ मिल पाएगा। मगर शिक्षा का इस्तेमाल यथास्थिति को बनाए रखने के लिए किया जाए तो यह बहुजनों के ख़िलाफ़ सबसे घातक हथियार है।

बहरहाल, हिंदुत्व के प्रचारक जितना भी चीख-चीखकर प्रोपेगंडा कर लें कि भारत ‘विश्वगुरु’ था और वह फिर से ‘विश्वगुरु’ बनने जा रहा है, लेकिन असली सच्चाई तो यह है कि बहुजनों को शिक्षा से महरूम रखने में सवर्णों ने हमेशा कोशिश की और भारत को अज्ञान के अंधकार में डाले रखा। सब जानते हैं कि भारत में सदियों से पेशा और जाति का संबंध रहा है। जहां शूद्रों से काम लिया गया, वहीं सबका पेट भरने वाले को ही बदनाम किया गया और उनको ज्ञान से दूर रखा गया। जबकि ब्राह्मण ने शिक्षा का कभी भी लोकतंत्रीकरणनहीं किया और इसको अपनी इजारेदारी बनाए रखी। जो भी बहुजन उनसे ज्ञान लेने के लिये पास आया, उसका उन्होंने अंगूठा काट लिया।

अगर भारत में बहुजनों को ज्ञान देने की किसी ने कोशिश की तो वह ग़ैर-ब्राह्मणवादी परंपरा रही है। बुद्ध मत, इस्लाम, अंग्रेजों और ईसाई मिशनरियों ने बहुजनों के लिए शिक्षा के दरवाज़े खोले। बुद्ध, कबीर, नानक, फुले, अंबेडकर जैसे बहुजन चिंतकों ने उनको ज्ञान दिया।

मगर देश के ज़्यादातर सवर्ण शिक्षकगण हमेशा से ही बहुजन विरोधी रहे हैं। यह सब कुछ आपको झारखंड और बिहार के गांवों से लेकर दिल्ली की बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटियों में दिख जाएगा। देश की इन यूनिवर्सिटियों में पूरी तरह से क़ब्ज़ा सवर्णों का है। वही मेरिट के बहाने बहुजनों का गला घोंट रहे हैं। बहुजनों का यह कड़वा अनुभव है कि यूनिवर्सिटी का बुद्धिजीवी वर्ग विचारधारा के नाम पर अलग-अलग कैम्प में दिखेगा, मगर ‘कास्ट नेटवर्क’ की वजह से वह आपस में मिला हुआ है। सांप्रदायिक कैंप हो या सेक्युलर-लिबरल-लेफ्ट कैंप हो, दोनों जगह सवर्ण शिक्षकों का दबदबा है, जो बहुजनों के ख़िलाफ़ छुपकर या सामने आकर हकमारी करते हैं। जो छात्र ख़ुद की अपनी सोच रखते हैं और उनका महिमामंडन नहीं करते, उनको भी बाहर का रास्ता दिखलाया जाता है। फिर ऐसे गुरु ईश्वर तुल्य कैसे हो सकते हैं?

Recent posts

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें