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आधारभूत सवाल : क्या भगवान विरोधी है विज्ञान?

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        डॉ. विकास मानव 

भगवान विरोधी नहीं है विज्ञान 

   नास्तिकवाद कहता है :

 “इस संसार में ईश्वर नाम की कोई वस्तु नहीं, क्योंकि उसका अस्तित्व प्रत्यक्ष उपकरणों से सिद्ध नहीं होता।” अनीश्वरवादियों की मान्यता है कि जो कुछ प्रत्यक्ष है, जो कुछ विज्ञानसम्मत है, केवल वही सत्य है। चूँकि वैज्ञानिक आधार पर ईश्वर की सत्ता का प्रमाण नहीं मिलता, इसलिए उसे क्यों मानें ?”

    इस प्रतिपादन पर विचार करते हुए हमें यह सोचना होगा कि अब तक जितना वैज्ञानिक विकास हुआ है, क्या वह पूर्ण है? क्या उसने सृष्टि के समस्त रहस्यों का पता लगा लिया है? यदि विज्ञान को पूर्णता प्राप्त हो गई होती, तो शोध-कार्यों में दिन-रात माथापच्ची करने की वैज्ञानिकों को क्या आवश्यकता रह गई होती ?

    सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक रिचर्ड्सन ने लिखा है :

“विश्व की अगणित समस्याएँ तथा मानव की मानसिक प्रक्रियाएँ वैज्ञानिक साधनों, गणित तथा यंत्रों के आधार पर हल नहीं होतीं। भौतिक विज्ञान से बाहर भी एक अत्यंत विशाल दुरूह अज्ञात क्षेत्र रह जाता है, जिसे खोजने के लिए कोई दूसरा साधन प्रयुक्त करना पड़ेगा। भले ही उसे अध्यात्म कहा जाए या कुछ और।”

    वैज्ञानिक मैकब्राइट का कथन है :

“इस विश्व के परोक्ष में किसी ऐसी सत्ता के होने की पूरी संभावना है, जो ज्ञान और इच्छायुक्त हो। विज्ञान की इस वर्तमान मान्यता को बदलने के लिए हमें जल्दी ही बाध्य होना पड़ेगा कि विश्व की गतिविधि अनियंत्रित और अनिश्चित रूप से स्वयमेव चल रही है।”

    विज्ञानवेत्ता डॉ० मोर्डेल ने लिखा है:

     “विभिन्न धर्म संप्रदायों में ईश्वर का जैसा चित्रण किया गया है, वैसा तो विज्ञान नहीं मानता, पर ऐसी संभावना अवश्य है कि अणुजगत के पीछे कोई चेतनशक्ति काम कर रही है। अणुशक्ति के पीछे उसे चलाने वाली एक प्रेरकशक्ति का अस्तित्व प्रतीत होता है। इस संभावना के सत्य सिद्ध होने पर ईश्वर का अस्तित्व भी प्रमाणित हो सकता है।”

    विख्यात विज्ञानी इंगोल्ड कहते हैं :

“जो चेतना इस सृष्टि में काम कर रही है, उसका वास्तविक स्वरूप समझने में अभी हम असमर्थ हैं। इस संबंध में हमारी वर्तमान मान्यताएँ अधूरी, अप्रामाणिक और असंतोषजनक हैं। अचेतन अणुओं के अमुक प्रकार के मिश्रण से चेतन प्राणियों में काम करने वाली चेतना उत्पन्न हो जाती है, यह मान्यता संदेहास्पद ही रहेगी।”

    जॉन स्टुअर्ट मिल का यह कथन सचाई के बहुत निकट है कि विश्व की रचना में प्रयुक्त हुई नियमबद्धता और बुद्धिमत्ता को देखते हुए ईश्वर की सत्ता स्वीकार की जा सकती है। कांट, मिल, हेल्स, होल्ट्ज, लांग, हक्सले, काम्टे आदि वैज्ञानिकों ने ईश्वर की असिद्धि के बारे में जो कुछ लिखा है, वह अब बहुत पुराना हो गया। उनकी वे युक्तियाँ, जिनके आधार पर ईश्वर का खंडन किया जाया करता था, अब असामयिक होती जाती हैं।

      डॉ० फिंल्ट ने अपनी पुस्तक ‘थीइज्म’ में इन युक्तियों का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही खंडन करके रख दिया है।

    भौतिक विज्ञान का विकास आज आशाजनक मात्रा में हो चुका है। यदि विज्ञान की यह मान्यता सत्य होती कि अमुक प्रकार के अणुओं के अमुक मात्रा में मिलने से चेतना उत्पन्न होती है, तो उसे प्रयोगशालाओं में प्रमाणित किया गया होता। कोई कृत्रिम चेतन प्राणी अवश्य पैदा कर लिया गया होता अथवा मृतशरीरों को जीवित कर लिया गया होता। 

     यदि वस्तुतः अणुओं के सम्मिश्रण पर ही चेतना का आधार रहा होता, तो मृत्यु पर नियंत्रण करना मनुष्य के वश से बाहर की बात न होती। 

     शरीरों में अमुक प्रकार के अणुओं का प्रवेश कर देना तो विज्ञान के लिए कोई बड़ी बात नहीं है। यदि नया शरीर न भी बन सके, तो जीवित शरीरों को मरने से बचा सकना तो अणु विशेषज्ञों के लिए सरल होना ही चाहिए था।

    विज्ञान का क्रमिक विकास हो रहा है। उसे अपनी मान्यताओं को समय-समय पर बदलना पड़ता है। कुछ दिन पहले तक वैज्ञानिक लोग पृथ्वी की आयु केवल ७ लाख वर्ष मानते थे और भारतीय ज्योतिर्विदों की उस उक्ति का उपहास उड़ाते थे, जिसके अनुसार पृथ्वी की आयु १ अरब ६७करोड़ वर्ष मानी गई है। 

     अब रेडियम धातु तथा यूरेनियम नामक पदार्थ के आधार पर जो शोध हई है, उससे पृथ्वी की आयु लगभग २ अरब वर्ष सिद्ध हो रही है और वैज्ञानिकों को अपनी पूर्व मान्यताओं को बदलना पड़ रहा है।               

    विज्ञान ने सृष्टि के कुछ क्रिया-कलापों का पता लगाया है। क्या हो रहा है, इसकी कुछ जानकारी उन्हें मिली है पर कैसे हो रहा है? क्यों हो रहा है? यह रहस्य अभी भी अज्ञात बना हुआ है। प्रकृति के कुछ परमाणुओं के मिलने से  प्रोटोप्लाज्म – जीवन तत्त्व बनता ही है, पर इस बनने के पीछे कौन से नियम काम करते हैं, इसका पता नहीं चल पा रहा है।

      इस असमर्थता की खोज को यह कहकर आँखों से ओझल नहीं किया जा सकता कि इस संसार में चेतन सत्ता कुछ नहीं है। 

    जॉर्ज डार्विन ने कहा है, “जीवन की पहेली आज भी उतनी ही रहस्यमय है, जितनी पहले कभी थी।” 

    प्रोफेसर जे० ए० टॉमसन ने लिखा है, “हमें यह नहीं मालूम कि मनुष्य कहाँ से आया ? कैसे आया ? क्यों आया ? इसके प्रमाण हमें उपलब्ध नहीं होते और न यह आशा ही है कि विज्ञान इस संबंध में किसी निश्चयात्मक परिणाम पर पहुँच सकेगा।”

    ‘ऑन दि नेचर, ऑफ दि फिजीकल वर्ल्ड’ नामक ग्रंथ में वैज्ञानिक एडिंग्टन ने लिखा है, “हम इस भौतिक जगत से परे की किसी सत्ता के बारे में ठीक तरह कुछ जान नहीं पाए हैं, पर इतना अवश्य है कि इस जगत से बाहर भी कोई अज्ञात सत्ता कुछ रहस्यमय कार्य करती रहती है।”

    निस्संदेह जितना जाना जा सका है, उससे असंख्य गुना रहस्य अभी छिपा पड़ा है। उसी रहस्य में एक ईश्वर की सत्ता भी है। नवीनतम वैज्ञानिक शोधें उसकी संभावना स्वीकार करती हैं। वह दिन भी दूर नहीं, जब उन्हें उस रहस्य के उद्घाटन का अवसर भी मिलेगा। 

     अध्यात्म भी विज्ञान का ही अंग है और उसके आधार पर आत्मा-परमात्मा तथा अन्य अनेक अज्ञात शक्तियों का ज्ञान प्राप्त कर सकना भी संभव होगा।

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