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*आधारभूत चिंतन : यत्र तत्र सर्वत्र श्री’माँ’*

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      ~डॉ. नीलम ज्योति 

भारतीय इतिहास में मौर्योत्तर शुंगकाल भक्तिमय धार्मिक आंदोलन का समय था जैसे छठी सदी ई0पू0 के समय को तार्किक धार्मिक आंदोलन का काल माना जाता है, जब महावीर जैन और बुद्ध सहित अनेक सुधारवादी, प्रक्रियावादी और युग-प्रवर्तकों का जन्म हुआ था।

     तब नये धर्मों/सम्प्रदायों की स्थापना हुई थी और मानव जीवन की मान्यताओं का एक बार फिर मूल्यांकन करने का प्रबल प्रयास किया गया था। इस समय के धार्मिक आंदोलन की मुख्य विशेषता थी तार्किकता और नवीन धर्म-दर्शन जिसमें मूर्ति-पूजा का विधान शामिल नहीं था लेकिन मौर्योत्तर शुंगकाल में लगभग दूसरी सदी ई0पू0 हम देखते हैं कि सभी भारतीय धर्मों/सम्प्रदायों ने अपना अलग रूप परिवर्तन किया, जिसमें भक्ति-भावना और मूर्ति-पूजा का विशेष स्थान था। 

इस समय कला के क्षेत्र में देश के अनेक जगहों पर पाषाण-शिल्प और स्थापत्य का व्यापक प्रचार हुआ। स्तूप, तोरण, वेदिका, देव-वाटिका और मूर्तियों की रचना के लिए पत्थर का प्रयोग अब अधिकतर स्थानों में होने लगा।

     इस काल के पहले पुरातत्व से जो मूर्तियाँ हमें मिली हैं वो सभी लोक परम्परा के यक्ष-यक्षिणियों और मातृदेवियों के हैं जो टेराकोटा और पत्थरों से निर्मित हैं। लोकपरंपरा के इन महाकाय यक्ष-यक्षियों की मूर्तियां मथुरा,उड़ीसा, वाराणसी, विदिशा और पाटलिपुत्र(पटना) से प्राप्त हुई हैं। इन मूर्तियों में सबसे प्रसिद्ध है मथुरा में मिला परखम गाँव का यक्ष मूर्ति। 

       मौर्योत्तर शुंगकालीन मूर्तियाँ विशेष रूप से स्तूपों के तोरण वेदिकाओं पर उकेरी गयीं हैं जिसमें पुरुष देवताओं के साथ महिला देवताओं की बही मूर्तियां हैं(गौरतलब है कि अबतक बौद्ध धर्म मे बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण प्रारंभ नहीं हुआ था, बुद्ध की पूजा फिलहाल उनके प्रतीकों से हो रही थी)।

      इन देवी मूर्तियों की अधिकता तोरण स्तम्भों पर देखने को मिलता है जहाँ ये नाम सहित उकेरी गई हैं। इनमें सबसे प्रमुख स्थान सिरिमा(सँस्कृत में श्री माँ) का है। सिरिमा लोक परम्परा की प्राचीनतम देवी हैं। इनके मूर्ति-अंकन की विशेषता है कि ये स्तब्ध खड़ी हुई मुद्रा में हैं जिसमें इनके दोनों पैर कुछ बाहर की ओर निकले हुए एकदम बराबर स्थिर स्थिति में हैं।

       इसके पूर्व लौरियानंदन गढ़ से मिली सुनहले पत्तर पर ठप्पेदार मातृदेवी की मूर्ति में भी ठीक यही पहचान देखने को मिलती है,और भी अनेक टेराकोटा की मूर्तियों में यही लक्षण मौजूद हैं। इसलिए यह साबित होता है कि यही प्राचीन मातृका देवी हैं जिनका साक्ष्य पाषाण काल से ही मिलना शुरू हो जाता है।

मातृका शब्द जैसा ही अर्थ मईया, माई और माँ का है। शुंगकालीन भरहुत में इस देवी का स्वरूप विकसित होते हुए इन्हें कमल के फूलों पर खड़ी मुद्रा में या कमल-वन में बैठी हुई एक सुंदर मूर्ति के रूप में दिखाया जाने लगा,जिसको दो हाथी आकृष्ट घड़ों से स्नान करा रहें हैं।

    यही जलाभिषेक वाली देवी “गजलक्ष्मी” के रूप में प्रसिद्ध हैं।

सिरिमा देवी प्राचीन “मह”लोक परम्परा(यक्षमह और नागमह जैसे) के श्रीमह सूची से हैं। इन्हें ही श्रीदेवी या श्रीलक्ष्मी के रूप में उल्लेखित किया गया है जिनकी प्रशंसा में ऋग्वेद का श्रीसूक्त है(ऋग्वेद का खिल भाग जो थोड़ा बाद में जुड़ा)।

