अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

भूपेश बघेल और सरकार के कारिंदे की ध्रुवीकरण की आस में छत्तीसगढ़ में हिंदुत्व की होड़

Share

डिग्री प्रसाद चौहान छत्तीसगढ़ के जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वे पीयूसीएल की राज्य इकाई के अध्यक्ष हैं। सूबे में हो रहे चुनाव के मद्देनजर आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के सवालों व राजनीतिक दलों के द्वारा किए जा रहे घोषणाओं आदि के बारे में उन्होंने फारवर्ड प्रेस काे ईमेल के जरिए विस्तार से बताया। पठनीयता के लिहाज से इसमें आंशिक संपादन किया गया है।]

आप पीयूसीएल, छत्तीसगढ़ की राज्य इकाई के अध्यक्ष हैं। आपने कई सामाजिक आंदोलनों का नेतृत्व किया है। आपके हिसाब से वहां के आदिवासियों के कौन-कौन से मुद्दे हैं, जो इस बार निर्णायक साबित होंगे?

देखिए, छत्तीसगढ़ में पेसा कानून और उसके अनुरूप नियम बनाने तथा स्थानीय स्वशासन की मांग को लेकर पूरा आदिवासी समुदाय और सरकार आमने-सामने है। पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों में सन् 2012 के गाइडलाइन के अनुरूप आरक्षण, जिसके तहत स्थानीय आदिवासियों को सरकारी रोजगार और अन्य योजनाओं में प्राथमिकता मिल रहा था, वह भूपेश बघेल के शासन काल में बाधित हुआ है। उत्तर छत्तीसगढ़ में जबरिया विस्थापन और सरकारी तथा निजी परियोजनाओं के स्थापना के लिए आदिवासियों के जमीनों की अवैधानिक लूट और दक्षिण छत्तीसगढ़ में नक्सल के झूठे मामलों के आधार पर आदिवासियों को हजारों की तादाद में नक्सली आरोपित किया जाना और जेलों में निरुद्ध किया जाना आदि प्रमुख मुद्दे हैं।

छत्तीसगढ़ में दलितों के सामने आज क्या प्रश्न हैं?

निश्चित तौर पर हमेशा से आत्मसम्मान और सामाजिक न्याय का मुद्दा दलितों के संघर्ष के केंद्र में रहा है। वर्तमान सरकार में जब पूरा सरकारी अमला राम वन गमन पथ के शिलान्यास कार्यक्रमों तथा यात्राओं में मशगूल था, उस समय छत्तीसगढ़ का दलित इलाका सांप्रदायिकता और जातीय हिंसा के लपटों में जल रहा था। रामायण-मंडली के सरकारी आयोजनों के बहाने सक्ती (हाल तक जांजगीर-चांपा) जिले के पंचायतों में ग्रामीण-सामाजिक व्यवस्था में दलितों को उनकी हैसियत याद दिलाई जा रही थी तथा महासमुंद में दलितों को सार्वजनिक तालाबों में निस्तार होने की मनाही और औकात में रहने के फरमान दीवारों पर लिखे जा रहे थे, धरमपुरा में दलितों के श्रद्धा व आस्था स्थल जैतखाम को चुन-चुन कर आग के हवाले कर दिया गया। पूरे प्रदेश में पौनी पसारी, चर्मशिल्प और नाई पेटी योजना के आड़ में वर्णाश्रम आधारित परंपरागत व जातिगत व्यवसाय के अनुरूप सरकारी योजनाएं थोपी जा रही हैं। राज्य की कांग्रेस सरकार गोठान एवं गोधन न्याय योजना के क्रियान्वयन की आड़ में हाशिए पर जीने को मजबूर भूमिहीन श्रमिकों को उनके काबिज़ भूमि की मालिकी से उन्हें वंचित कर रही है। सदियों से भूमिहीन इन समुदायों को गांव में गोबर इकट्ठे करने के लिए प्रोत्साहित करने के बनिस्बत भूमि सुधार योजनाओं के तहत जमीन आवंटित किया जाना ज्यादा सार्थक हो सकता है।

क्या आपको लगता है कि दलित और आदिवासियों के बीच एकता के सूत्र इस बार के चुनाव में सामने आ सकते हैं? खासकर जिस तरह का मतभेद आरक्षण के सवाल पर उभरा है?

देखिए, छत्तीसगढ़ में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने मिलकर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। हमर राज पार्टी द्वारा जारी उम्मीदवारों की सूची में भी सर्व आदिवासी समाज और दलित समुदायों के परस्पर समन्वय की भावना स्पष्ट दिखलाई पड़ रही है। इसके बावजूद मुझे लगता है कि दोनों समुदायों के भीतर आतंरिक समन्वय और एक व्यापक संवाद प्रक्रिया का अभाव है, जिसका निराकरण दीर्घकालिक रणनीति के लिहाज से दोनों समुदायों के द्वारा किया जाना नितांत आवश्यक है। क्योंकि जब तक औसत समाज को यह आभास नहीं हो जाता है कि दलित-आदिवासी एकता और समन्वय महज़ चुनावी नहीं है, यह कारगर नहीं हो सकता है। 

हां, मुझे स्वीकार करने में कोई गुरेज़ नहीं है कि दलितों के 16 प्रतिशत आरक्षण के पुनः बहाली के मामले में दोनों समुदायों के मध्य आपसी संवादहीनता और सूझ-बूझ की कमी देखने को मिला है।

ओबीसी की राजनीति आज प्रदेश में किस स्थिति में है? क्या आपको लगता है कि भूपेश बघेल की सरकार ओबीसी की उम्मीदों पर खरी उतरी? जातिगत जनगणना का सवाल मुखर होकर आया है। क्या यह मुद्दा ओबीसी को गोलबंद करने में कामयाब हो सकेगा?

छत्तीसगढ़ का ओबीसी अभी रामधुन में लीन है। अधिकतर गांवों में उसकी भूमिका भूपति की है और भू-स्वामी व पुरोहित का गठजोड़ भी सनातनी है। शायद इसीलिए भूपेश बघेल और उनकी सरकार के कारिंदे वोटों के ध्रुवीकरण की आस में हिंदुत्व को लेकर छत्तीसगढ़ में होड़ मचाए हुए हैं। यहां का ओबीसी वर्ग सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार द्वारा चुनाव पूर्व किए गए वायदे के अनुरूप समर्थन मूल्य पर धान खरीदी और प्रति एकड़ उपज मूल्य से मिलने वाली बोनस से संतुष्ट तो है, लेकिन शायद उससे भी ज्यादा संतुष्टि उसे छत्तीसगढ़ में कांग्रेस द्वारा चलाए जा रहे हिंदुत्व के एजेंडे से है। और इसी धुन में यह वर्ग भूल जाता है कि जहां एक तरफ यह सरकार ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का नियम बनाती है और वहीं दूसरी तरफ यही सरकार अपने ही मातहतों से 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण के खिलाफ कोर्ट में 50 से अधिक दायर याचिकाओं पर मौन है।

अभी दूसरे प्रांतों से जाति-जनगणना और ओबीसी जनसंख्या के जो आंकड़े आ रहे हैं और उनको आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी का राष्ट्रीय स्तर पर जो बहस जारी है, और जो ताकतें एक समय मंडल आयोग की सिफारिशों के खिलाफ सड़कों पर थीं, वे भी आज खुद को राजनीतिक स्वार्थ में जाति-जनगणना के पैरोकार बताने में लगे हैं। संभव है कि इस बहस की ताप में छत्तीसगढ़ के ओबीसी वर्ग की तंद्रा टूटेगी और यह समाज भी सामाजिक न्याय से निश्चित रूप से रू-ब-रू हो सकेगा।

छत्तीसगढ़ में धार्मिक अल्पसंख्यकों के मुद्दे, विशेषकर ईसाईयों (जो मूलत: आदिवासी हैं) के सवाल उठते रहते हैं? क्या इस बार के चुनाव में उनके सवालों और चिंताओं को राजनीतिक पार्टियां ध्यान दे रही हैं?

यह अत्यंत ही अजीब परिस्थिति है कि छत्तीसगढ़ में महज़ दो प्रतिशत से भी कम धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाने में लेकर दोनों ही मुख्य राजनीतिक पार्टियां बहुसंख्यक वोटों का ध्रुवीकरण कर अपने पक्ष में साधने के लिए होड़ मचाए हुए हैं। और धरातल पर कानून का शासन परिलक्षित नहीं हो रहा है। आज भी आदिवासी इसाई अल्पसंख्यकों को उनके गांव-बसाहटों से बेदखली, सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार तथा मसीही परिजनों के मृत शवों को दफ़नाने पर पाबंदी और अंतहीन प्रताड़ना का दौर बदस्तूर जारी है। कबीरधाम में ध्वज़ फहराने का विवाद तथा जगदलपुर, बस्तर और लुंड्रा (सरगुजा जिले का एक तहसील) में धार्मिक अल्पसंख्यकों को विशेष लक्ष्य करते हुए उनके सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार के प्रायोजित सामूहिक शपथ की घटनाओं के जरिए धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ दहशतगर्दी फैलाने की घटनाएं हों अथवा बिरेंनपुर में धार्मिक-सांप्रदायिक दंगा पीड़ितों को पुनर्वास-राहत और क्षतिपूर्ति देने में धर्म के आधार पर सरकारी भेदभाव हो, ये सभी मामले न्याय की राह ताक रहे हैं। और ऐसा प्रतीत होता है कि इनकी उम्मीदें लोकतंत्र के इस पर्व में कोसों दूर हैं। 

