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तानाशाही रास्तों पर चलने वाले देशों के लिए सबक भी है बांग्लादेश संकट 

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बांग्लादेश में छात्र आंदोलन की लहर के आगे शेख हसीना सरकार की तानाशाही काम नहीं आई, और उन्हें सत्ता ही नहीं अपनी जान तक के लाले पड़ गये, और सेना की मदद से जान बचाकर अपना वतन छोड़ने के लिए एक बार फिर से मजबूर होना पड़ा।

पहली बार 1975 में यह सब उनके साथ हो चुका था, जब उनके पिता मुजीबुर्रहमान सहित परिवार के 17 लोगों की हत्या कर दी गई थी। तब भी उनके लिए भारत ही शरणस्थली बना था, और इस बार भी। लेकिन तब और अब में 180 डिग्री का अंतर आ चुका है। यह अंतर क्यों और कैसे आया, ये जानना ही असल में बांग्लादेश सरीखे विकासशील देशों की नियति को समझने के लिए आवश्यक है। आइये, इस बारे में कुछ उन तथ्यों पर रौशनी डालते हैं, जिनपर मेनस्ट्रीम मीडिया कोई चर्चा नहीं कर रहा है।

24 अप्रैल 2013 का दिन था। बांग्लादेश की राजधानी ढाका के सावर उपजिला में राना प्लाज़ा भवन भरभराकर गिर पड़ा था, जिसमें कुल 1,134 लोगों की मौत हो गई थी। इनमें से अधिकांश लोग कपड़ा फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूर थे, जिसमें महिलाओं की तादाद सबसे अधिक थी। यह वो संख्या है, जिसकी पुष्टि 19 दिन बाद 13 मई 2013 को हो पाई थी। 2500 लोग घायल थे। इतनी बड़ी बिल्डिंग के ध्वस्त होने से मरने और घायल होने वालों की, दुनिया में यह सबसे बड़ी संख्या थी।

प्रमुख अभियुक्त सोहेल राना ने बिना आवश्यक अनुमति प्राप्त किये ही आठ मंजिला इमारत खड़ी कर दी थी। एक दिन पहले ही इस इमारत में क्रैक नजर आने लगे थे, जिसके कारण निचले फ्लोर की दुकानों को बंद कर दिया गया था। लेकिन ऊपर के माले पर गार्मेंट फैक्ट्री को जबरन चलाया गया, और जब बिजली सप्लाई चली गई तो जैसे ही जेनरेटर चलाया गया, उसकी वाइब्रेशन के साथ इमारत ढह गई। 

सोहेल राना को चार दिन बाद भारत की सीमा पार करते समय बांग्लादेश के सशस्त्र बल ने हिरासत में ले लिया। ये सोहेल राना कौन था? सोहेल राना कथित तौर पर जुबो लीग (यूथ लीग) का सदस्य था, जिसका संबंध सत्तारूढ़ दल बांग्लादेश अवामी लीग के साथ है। राना कई गार्मेंट फैक्ट्री का मालिक था, जिसके पास 5 हजार श्रमिक कार्यरत थे। ये गार्मेंट कारखाने असल में अमेरिका और यूरोप के मशहूर फैशन ब्रांड और रिटेल स्टोर्स के लिए जॉब वर्क के तौर पर काम करते थे।

इनमें बेनेटन, ज़ारा, द चिल्ड्रन प्लेस, एल कॉर्टे इंगलेस, जो फ्रेश, मैंगो, मटालान, प्रिमार्क, और वॉलमार्ट जैसी तमाम ब्रांड के लिए काम होता था। एक वर्ष के भीतर ही राना को जमानत मिल जाती है, जिस पर बांग्लादेश में भारी विरोध प्रदर्शन के कारण दूसरे मामले में उसे अंदर ही रहना पड़ता है। फिर बाद में 3 वर्ष की सजा तय होती है, लेकिन यह मामला अभी भी वहां की अदालत में चल रहा है।

इस एक तस्वीर से बांग्लादेश की सूरत के बारे में आईडिया लगाया जा सकता है। हालांकि कहा तो ये जाता है कि पाकिस्तान से आजाद मुल्क बन जाने के बाद बांग्लादेश में समाजवादी व्यवस्था को लागू किया गया, जिसके कारण बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था चरमरा गई, और 75 के बाद सैनिक शासन के तहत देश ने निजीकरण और पूंजी निवेश के जरिये, एक ऐसी राह तैयार की जिसके बाद 80 और 90 के दशक में ही बांग्लादेश तरक्की की राह पर चल निकला।

स्थिति यह हो गई कि 2021 तक आते-आते बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति आय अपने पड़ोसी देश भारत से भी आगे निकल गई। विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के द्वारा बांगलादेश की उपलब्धियों के बारे में कसीदे पढ़े जाने लगे। लगातार 6 या उससे ऊपर की जीडीपी विकास दर को छूने वाले देश के 2030 तक विश्व की 25वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के दावे किये जा रहे थे।

