बस्तर (द नक्सल स्टोरी), नाम सुना तो लगा देखना चाहिए, और समीक्षा लिखना चाहिए अच्छी फ़िल्म होगी तो. लेकिन देखने के बाद ऐसा लगा कि गंभीर विषय पर हद से ज्यादा सतही फ़िल्म बनी है. इस फ़िल्म में इतना दुष्प्रचार एक पक्ष के खिलाफ दिखाया गया है कि कोई भी व्यक्ति अगर पहली बार देखेगा तो उसे लगेगा की वाकई माओवादी कितने खतरनाक होते हैं !
फ़िल्म में दिखाया गया है कि एक महिला के पति ने तिरंगा फहरा दिया तो उसे किडनैप करके के ऊपर मुखबिरी का आरोप लगाकर जनताना सरकार द्वारा उसे सजा ए मौत का आदेश दिया गया है. उस जनताना सरकार में मजेदार बात यह है कि फ़िल्म में दिखाया गया है कि जनता से बिना पूछे माओवादियों ने फैसला खुद सुना दिया.
एक पल के लिए मान लेते हैं कि मौत का आदेश दिया जाता है, और उसे कुल्हाड़ी से 36 टुकड़ों में काटकर उसकी पत्नी को कहा जाता है कि एक टोकरी मे रखकर उसके शव को लेकर अपने गांव जाये ताकि लोग डरे. हालांकि 1967 के इस आंदोलन के शुरू होने के बाद तिरंगा फहराने को लेकर किसी की हत्या नहीं हुई है और ना ही किसी ग्रामीण को ऐसे 36 टुकड़ों में काटकर टोकरी में उसकी ही पत्नी से गांव भिजवाया गया (गूगल कर सकते हैं).
दूसरी बात कि सलवा जूडुम जो नक्सलियों के खिलाफ बनाई गयी थी, उसको सरकार द्वारा पूरा समर्थन दिया गया है फ़िल्म में. बांकि सलवा जुडूम की आड़ में सबसे ज्यादा आदिवासियों का उत्पीड़न सबसे अधिक हुआ. बस्तर के कई आईजी पर गंभीर आरोप लग चुके हैं.
तीसरी मजेदार बात, फ़िल्म में दिखाया गया है कि इनका इंटरनेशनल लिंक रहता है और लश्कर ए तैयबा जैसी आतंकी संगठन से इनका सांठ-गांठ दिखाया गया है, जबकि आतंकी किसी को भी जान से मार देते हैं, लेकिन नक्सलवाद ऐसा नही करता. कई बार जवानों को अपहरण के बावजूद भी वो छोड़ देते हैं और नक्सल उन्मूलन अब तक नहीं हुआ, उसका एक वजह यह भी है की वो आदिवासियों के बीच उनकी पकड़ बहुत मजबूत है और उनका दिल जीता है. उन्होंने जो किया सरकार को उनका मुंहतोड़ जवाब देने के लिए आदिवासियों का दिल जितना पड़ेगा.
चौथी मजेदार बात फ़िल्म में कम्युनिज्म की सरकार को यह दिखाया गया है कि यह जहां भी रही हत्या करके ही आगे बढ़ी. फ़िल्म में उदाहरण दिया जा रहा है कि रूस में स्टालिन और चीन में माओ का, लेकिन उस देश का अन्य पक्ष नहीं दिखाया गया है. फिर दिखाया गया है कि ज़ब भी देश में किसी जवान की हत्या होती है तो माओवादी समर्थक दिल्ली यूनिवर्सिटी में खूब जश्न मनाते हैं और बोलते हैं कि और मारेंगे, जो सरासर झूठ है.
यह भी दिखाया गया है कि बनवासी आश्रम जैसे और NGO के लोग अन्दर ही अन्दर माओवादी का समर्थन करते हैं और उनके लिए काम करते हैं. और सबसे महत्वपूर्ण बात इस देश के बुद्धजीवी वर्ग खास तौर पर लेखक, पत्रकार, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, और तमाम लोग माओवादियों का समर्थक हैं, जो उनके हर काम में साथ रहते हैं. साक्ष्य मिटाने के नाम पर करोडों रूपये देते हैं मीडिया जैसे चैनलों को.
नौजवानों को यह दिखाया गया है कि उन्हें बहला फुसलाकर माओवादी अपने साथ ले जाते हैं और उनसे हत्या करवाते हैं. यह दिखाया गया है कि जो बुद्धजीवी वर्ग है, केवल पैसे-फण्ड के लिए काम करता है और अय्याशी खूब करता है. और साथ में जंगलों में रहने वाले बड़े कैडर के नक्सली भी अपनी साथी के साथ अय्याशी करते हैं, और इंटरनेशनल फण्ड इन लोगों को आता है.
फ़िल्म के अंत मे यह दिखाया गया है कि निर्दोष राह चलते आदिवासियों की हत्या करते हैं, घर जलाते है और एक अभी छोटी बच्ची शायद साल भर या 2 साल की बच्ची को आग में झोंक देते हैं. इतना क्रूर और अमानवीय चेहरा दिखाया गया है, जिसे देखकर किसी के भी रोयें खड़े हो जाए.
फ़िल्म में दिखाया गया है कि सलावा जूडुम के संस्थापक कर्मा की हत्या किया जाता है और माओवादी उनके लाश को बहुत बुरी तरह काटते हैं और खुशी में नाचते हैं. मतलब पूरी तरह से एक पक्षीय चीजों को दिखाया गया है. कोई भी व्यक्ति अगर अख़बार या न्यूज़ पढ़ता देखता होगा तो समझ जायेगा कि फ़िल्म में क्या दिखाया गया है. जबकि बस्तर से आये दिन आदिवासियों के खिलाफ फर्जी मुठभेड़, हत्या, बलात्कार, लूटपाट, मारपीट, उत्पीड़न की खबरें आती है लेकिन उस पक्ष को एकदम गायब कर दिया गया है.
फ़िल्म ज़ब ईमानदारी के साथ किसी घटना पर बनती है तो यह चाहिए कि दोनों पक्षों को ईमानदारी के साथ दिखाया जाय. हां दोनों पक्ष में गलतियां हो सकती है. नक्सलियों ने हमारे 76 जवानों की हत्याएं की, जो की गलत है, और सुरक्षा बलों ने भी आदिवासियों इलाकों मे आदिवासियों का उत्पीड़न किया है वो भी गलत है. दोनों तरफ के खुनी संघर्ष मे मारे जा रहें आदिवासी भाई.
बस्तर में एक लम्बे समय से चल रहे इस संघर्ष को अब रुकना चाहिए और शांति होनी चाहिए, लेकिन फ़िल्म देखने पर पता चला कि बहुत ही वाहियात, दुष्प्रचार, और पैसा कमाने के उद्देश्य से फ़िल्म बनाई गयी है.