डॉ. विकास मानव
_सदाबहार प्रश्न है की क्या सृष्टि की रचना के पीछे कोई प्रयोजन है? अथवा यह किसी मशीन की तरह बिना किसी उद्देश्य के अपने आप चलती रहती है?_
उत्तर अनेक प्रकार से आए और अधिकांश मित्रों ने बताया कि यह क्रम स्वस्फूर्त निरंतर चलता रहता है। हम इस यन्त्रवाद के विपक्ष मे निम्न मत का समर्थन करते हुए प्रयोजन मत के पक्ष मे निम्नानुसार तथ्य रख रहे है :
१-
जब हम अपने चारो ओर की प्रकृति पर नजर डालते हैं तो इसमे एक सामञ्जस्य दिखाई देता है। जैसे मनुष्य आक्सीजन लेता है और कार्बनडाईक्साइड छोड़ता है जबकि इसके ठीक विपरीत पेड़ पौधे कार्बन डाइआक्साइड लेते हैं और आक्सीजन छोड़ते हैं।
जीव जगत और वनस्पति जगत का यह सुन्दर सामञ्जय हमे विवश करता है कि हम इस सत्यं शिवं सुन्दरम् की कल्पना पर विश्वास करें।
२-
परमात्मा की अध्यक्षता मे (मयाध्यक्षेन् प्रकृति सूयते सचराचरम्।गीता/९/१०) प्रकृति एक ऐसा अद्भुत साम्य बनाती है कि जंगल मे रहनेवाले शेर की त्वचा पर ऐसी धारियाँ बना रखी है जैसे पेड़ों से छन-छन कर धूप आ रही हो और उसका बध नही हो पाता यानी वह अपने को सुरक्षित महसूस करता है।
बर्फीले प्रदेशों मे पाया जानेवाला भालू सफेद रंग का होता है, रेगिस्तानों मे ऊँट को बहुत दिनतक पानी की जरुरत नही होती।
प्रश्न यह उठता है कि जीव और प्रकृति का यह सामञ्जस्य यन्त्रवत है या इसका कोई प्रयोजन है? हमे हमारा संवेदी सूचकांक यह बताता है कि इस भौतिक समायोजन ने जीवन को अधिक सुरक्षित और आसान बनाया है. इसलिए सृष्टि के निर्माण मे प्रयोजन स्पष्ट देखने को मिल रहा है तो इसे इंकार कैसे कर सकते हैं।
३-
यदि यह मान लिया जाय कि सृष्टि की उत्पत्ति यन्त्रवत होती है तो विकास के क्रम का खंडन होता है। जबकि भारतीय दर्शन इसका पक्षधर है कि, एतदात्मानःआकाशः सम्भूतः। आकाशाद्वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अदभ्यः पृथिवीः इत्यादि।(ब्रह्मानन्दवल्ली/२/१).
तो यह श्रुति भी एक विकासवादी क्रम की निरन्तरता मे प्रत्येक नया स्तर पिछले स्तर से अधिक जटिल और परिष्कृत है इसका समर्थन करती है। यानी जड़ से चेतन और चेतन मे भी बौद्धिक चेतन अर्थात् Homosapiens के आगे एक और अधिक जटिल लेकिन पूर्व स्तर से अधिक परिष्कृत यान्त्रिक मानव की दस्तक हो चुकी है।
यही सृष्टि का प्रयोजन है और यह प्रयोजन विकासक्रम से स्वतः प्रमाणित सिद्ध हो रहा है।
४-
भौतिक दृष्टि से वैज्ञानिकों का यह दावा है कि जीवों के जन्म के पूर्व सृष्टि क्रमशः ऐसे विकासोन्मुखी देखी जाती है जिससे कि यह जीव के रहने के योग्य बन जाए।
अध्यात्म जगत् मे हम जिस परिकल्पना का विचार करते हैं किः-
तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तत्तेजोsसृजत.
(छा०/६/२/३)
यानी उस सत् ने बहुत होने की इच्छा से सर्वप्रथम तेज को बनाया। पाश्चात्य दर्शन कहता है कि हमारा भूमण्डल पहले एक आग का गोला था, इस गर्म तपती आग के गोले मे जीवन का अस्तित्व संभव हो नही सकता है तो कयी वर्षों तक वर्षा होने से जब यह भूमण्डल अनेक स्थानों पर सिकुड़ गया तो हमारी पृथिवी अस्तित्व मे आई।
कही विशाल गड्ढ़े किसी ऊँचे पर्वत कही समतल क्षेत्र तो अब पानी नीचे की ओर जाने से बड़ी-बड़ी नदियाँ और इस जल के ठहर जाने से महासागर बन गये।
अध्यात्म का यह मत है :
ता आप ऐक्षन्त बह्वयः.
छा०/६/२/४)
यानी प्रकृति जो यहाँ जलवाची है इच्छा करती है कि हम जल बनकर बरसें। क्यों बरसें कि यहाँ जीवजगत का सृजन करना है।
तार्किक दृष्टि से चिन्तन करने पर समझ मे आता है कि न यहाँ न कोई जल ईक्षण करता न तेज। क्योंकि जड़ पदार्थों मे ईक्षणशक्ति नही होती, इसलिए यहाँ लक्षणा है जिससे यह ज्ञान हुआ कि सृष्टि का निर्माण कैसे और क्यों हुआ।
यही प्रयोजन है जिसे प्राचीन और आधुनिक विज्ञान एक होकर मनुष्य की ज्ञान-पीपासा को शांत करने के प्रयास मे है।
५-
जल के लाखों वर्षों तक बरसते रहने से पृथिवी पर सर्वप्रक्षम ऊद्भिज जीवों की उत्त्पत्ति हुई.
ऐसे अध्ययनों से पता चला है कि उद्भिज्ज यानी धरती को फाड़कर अपने आप पैदा होने की प्रक्रिया (छा०/६/३/१) से पेड़-पौधे पैदा हुए. उनमे आण्डज (छा० तथैव) यानी सूक्ष्म अण्डे से जीव पैदा होने लगे, क्योंकि अब उनके अस्तित्व रक्षा के लिए भोजन और पानी की व्यवस्था हो चुकी थी। यही सृष्टि के पैदा होने का प्रयोजन
है।
६-
पृथिवी के वाह्य सतह पर एक ओर जीवों का शनैः-शनैः विकास हो रहा था तो गर्भ मे एक प्रतिक्रिया हो रही थी।
वहाँ चट्टानों का विकास हो रहा था. मृतिका जो अविनाशी बीज था, वहाँ अंदर ही अंदर कोयला, हीरा, सोना, अभ्रक, ताबाँ, चाँदी आदि बना रहा था, क्योंकि आगे चलकर मनुष्य को इनकी भी आवश्यकता पड़ेगी.
यह उस सत् (तेज)_(विज्ञाता) को पहले से ज्ञात था कि मनुष्य को औषधियो की भी आवश्यकता होगी, सो इस विकास के क्रम मे :
(तैत्तीरियोपनिषद्/२/१) अद्भ्यः पृथिवी। पृथिव्या ओषधयः। ओषधीभ्योsन्नम्। अन्नात्पुरुषः
अर्थात् जल से पृथिवी, पृथिवी पर ओषधि (वृक्षलतादि) ओषधि से अन्न (अन्न से आशय यहाँ आहार है) और अन्न से मनुष्य बना।
क्या यह प्रयोजन नही है और पाश्चात्य जगत् ने ऐसा क्या नया खोज लिया जो हमारे पास नही था।
लेकिन उन्होने एक Systematic व्याख्या शुरू किया और हमे मंदिर बनाने और राम-राम जपने मे लगा दिया।
आज अध्यात्म का विषय हमारे लिए उपेक्षित क्योंकि हम आ गये पुराणों की कल्पित कथा की दुनिया मे, और दुनिया अंतरिक्ष मे रूसी शिमला मिर्च पैदा कर रही है,कल बस्तियाँ बसेंगी, खेती होगी और हमारी पीढ़ीयाँ हमपर थूकेंगी।
अन्नाद्भवति भूतानां
इसमे सभी जीव सम्मिलित है. इसलिए जीवजगत् मे सृष्टि का प्रयोजन इससे भी प्रमाणित होता है कि प्रकृति अधिक से अधिक योग्य के आविर्भाव करती प्रतीत हो रही है, और प्राकृतिक चुनाव इसको सिद्ध कर रहा है।
जैसे डायनासोर, मैमथ आदि जीव पैदा हुए और अपने शारीरिक विशालता के कारण प्राकृतिक आपदा मे अपनी रक्षा करने मे असमर्थ होकर विलुप्त हो गये।
परिवेश से अनुकूलन नही कर पाने के कारण आज भी सबसे पहले निर्बल प्राणी मरते हैं। प्रमाण है कोरोना, कयी लोग लावारिश स्थिति मे मृत पाए गये, कयियों को इलाज नही मिला, अनेकों को हास्पीटल मे बेड नही मिले।
हमारे जिले मे अब तक (३ माह के अंदर) As was than बत्तीस पण्डो (सबसे पिछड़ी जन-जाति) इलाज और पोषण के अभाव मे मर गये।
विश्व मे जितने मे लोग प्राकृतिक आपदा से मर रहे हैं. जिवित रहने की असमर्थता के कारण मर रहे हैं। यहाँ प्रकृति पहले के अपरिष्कृत से अब अधिक परिष्कृत का चयन कर रही है, इसलिए हमारे मत से सृष्टि यंत्रवत् नही प्रयोज्य है।
७-
जीव-जगत् मे समूहों मे परस्पर संघर्ष, प्रतियोगिता, सहयोग, समायोजन आदि ऐसी अनेकों अंतर्क्रियाएं देखी जाती है, जिनसे परस्पर संबंध जन्म लेते हैं।
संबंधों मे चाहे संगठनकारी अथवा विघटनकारी अंतर्क्रियाएं होती हों, फिर भी दोनों मे परस्पर पूरक संबंध देखने से ही प्रमाणित हो जाता है।
उदाहरण के लिए घृणा और प्रेम, मित्रता और बैर, द्वेष और सहानुभूति आदि परस्पर विरोधी भावनाऐं,,एक दुसरे के विरोध के कारण अधिक तीव्र होती जाती हैं।
तो इसका कारण क्या है कि यदि घृणा न हो तो प्रेम का कोई महत्व ही नही है। शत्रुता है इसलिए मित्रता आवश्यक है, संघर्ष है इसलिए सहयोग चाहिए।
पति-पत्नि, माता पिता और सन्तान, गुरु-शिष्य, राजा-प्रजा, स्त्री-पुरुष इत्यादि सभी संबंध एक दुसरे के पूरक हैं. इसी परस्पर पूरकता मे ही मानव स्तर पर एक प्रयोजन सिद्ध होता है।
हो सकता है यह सब परस्पर पूरक सुंदर विज्ञान यूँ ही बन गया है और हो सकता है कि इस परस्पर पूरकता मे मानव स्तर पर सृष्टि का एक प्रयोजन हो। किन्तु पहले वाले विकल्प से दूसरावाला विकल्प अधिक Satisfactory प्रतीत होता है।
इस स्तर पर आकर जाने क्यों अनायास ही एक आस्था का जन्म हो जाता है और स्वस्फूर्तवादी विचार खंडित होने लगते हैं।
[चेतना विकास मिशन)
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