आखिर जब बांगलादेश में सब कुछ इतना बढ़िया चल रहा था, फिर क्यों वहां पर छात्र, मजदूर और आम जनता शेख हसीना सरकार के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजाने के लिए मजबूर हुए? क्या यह विरोध सिर्फ सरकारी नौकरियों में 71 की आजादी की लड़ाई में शामिल लोगों के वंशजों को आरक्षण दिए जाने के कोर्ट के फैसले का परिणाम था, या इसकी जड़ें कहीं गहराई में धंसी हुई हैं? क्या जनवरी में हुए आम चुनाव, जिसका विपक्ष की सभी प्रमुख पार्टियों ने बहिष्कार किया था, वह इस समस्या के मूल में है? या लगातार बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी से त्रस्त आम जनता पिछले कई वर्षों से अपने जीवन को धीरे-धीरे खत्म होते देख रही थी? 

ये सभी कारक इस घटना को ट्रिगर करने के लिए जिम्मेदार हैं। लेकिन इन सब समस्याओं के मूल में भी एक संरचनात्मक बदलाव है, जिसकी मार श्रीलंका, बांग्लादेश सहित भारत और तमाम विकासशील देश भुगत रहे हैं, यहां तक कि कथित विकसित देश भी इसकी चपेट में बुरी तरह से फंसे हुए हैं।

इसका नाम हम सबने सुन रखा है, लेकिन सुनने में यह जरा भी भयोत्पादक नहीं लगता। जी हां, नव-उदारवाद या नेओ-लिबरलिज्म। इसे पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर के नाम से भी रीगनामिक्स और थैचराइट्स सिद्धांत कहा जाता है। 

70 और 80 के दशक में जब यह लगभग तय हो गया था कि समाजवादी मॉडल अब अपनी पतन की राह पर है और विश्व पूंजीवाद के लिए निष्कंटक एकछत्र राज करने का दौर आ गया है, तब इस सिद्धांत को पूंजीवाद ने नए जुमले के साथ आगे किया। राज्य की भूमिका को एक बार फिर से पीछे करने और मुक्त बाजार और ग्लोबल विलेज के नाम पर पूंजी की लूट को दुनिया के नए-नए कोनों तक फैलाने के लिए विश्व बैंक और आइएमएफ की सेवाएं ली गईं।

अर्थव्यवस्था में ढांचागत बदलाव और सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका को कम से कम करने, खर्चों में कटौती और जनकल्याणकारी भूमिका से विभिन्न देशों के सरकारों की भूमिका में कमी की शर्तों पर तीसरी दुनिया के देशों को ऋण वितरित करने का प्रस्ताव स्वीकार करने वाले देशों में बांग्लादेश भी एक था। 

इसके परिणाम चंद लोगों के लिए बेहद फलदायी रहे, लेकिन आम देशवासियों के जीवन में भारी तबाही आई। बांग्लादेश में इस संकट से निपटने के लिए युनुस मोहम्मद सरीखे आर्थिक जानकार भी थे, जिन्होंने माइक्रो फाइनेंस के माध्यम से ग्रामीण बांग्लादेश की कमर टूटने से बचाने में बड़ा योगदान दिया।

आज इन्हीं नोबल पुरस्कार विजेता युनुस साहब को अंतरिम सरकार का चीफ बनाया जा रहा है। लेकिन ऐसा माना जाता है कि माइक्रो फाइनेंस ने भले ही बड़ी ग्रामीण महिला आबादी को भारी गरीबी और कष्टों से बचाया हो, लेकिन इसने उससे कहीं अधिक अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं की नीतियों को अपने देश में ज्यादा सहनीय बनाने में कहीं अधिक योगदान दिया है। 

अल ज़जीरा ने पिछले वर्ष 13 जनवरी 2023 को बांग्लादेश में गार्मेंट सेक्टर से जुड़े लाखों श्रमिकों और बड़े अंतर्राष्ट्रीय फैशन ब्रांड के बारे में जानकारी देते हुए बताया था कि एक अध्ययन के अनुसार, ज़ारा, एचएंडएम और जीएपी सहित प्रमुख अंतरराष्ट्रीय फैशन ब्रांड, बांग्लादेश के परिधान उद्योग के श्रमिकों का जमकर शोषण कर रहे हैं, जिनमें से कुछ अनुचित व्यवहार में शामिल हैं और आपूर्तिकर्ताओं को उत्पादन लागत से कम भुगतान कर रहे हैं।

कोविड महामारी के दौरान वैश्विक ब्रांडों और खुदरा विक्रेताओं के लिए परिधान बनाने वाली 1,000 बांग्लादेशी फैक्ट्रियों का सर्वेक्षण करने वाले अध्ययन में पाया गया कि वैश्विक महामारी और बढ़ती लागत के बावजूद पुराने अनुबंध के मुताबिक ही भुगतान किया गया।

‘एबरडीन यूनिवर्सिटी’ और ‘एडवोकेसी ग्रुप ट्रांसफॉर्म’ ट्रेड द्वारा प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, आधे से ज़्यादा गारमेंट कारखानों में ऑर्डर रद्द करना, भुगतान करने से इनकार करना, मूल्य में कमी या माल के लिए भुगतान में देरी की बात सामने आई है। अध्ययन में पाया गया कि “इस तरह की अनुचित व्यापार प्रथाओं ने आपूर्तिकर्ताओं के रोजगार प्रथाओं को प्रभावित किया, जिसका परिणाम स्टाफ टर्नओवर, नौकरियों के नुकसान और कम वेतन में देखने को मिला।”

अध्ययन में नामित 1,138 ब्रांडों/खुदरा विक्रेताओं में से 37 प्रतिशत को अनुचित प्रथाओं में लिप्त पाया गया, जिनमें ज़ारा के इंडीटेक्स, एचएंडएम, लिडल, जीएपी, न्यू यॉर्कर, प्रिमार्क, नेक्स्ट और अन्य शामिल हैं। अध्ययन में यह भी पाया गया कि मार्च और अप्रैल 2020 के लॉकडाउन के बाद फिर से खुलने के बाद से पांच में से एक कारखाने को कानूनी न्यूनतम वेतन का भुगतान करने के लिए संघर्ष करना पड़ा।

बांग्लादेश के सबसे बड़े श्रमिक संघों में से एक, ‘सोम्मिलितो गारमेंट्स श्रमिक फेडरेशन’ की अध्यक्ष नज़मा अख्तर के अनुसार, “गारमेंट मजदूरों को अभी भी सस्ते श्रम के रूप में माना जाता है, विशेष रूप से महिला श्रमिकों को। आपूर्तिकर्ता लागत कम रखकर बड़े ब्रांड को खुश रखने की कोशिश कर रहे हैं।

हमारे कर्मचारियों की कोई नहीं सुन रहा है, अगर वे अपनी आवाज़ उठाना चाहते हैं या विरोध करना चाहते हैं, तो उन्हें ब्लैकलिस्ट कर दिया जाता है। पहले अंग्रेज दक्षिण एशिया में उपनिवेशवादी थे और आज भी उन्होंने व्यापार के माध्यम से [हमें] अपना उपनिवेश बना रखा है।”

चीन के बाद दुनिया में बांग्लादेश आज के दिन वस्त्र निर्माण में सबसे बड़ा देश बनकर उभरा है। अमेरिकी और यूरोपीय रिटेल ब्रांड्स जो दो दशक पहले तक भारत में जॉब वर्क कराते थे। उनमें से अधिकांश बांग्लादेश में देखे जा सकते हैं। करीब 40 लाख वस्त्र मजदूर बांग्लादेश में काम करते हैं, जिसमें बहुतायत संख्या महिलाओं की है।

इनका वेतन चीन के श्रमिक की तुलना में एक दशक पहले ही 5-7 गुना कम था। पिछले वर्ष श्रमिकों के देशव्यापी आंदोलन चले, जिसमें लाखों की संख्या में श्रमिकों के प्रदर्शन हुए थे, क्योंकि पिछले 5 वर्ष से वेतन में बढ़ोत्तरी नहीं हुई थी, जबकि मुद्रास्फीति 9-12% वार्षिक बनी हुई थी। 

संक्षेप में बांग्लादेश की कहानी कुछ इस प्रकार से है: नव उदारवादी अर्थनीति की राह पर निकल पड़े बांग्लादेश के लिए विश्व बैंक के ऋण और निजी पूंजी की अंतर्राष्ट्रीय रिटेल ब्रांड के साथ सांठ-गांठ ने कुछ समय के लिए इस देश की अर्थव्यवस्था को जगमग करने का काम किया। नए रोजगार का सृजन हुआ, लेकिन कई गुना मुनाफा कमाने वाली रिटेल और फैशन ब्रांड्स की अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों के लिए बांग्लादेश सबसे सस्ते श्रम बाजार से अधिक हैसियत नहीं रखता था।

इधर बड़े शहरों में जनसंख्या का दबाव लाखों की संख्या में श्रमिकों को महंगे किराये के मकान, महंगी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा की कीमत बनाम कोविड-19 महामारी के बाद भारी मुद्रास्फीति, मंदी और वेतन में वृद्धि न होना पूरी अर्थव्यवस्था को पटरी से उतार रहा था। प्रवासी बांग्लादेशी करीब 20 अरब डॉलर प्रति वर्ष रेमिटेंस के तौर पर भेजते हैं, जो वहां की अर्थव्यवस्था के लिए संजीवनी का काम करता है।

इस पूरे मकड़जाल में सत्तारूढ़ पार्टी के हित भी इसी व्यवस्था को जारी रखने के साथ जुड़ जाते हैं। अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड्स के लिए जॉब वर्क करने वाले चुनिंदा फैक्ट्री मालिक, रियल एस्टेट, ठेकेदार, होटल व्यवसाय के हाथों में देश की असल ताकत निहित होती है, और यही लोग शासन भी संभालते हैं।

नव उदारवादी अर्थव्यवस्था में जन-साधारण भी उन आदतों को अपना चुका होता है, जो मूल रूप से बड़ी पूंजी और विदेशी पूंजी के हितों की पूर्ति का साधन बन जाते हैं, और उसमें थोड़ी भी कमी-बेशी मौजूदा सत्तारूढ़ पार्टी के लिए मुसीबत का सबब बन सकती है। 

लेकिन बांग्लादेश में तो शेख हसीना ने दो कदम आगे बढ़कर लोकतंत्र को ही लगभग हस्तगत कर लिया था। आम चुनावों में इकतरफा अपनी जीत और तानाशाही नीतियों से वह अपने पिता के आदर्शों के ठीक उलट कैसे काम करने के लिए विवश या खुद के भीतर तब्दीली ले आईं, इसके पीछे नव-उदारवादी अर्थनीति का हाथ कहीं से भी कम नहीं है, जो अच्छे से अच्छे व्यक्तित्वों को अपने मकड़जाल में पूरी तरह से फांस लेता है।

उदाहरण के लिए, भारत को ही ले लीजिये। पिछले 24 वर्षों से देश में राष्ट्रीय राजमार्ग के नाम पर अब तक कितने लाख करोड़ रूपये हर वर्ष बजट से पानी की तरह बहाया जा रहा है। क्या देश ने कभी इसके बारे में एक बार भी गहराई से सवाल उठाये हैं? इन्फ्रास्ट्रक्चर में विकास को चीन और अमेरिका बनने की राह में मील का पत्थर बताया जाता है, जबकि असल सवाल मैन्युफैक्चरिंग का है।

छोटे और मझोले उद्योग धंधों, कृषि आधारित उद्योगों के माध्यम से करोड़ों-करोड़ नए रोजगार सृजन का सवाल है। घरेलू खपत और बचत में वृद्धि के माध्यम से देश में दसियों करोड़ रोजगार और लाखों उद्योग धंधों की जरूरत को पैदा किया जा सकता है। लेकिन हम या तो हाईवे बना रहे हैं, जिस पर टोल टैक्स लगाकर आवागमन और वस्तुओं के दाम में वृद्धि की जा रही है।

इनसे बड़े पूंजीपतियों, ठेकेदारों और अंतर्राष्ट्रीय स्तर की टूल्स और मशीनरी के बड़े पैमाने पर आयात का मार्ग ही प्रशस्त किया जा रहा है। इसमें न तो रोजगार सृजन हो पा रहा है, और न ही इतने बड़े पूंजीगत व्यय से कोई उद्योग धंधे ही खोले जा रहे हैं। ऊपर से बजट घाटे को पूरा करने के लिए सरकार हर वर्ष कर्ज पर कर्ज ले रही है। और बजट में ऋण पर ब्याज का हिस्सा लगातार बढ़ता जा रहा है। 

ये रेडीमेड रेसेपी विश्व बैंक और आईएमएफ जैसी संस्थाओं के द्वारा मुहैया कराया गया है। जिसकी कमान अमेरिका और जी-7 देशों के हाथ में है। इसलिए जो श्रीलंका और बांग्लादेश में हुआ। वह देर-सबेर हर उस देश में होने जा रहा है, जहां पर सरकारें इन एजेंसियों के डिक्टेट और देशी क्रोनी पूंजी के मुताबिक देश को चलाए जा रही हैं।

भारत के संदर्भ में भी कहा जा सकता है कि जिस नव-उदारवादी अर्थनीति को नारसिम्हाराव की सरकार 90 के दशक में लाई थी। उसने 2012 तक आते-आते दम तोड़ दिया था। लेकिन 12 वर्ष गुजर जाने के बाद भी हम उसी अर्थनीति पर न केवल आगे बढ़ रहे हैं, बल्कि महामारी के साथ ही हम जिस K-shape इकॉनमी में प्रविष्ठ हो चुके हैं, उससे बाहर निकलने के लिए किसी भी राजनीतिक दल के पास कोई विजन नहीं है।

आगे सिर्फ अंधेरा है, और ऐसे सभी देश, बांग्लादेश होने का इंतजार करते रहने के लिए अभिशप्त हैं।

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