पेसा कानून के क्रियान्वयन को लेकर राज्य में सवाल उठाए जा रहे हैं। ऐसे ही सवाल पांचवीं अनुसूची के प्रावधानों को लागू करने, वनाधिकार कानून और जमीन अधिग्रहण कानून को लेकर उठाए जा रहे हैं। क्या आपको लगता है कि इस बार के चुनाव में ये मुद्दे प्रभावकारी साबित होंगे?

पेसा कानून को लेकर मैं फिर वही दोहराना चाहूंगा कि छत्तीसगढ़ में राज्य-तंत्र के प्रश्रय में गांव स्वराज्य और जल, जंगल, जमीन तथा पारिस्थितिकी तंत्र बचाने के नारों के सहारे समुदायों के भीतर हिंदू फ़ासिस्ट ताकतों ने अपना पैठ जमा लिया है। पांचवीं अनुसूची/अधिसूचित क्षेत्रों के पारंपरिक ग्रामों में जहां प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन और स्थानीय आदिवासियों का स्वशासन पेसा कानून की मूल भावना है, उसके इतर इसके तहत गैर-हिंदू अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों को विशेष लक्ष्य कर गांवों से खदेड़ दिया जा रहा है।

वर्तमान सरकार छत्तीसगढ़ में वनाधिकार पट्टा देने के मामले में पूरे देश में अव्वल होने का दावा कर रही है। लेकिन आंकड़े बता रहे हैं कि यहां सबसे अधिक वनाधिकार के पट्टे गैर-आदिवासियों को बांटे गए हैं। सरकार की रूचि वैयक्तिक पट्टे की तुलना में सामुदायिक वनाधिकार को मान्यता देने में ज्यादा है। निजी औद्योगिक और खनन परियोजना क्षेत्रों में नियमों को ताक पर रखकर बड़े पैमाने पर वनाधिकार पट्टे निरस्त किए गए हैं। अब तक जितने भी पट्टे जारी किए गए हैं, उससे अधिक तो लोगों के दावों को निरस्त कर दिया गया है।

यहां भूमि अधिग्रहण के नाम पर आदिवासी जमीनों की अवैधानिक लूट मची है। आदिवासी जमीनों की लूट और गैर-आदिवासियों में हस्तांतरण से रोकने और संरक्षण करने के कानून और संहिता वास्तविक धरातल पर निष्प्रभावी हैं। आदिवासी भूमियों को गैर आदिवासियों द्वारा धोखे और छल-कपट से हड़प लिए जाने से संरक्षण करने वाली भू-राजस्व कानून के क्रियान्वयन में भेदभाव साफ़ दिखाई देता है। उत्तर छत्तीसगढ़ में जहां खनन कंपनियों और ताप बिजली घरों के द्वारा हड़प लिए गए आदिवासी जमीनों को संरक्षण व वापस करने की प्रशासनिक जवाबदेही नकारा साबित हो रही है, वहीं इसी कानून का हवाला देकर ईसाई मिशनरियों के गिरिजाघरों के विरुद्ध प्रशासनिक कार्यवाहियों की लंबी सूची है। 

वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में जनता के वास्तविक मुद्दे छले ही जाएंगे। राजनीतिक दलों के लोग वहां जाएंगे और हर बार की तरह कोरे वायदे कर झुनझुना के बदले जनता के वोट हासिल कर लेंगे। यह पूना पैक्ट का कुप्रभाव है, जहां संभावित विधानसभा सदस्यों और जन प्रतिनिधियों की जवाबदेही जनता तथा मतदाताओं से कहीं अधिक राजनीतिक दलों के आकाओं के प्रति होता है। यहां ग्रामीण भू-स्वामी, बनिया-महाजनों, धर्मगुरुओं, जाति एवं पितृसत्ता के गठजोड़ का प्रभुत्व बना रहेगा। यह आभासी लोकतंत्र और छलावा का भारतीय तकनीक है।

छत्तीसगढ़ में अभी के विधान सभा चुनाव में विभिन्न सामाजिक व जन संगठनों की क्या भूमिका होगी?