     इनके पूजा की निरंतरता अब भी बनी हुई है और विशेषकर दीपावली के शुभ अवसर पर इनकी पूजा श्रीशक्ति के रूप में समृद्धि, सौभाग्य और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी के रूप में होता है जिसमें दीपोत्सव का महत्वपूर्ण स्थान है।

साहित्य में श्रीदेवी या श्रीलक्ष्मी को पहली बार यजुर्वेद में नारायण पुरूष की पत्नियों के रूप में बताया गया है, इन नारायण देवता का सम्मिलन बाद में विष्णु के साथ किया गया। इनका सम्बंध केवल ब्राह्मण हिन्दू धर्म से ही नहीं है बल्कि जैन और बौद्ध धर्म में भी इनकी मान्यता है। जलाभिषेक लक्ष्मी का अंकन सर्वप्रथम बौद्ध स्तूपों के तोरणों पर दिखने को मिलता है जहाँ पर अन्य लोक परम्परा के देवताओं का अंकन किया गया है, इसलिए प्राचीन कला विशेषज्ञ मार्शल ने जलाभिषेक देवी सिरिमा को बुद्ध की माँ माया देवी माना है।

     मौर्योत्तर कालीन भरहुत, साँची,उदयगिरि-खंडगिरि(उड़ीसा),और बोधगया से जलाभिषेक लक्ष्मी की अनेक मूर्तियाँ मिली हैं। इन मूर्तियों में जल और कमल के कारण उनमें मातृत्व का गुण देखा गया है और हाथियों की शोभा संपत्ति का सूचक है।

     पूर्णघट और कमल पद्मकोष या पुष्कर का प्रतीक माना जाता है जिससे सृष्टि का उद्भव हुआ। अतः देवी श्रीलक्ष्मी जगत की जननी मानी गयी हैं, बुद्ध की माँ माया देवी के रूप में भी यही गुण देखा जा सकता है।

अथर्ववेद में इनका उल्लेख पूर्णकुम्भनारी के रूप में हुआ है तो वहीं बौद्ध कला में ये देवी भद्रा के साथ यक्ष कुबेर की पत्नी के रूप में मानी गयी हैं। जैन धर्म में तीर्थंकरों के जन्म के पूर्व उनकी माताओं द्वारा देखे गए शुभ-स्वप्नों की सूची में भी गजलक्ष्मी का उल्लेख किया गया है जिसका वर्णन कल्पसूत्र ग्रन्थ में मिलता है। जैन धर्म के केंद्रों खजुराहो, कुम्भरीया, विमलशाही और लुवणशाही में गजलक्ष्मी की मूर्तियाँ उकेरी गई हैं।

      कमल-पूजा के साथ ही देवी श्रीलक्ष्मी की उपासना वैदिक गर्न्थो में पद्मा, पद्महस्ता, पद्ममालिनी आदि नाम से देखने को मिलती है। श्रीलक्ष्मी इंद्र के नंदन वन की देवता मानी गयी हैं। शुंगकालीन तोरणों पर श्रीलक्ष्मी या अभिषेक लक्ष्मी के रूप में दो हाथी सहित नीचे दो सिंह और मिथुन के साथ उकेरी मिलती हैं।

      एक दूसरे प्रकार में देवी को कमल के फूलों पर खड़ी हुई दिखाया गया है और उनके दोनों ओर उठते हुए कमलों पर दो हाथी देवी का जलाभिषेक करने के मुद्रा में हैं। श्रीलक्ष्मी या गजलक्ष्मी का यह रूप पूरे भारत में और सब धर्मों में प्राचीन समय से मान्य है तथा आज भी इनका यही रूप सर्वप्रसिद्ध है। महाभारत और पुराण इन पद्माश्री देवी के विवरण से भरे पड़े हैं।

     वस्तुतः देखा जाय तो श्रीलक्ष्मी मूल रूप से एक लोक देवी थीं जिनका आत्मसात बाद के प्रभुत्वशाली धर्मों के द्वारा किया गया है। ये लोक देवी सभी धर्मों के गृहस्थ जीवन की अधिष्ठात्री देवी थीं और आज भी वर्तमान हैं। 

इसके बाद मथुरा की शुंग और कुषाणकालीन कला में इनका स्वतंत्र रूप भी देखने को मिलता है जिसमें सबसे प्रसिद्ध है श्रीलक्ष्मी की वह सुंदर खड़ी प्रतिमा जिसमें वे दुग्धधारिणी मुद्रा में बहुत ही आकर्षक रूप से शिल्पांकित हैं। वह अपने एक हाथ से अपने दाहिने स्तन को दबाकर दूध की धारा बहा रही हैं।

     कुषाणकालीन कई मूर्तियों में हारिति और लक्ष्मी को कुबेर की पत्नी के रूप में दिखाया गया है। महत्वपूर्ण है कि इसी कुषाणकाल की मूर्तिकला में पहली बार लक्ष्मी को विष्णु की पत्नी के रूप में दिखाना प्रारंभ हुआ और कहीं-कहीं ये गणेश के साथ युग्म में दिखाई पड़ती हैं जिनका यह स्वरूप आज भी दीपावली-पूजा में प्रसिद्ध है। महाकाव्यों अर्थात रामायण और महाभारत में श्री और लक्ष्मी कहीं-कहीं दो अलग-अलग देवियों के रूप में भी वर्णित हैं लेकिन पुराणों में श्री, लक्ष्मी और विष्णु का तादाम्य पूर्ण रूप से देखने को मिलता है।

      अगर हम मौर्योत्तर काल के सिक्कों को देखें तो वहाँ भी देववृन्द में जलाभिषेक लक्ष्मी देवी के सदृश्य एक देवी का अंकन शक शासक एजिलायसिस के सिक्कों पर देखने को मिलता है,इस प्रकार की मूर्ति का सिक्का एजिलायसिस का मौलिक कृति है जिसने यहीं के परम्परा से ग्रहण किया क्योंकि इसके पहले के शक शासकों या विदेशी सिक्कों पर ऐसी देवी का अंकन नहीं मिलता।

 यह परंपरा कुषाणों से होते हुए महान गुप्त सम्राटों तक उनके सिक्कों पर जा पहुँची और गुप्तकाल में देवी लक्ष्मी राष्ट्रीय देवी के रूप में स्थापित हो गयीं। वैष्णव-भागवत धर्म के विशेष अनुयायी गुप्त शासकों के राजकीय मुहरों और मुद्राओं पर देवी लक्ष्मी कुलदेवी के रूप में विराजमान हो गयीं, वहीं गुप्तकालीन मूर्तियों में देवी का द्विभुजी रूप पद्म के साथ प्रसिद्ध हो गया।

     अब से बहुतायत जगहों से देवी का लक्ष्मी-नारायण रूप और शेषशायी विष्णु के साथ लक्ष्मी का अंकन प्रचुर मात्रा में बनने लगा। गुप्तोत्तर और मध्यकाल में लक्ष्मी की मूर्तियाँ गजलक्ष्मी के रूप व्यापक रूप से बनने लगीं। मथुरा,अहयोल, महाबलीपुरम, एलोरा ,ओसियाँ ,भुवनेश्वर ,खजुराहो और माउंट आबू आदि जगहों से लक्ष्मी मूर्तियाँ उकेरी की गईं हैं जिनमें पर्याप्त क्षेत्रीय विभिन्नता के साथ लाक्षणिक समरूपता देखने को मिलता है।

     गुप्तकालीन कला-परम्परा के ओसियाँ और खजुराहों की मध्यकालीन मूर्तियों में कहीं-कहीं गजलक्ष्मी को सिंहवाहन के साथ दिखाया गया है। ऐसा एक सुंदर उदाहरण खजुराहों के विश्वनाथ मंदिर के जगती पर चतुर्भुजी लक्ष्मी के रूप में अंकित किया गया है। एलोरा के गजलक्ष्मी प्रतिमा में विशेष रूप से दो की जगह चार गजों का अंकन मिलता है जो अपने आप मे विशिष्ट है।

 हर्षकाल के लगभग तीन-चार सौ साल के लम्बे अंतराल के बाद पुनः सोने के सिक्कों का प्रचलन जब त्रिपुरी के कलचुरी शासक गांगेयदेव (1015-1040 ई0) ने प्रारंभ किया तो उसने भी इन सिक्कों के चित्त पट पर पद्मासना चतुर्भुजी लक्ष्मी को ही चुना जिससे देवी लक्ष्मी की लोक प्रसिद्धि और उनके निरन्तरता का आभास मिलता है।

     देवी लक्ष्मी की अपने देश मे इतनी लोकप्रियता थी कि मुसलमान शासक मोहम्मद गोरी ने भी भारत में आक्रमण के दौरान जब अपने सिक्के ढलवाये तो उसने भी मूर्ति के रूप में देवी लक्ष्मी को ही चुना। मोहम्मद गोरी के इस प्रकार के सिक्के देहलीवाल के नाम से जाने गए जो द्विभाषी हैं। (चेतना विकास मिशन)

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