मनीष सिंह
95 साल पहले, सेंट्रल असेम्बली, वही भवन जो हमारा पुराना संसद भवन कहलाने लगा है, वहां भगतसिंह ने बम फेंका था.
फुस्सी बम … याने धमाका हुआ, मगर कोई घायल नहीं हुआ, कोई मरा नहीं. भगतसिंह ने बम किसी को मारने के लिए नहीं बनाया था. उसमें छर्रे नहीं थे, जो विस्फोट के बाद गोली की तरह चारों ओर फैल जाते, शरीरों में घुस जाते, जान ले लेते.
सिर्फ आवाज करने वाला बम था. फिर भी पूरी सावधानी से, खाली बेंचो पर फेंका कि गलती से भी कोई घायल न हो. भगत ने जिस असेम्बली में बम फेंका, उसमे विदेशी नहीं, भारतीय बैठे थे.
आसंदी पर विट्ठलभाई पटेल थे. सरदार पटेल के बड़े भाई. सदस्य भी सारे भारतीय थे. वही लोग, जो इस अशक्त किस्म की संसद में चुनकर आये थे.
कांग्रेस नहीं थी, क्योंकि गांधी ने ऐसी असेम्बली, जिसके पास असल पावर न हो, चुनाव लड़ने से इनकार किया था. मगर, कई कांग्रेसी स्वराज दल बनाकर चुनाव लड़े.
जीते- मोतीलाल नेहरू, चितरंजन दास, विट्ठलभाई, केलकर वगैरह. जिन्ना भी थे, और पंजाब, बंगाल, मद्रास सहित कई जगहों से दीगर भारतीय भी.
तो भगत का बम अगर किसी को आहत करता, तो भारतीय लीडर्स को ही करता.
आज भी जिसने फुस्सी फेंका, वह अपनी बात देश तक पहुंचाना चाहता था. हत्या, मारना, हिंसा उसका उद्देश्य नहीं था. अब सवाल यह है कि उनका यह कृत्य आपको कितना उद्वेलित करता है ??
क्या आपको लगा कि कोई बड़ा ही क्रांतिकारी, अनोखा, हिम्मतवाला, जनता को उत्साह से भर देने वाला काम हुआ है ?? क्या इससे सरकार के इकबाल को कोई हानि हुई ? प्रेरणा मिली आपको ??
अगर आप इनसे जुड़ाव महसूस नहीं करते, इनकी हिमाकत से आपको सहानुभूति महसूस नहीं होती, आपको कुछ बेवकूफों का बेमतलब और मूर्खतापूर्ण कृत्य लगता है…तो भला 95 साल पहले भारत की जनता भगतसिंह द्वारा बम फेंकने की घटना से बहुत प्रेरित हुई होगी ? बड़ा कनेक्ट फील किया होगा ?? क्या वो आंदोलित हो गई होगी ??
सोचिये ! अगर का यह कृत्य मोदी सरकार को उसके आलोच्य नीतियों से डरा या डिगा नहीं सकता तो उस दिन ब्रिटिश सरकार भला इन बम धमाकों से कैसे हिल जाती ?? डर जाती, कांप जाती ??
अक्सर सवाल होता है कि खुदीराम, बिस्मिल, अशफाक के कार्यों का सही मूल्यांकन नहीं हुआ. उन्हें वैसा महत्व नहीं मिला, जैसा मिलना था.
पर जरा सोचिए कि सच में उनके कामों में कितनी डेप्थ थी ?? कुछ अफसरों को मार देना, डकैती डाल देना, बम-वम फेंककर, अंग्रेजी साम्राज्य को कितना डरा दिया गया ?? एब्सॉल्युटली जीरो.
उल्टे, इन्हें मिली सजाओं ने आम नागरिक के दिल मे भय का संचार किया होगा. उनका अन्तस् कमजोर किया होगा. उन्हें लग गया होगा कि ब्रिटिश के विरुद्ध कोई अटेंप्ट, जानलेवा है.
और यहीं गांधी का महत्व है. यहीं चरखे का महत्व है. तकली चलाना, नमक बनाना ऐसा क्राइम नहीं, जरायम नहीं, जुर्म नहीं जिसे करने से आपका अन्तस् कांपे.
नमक बनाकर जेल जाने और बम बंदूक से किसी को मारकर जेल जाने में अंतर है. पहला विकल्प निडर बनाता है, कोंसिक्वेंस का डर नहीं होता.
गांधी ने अपनी तकली से लाखों भारतीयों को निडर बनाकर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध जनसमुद्र खड़ा कर दिया. यही हिम्मत, लोगों को जोड़ना, आपके भीतर का डर हटाना, गांधी की उपलब्धि है. और यही उस दौर में गांधी की ऊंचाई है. उनके आसपास कोई नहीं. आई रीपीट…कोई नहीं.
मौजूदा दौर में भी गांधी ही चाहिए, भगत नहीं. सामूहिक चेतना को जगाने वाला चाहिए, निजी हमले करने वाले नहीं. नक्सल हों, कश्मीरी हों, पंजाबी हों, उत्तर पूर्व के आतंकी कह लें, या क्रांतिकारी… जान लेने वाले हों, या फुस्सी बम फोड़ने वाले, ये 140 करोड़ जनता की सोच को उद्वेलित नहीं कर सकते.
मुझे सदन में कूदने वाले आधुनिक भगत सिंहों की मूर्खता पर दया आती है, पर इनसे कोई सहानुभूति नहीं. व्हाटएवर दे डिड, आई डोंट फील गुड. बट, हाउ डू यू फील ??