देखिए, मैं इस सवाल के जबाब के लिए दो घटनाएं सामने रखना चाहूंगा, जो पूरे छत्तीसगढ़ में निरंतर और व्यापक स्तर पर घटित हो रहे हैं। पहला यह कि छत्तीसगढ़ में पूर्ववर्ती सरकार ने समाज में सामाजिक बहिष्कार और प्रतिष्ठा आधारित अपराधों पर रोकथाम के लिए एक विधेयक प्रस्तावित किया था, लेकिन छत्तीसगढ़ में अधिकतर सामाजिक संगठनों ने एक राय होकर इस तर्क व आधार पर उस विधेयक का मुखालफ़त किया था कि इस प्रस्तावित बिल के कारण सदियों से चली आ रही परंपरा के अनुसार जाति-समाज और पितृसत्ता का व्यक्तियों तथा नागरिकों पर से नियंत्रण ख़त्म हो जाएगा। दूसरा पांचवी अनुसूची क्षेत्रों से संबंधित है, जहां सामाजिक संगठनों द्वारा आदिवासी स्वशासन की आड़ लेकर पेसा कानून का इस्तेमाल औजार के रूप में किया जा रहा है। बस्तर, सरगुजा और जशपुर के इलाकों में धर्मांतरण और डी-लिस्टिंग के नाम पर आदिवासी ईसाईयों के खिलाफ लगातार घटित हो रहीं प्रताड़ना की घटनाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि गांव-स्वराज्य और जल, जंगल, जमीन तथा पारिस्थितिकी तंत्र बचाने के लिए कथित सामाजिक व जन संगठनों के मध्य हिंदू फ़ासिस्ट ताकतों ने पैठ जमा लिया है। जहां ये ताकतें आदिवासी इलाकों में गैर हिंदू मतावलंबियों की उपासना पद्धति और धार्मिक स्थलों के निर्माण के खिलाफ मुखर हैं, वहीं आदिवासी क्षेत्रों में हिंदू धर्मग्रंथों का स्थानीय भाषाओं में अनुवाद व वितरण, राम वन गमन पथ, पेनगुड़ियों को देवगुड़ियों में बदले जाने के मामलों में अविश्वसनीय स्तर तक चुप्पी साधी हुई हैं। 

इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि आम और औसत भारतीय समाज के सोच के अनुरूप ही सामाजिक संगठन भी लोकतांत्रिक ईमानदारी और न्यायिक चरित्र के संदर्भ में संकट से जूझ रहे हैं। लोकतंत्र में दबाव बनाने वाले समूहों का अहम रोल होता है, लेकिन दशकों से हम देख रहे हैं कि कई सामाजिक संगठन और उनके साझा मंच किन्हीं ख़ास राजनीतिक दलों के लिए लाबिंग करते हैं। सत्ता और शक्ति की चाकरी में लगे रहते है और उनके चुनावी घोषणा पत्रों से लेकर उनके नेताओं को जन-आंदोलन स्थलों तक और आंदोलन के नेताओं को राज्यसत्ता के चरणों तक में अर्पित करने की कवायदे करते रहते हैं। छत्तीसगढ़ में उनके इस तरह के चालाक रवैया का तीखा प्रतिवाद भी हुआ है और इस तरह संगठनों के आपसी रिश्तों में दरारें भी आई हैं। वज़ह साफ़ है कि सवर्ण प्रभुत्व वाले सामाजिक संगठन मुख्यधारा में हैं और इन परिस्थितियों में किसी आदिवासी बाहुल्य राज्य के लिए यह यकीन करना थोड़ा मुश्किल हो जाता है कि वास्तविक और स्थानीय जन-सरोकार के मुद्दे कभी मुख्यधारा के मुद्दे बन पाएंगे।

क्या आपको ऐसा लगता है कि अभी के जो हालात हैं, उन्हें देखते हुए हर तरह के दमन और उत्पीड़न के खिलाफ आदिवासी, दलित और ओबीसी के बीच एकजुटता स्थापित होगी?

हां, क्योंकि इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं हैं और यह एक दीर्घकालिक रणनीति के तहत ही संभव होगा। हालांकि आदिवासी, दलित और ओबीसी पृथक सांस्कृतिक समूह हैं और उनके भावनात्मक मुद्दों को ही तमाम राजनीतिक पार्टियां ध्यान में रखते हुए उन्हें लुभाने के लिए उनके एजेंडा तय कर रही हैं, लेकिन इन समूहों के भावनात्मक और संवेदनशीन मुद्दों को तुष्ट करने की नीति और खेल ज्यादा दिनों तक चलने वाला नहीं है। भौतिकवाद के विस्तार के साथ ही धीरे-धीरे आम जनता का राजनीतिक चेतना का स्तर बढ़ेगा और उनकी प्राथमिकताएं शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़कें, पेयजल, आर्थिक समृद्धि और पीढ़ियों के बेहतर भविष्य के लिए सामाजिक न्याय की राह में आगे बढ़ेंगी।

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें