महाराष्ट्र के बाद बिहार की राजनीति में बड़ा खेला हो गया। मगर दोनों राज्यों में फर्क था। पहला तो ये कि महाराष्ट्र में बीजेपी को सत्ता मिल गई और दूसरा ये कि महाराष्ट्र में कई दिन शोर शराबे के बाद सत्ता बदली जबकि बिहार में चुपचाप ही बिसात बिछा दी गई। 2014 लोकसभा चुनाव के बाद बीजेपी की ताकत बढ़ती गई। कई राज्यों में सरकार बनी। राजनीति के जानकार और पीएमओ को करीब से देखने वाले कहते हैं कि बीजेपी भी कुछ-कुछ इंदिरा गांधी जैसे सरकार चलाती है, जहां पर फैसले कुछ ही लोग करते हैं। बिहार में राजनीतिक उठापटक के बाद अब सवाल ये है कि क्या बिहार की तरह महाराष्ट्र में भी बीजेपी अपनी कमजोरी की कीमत पर एकनाथ शिंदे गुट की शिवसेना को मजबूत करती जा रही है। महाराष्ट्र में पहले एकनाथ शिंदे को सीएम बनाना और फडणवीस जैसे नेता को उपमुख्यमंत्री बनाना और अब दो महाराष्ट्र सरकार में दो दागी विधायकों को मंत्री पद देना किस रणनीति का हिस्सा हो सकता है समझ से परे हैं मगर सवाल उठने लगे हैं। कार्यकर्ता आशंकित हैं।
बिहार में सीएम पद किया न्योछावर
उर्दू के मशहूर शायर राहत इंदौरी साहब का एक शेर है। नए किरदार आते जा रहे हैं, मगर नाटक पुराना चल रहा है। बिहार में गुपचुप तरीके से जिस तरह से नीतीश कुमार ने पलटी मारी है वो कहीं न कहीं बीजेपी की भूमिका पर भी सवाल खड़े कर रही है। बीजेपी ने 2020 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। उसे 74 सीटों पर जीत मिली थी जबकि जेडीयू को महज 43 सीटें मिलीं। लेकिन चुनाव से पहले ही बीजेपी ने ये कह दिया था सीएम नीतीश कुमार ही बनेंगे। बीजेपी अपने स्टैंड पर कायम रही और नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बना दिया गया। बीजेपी और जेडीयू में सबकुछ बहुत अच्छा नहीं था फिर भी सरकार चलती रही। लेकिन बिहार बीजेपी कार्यकर्ता बीजेपी के फैसले से बहुत ज्यादा खुश नहीं थे। आखिर इतनी दरियादली की वजह क्या है ?
महाराष्ट्र में फडणवीस का डिमोशन
महाराष्ट्र में जब बीजेपी ने एकनाथ शिंदे को सीएम बनाने का फैसला किया तो बीजेपी कार्यकर्ता से लेकर हर कोई हैरान रह गया। पूर्व सीएम महाराष्ट्र में बीजेपी का चेहरा देवेंद्र फडणवीस को खुद एक घंटे पहले पता चला कि उनको डेप्युटी सीएम का पद संभालना है। हैरत की बात है कि उन्होंने मुश्किल से घंटे भर पहले साफ कर दिया था कि वो सरकार में कोई पद नहीं लेंगे। बीजेपी आलाकमान नेताओं या फिर पीएम मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने महाराष्ट्र की राजनीति में बीजेपी के कदम बढ़ाने के लिए ये फैसला किया हो। इससे भी बड़ी हैरत की बात है कि बीजेपी के इतिहास में पहली बार पार्टी अध्यक्ष ने एक बड़े राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री के कद के नेता को सार्वजनिक मंच से आदेश देता है। सोचिए, फडणवीस ही नहीं, महाराष्ट्र बीजेपी के अन्य नेताओं और कार्यकर्ताओं पर क्या असर हुआ होगा? शिंदे को सीएम बनाने को जो लोग बीजेपी का मास्टर स्ट्रोक बताते हैं, वही फडणवीस को उनका डेप्युटी बनाने का निर्णय समझ से परे बता रहे हैं।
मंत्रिमंडल में दागी विधायक
बीजेपी ने महाराष्ट्र में मंत्रीमंडल विस्तार में भी सबको चौंकाया। बीजेपी दोनों की ओर से 9-9 विधायकों ने मंत्री पद की शपथ ली जबकि महाराष्ट्र में बीजेपी के पास 105 विधायक हैं और शिंदे गुट के सिर्फ 41। लेकिन दोनों तरफ से बराबर मंत्री। वो भी तब जब मुख्यमंत्री पद भी बीजेपी के पास नहीं है। सियासत की तराजू पर तौलें तो महाराष्ट्र में बीजेपी ने खुद के मुकाबले शिंदे गुट की शिवसेना को वजनदार बना दिया। संभव है कि इसके पीछे भी बीजेपी की कोई रणनीति हो, लेकिन क्या पार्टी के रणनीतिकारों ने प्रदेश के नेताओं-कार्यकर्ताओं को इससे वाकिफ करवाया?
बीजेपी को काडर बेस्ड पार्टी माना जाता रहा है, लेकिन जिस तरह केंद्रीय नेतृत्व प्रदेश के नेताओं और कार्यकर्ताओं का मन भांपे बिना फैसले लेकर थोप दे रहा है, वह चलन भविष्य में काफी घातक साबित हो सकता है। बिहार में भी जब केंद्रीय मंत्री अमित शाह के सामने सभी विधायकों ने कहा कि उन्हें नीतीश कुमार से मुक्ति चाहिए तो शाह ने उन्हें समझा दिया कि बिहार को लेकर उनके मन में क्या रणनीति है। लेकिन हुआ क्या? कुछ दिनों बाद ही नीतीश चल पड़े और बीजेपी हाथ मलते रह गई। नीतीश के झटके से बीजेपी इस तरह हक्का-बक्का है कि उसे सूझ नहीं रहा है कि आगे करे तो क्या। महाराष्ट्र को लेकर भी केंद्रीय नेतृत्व के ‘एकतरफा’ फैसले प्रदेश में पार्टी को मुश्किल में नहीं डालेंगे, इसकी क्या गारंटी है?
खुद बीजेपी ने किया था विरोध
महाराष्ट्र मंत्री परिषद के विस्तार में शिंदे गुट के सामने बीजेपी के संपूर्ण समर्पण का एक और उदाहरण देखने को मिला है। शिंदे गुट से जिन नौ विधायकों को मंत्री बनाया गया है, उनमें से दो ऐसे नाम हैं जिनमें एक संजय राठौर पर टिकटॉकर पूजा चौहान की खुदकुशी से जुड़ा मुकदमा आज भी चल रहा है। वहीं, दूसरे मंत्री अब्दुल सत्तार पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। हैरत की बात यह है कि संजय राठौर जब शिवसेना, कांग्रे, एनसीपी की महाविकास अघाड़ी गठबंधन (MVA) सरकार में थे तब पूजा चौहान खुदकुशी मामले से उनका नाम जुड़ने पर बीजेपी ने ही हंगामा मचाया था और उसी के दबाव में राठौर एमवीए सरकार से इस्तीफा देने वाले पहले मंत्री बने। सवाल उठता है कि क्या बीजेपी सीएम एकनाथ शिंदे पर इतना भी दबाव बनाने की ताकत नहीं रखती है कि वो इन दो विधायकों की जगह स्वच्छ छवि वाले दूसरे विधायकों को मंत्री बनाने पर मजबूर कर सके?
नीतीश की ये पुरानी आदत
अब जरा अतीत की बात कर लेते हैं। नीतीश कुमार का राजनीति में आगमन जेपी आंदोलन से हुआ। 1999 में एनडीए की सरकार बनी। अटल बिहारी वाजपेयी पीएम बने। जॉर्ज फर्नांडीस ने 1994 में नीतीश कुमार समेत कुल 14 सांसदों के साथ जनता दल से नाता तोड़कर जनता दल (जॉर्ज) बनाया जिसका नाम अक्टूबर 1994 में समता पार्टी पड़ा। 1995 में समता पार्टी अपने दम पर बिहार विधानसभा चुनाव लड़ी लेकिन लालू के सामने समता पार्टी फिसड्डी साबित हुई उसे सिर्फ 7 सीटें ही मिलीं। लेकिन दोनों वक्त को भांप गए थे। फिर जॉर्ज ने 1996 में बीजेपी के साथ गठबंधन के लिए हाथ बढ़ाया। उसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी। सब सहयोगियों को सरकार में शामिल किया गया तब वाजपेयी ने जॉर्ज को रक्षा मंत्री बनाया था। 1996 में हुए लोकसभा चुनाव में समता पार्टी को 8 सीट मिलीं, वहीं 1998 में 12 सीट।
जॉर्ज फर्नांडिस के साथ क्या हुआ
जॉर्ज रक्षा मंत्री के तौर पर कभी सियाचिन में तो कभी दिल्ली की हवा में थे लेकिन इस दौर में नीतीश कुमार बिहार में अपनी जमीन मजबूत करते रहे थे। क्या पता था कि नीतीश कुमार अपनी जमीन तैयार करने के साथ फर्नांडिस की जमीन बंजर कर देंगे। ये जॉर्ज का ही साथ था कि नीतीश कुमार 2003 में बीजेपी से गठबंधन तोड़कर जनता दल यूनाइटेड बना सके. और देखते देखते जॉर्ज फर्नांडिस की छवि ने नीतीश को 2005 में बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया। लेकिन 2007 में ऐसा वक्त आया जब नीतीश कुमार ने जॉर्ज फर्नांडिस को ही पार्टी अध्यक्ष पद से हटा दिया और शरद यादव को जेडीयू का अध्यक्ष बना दिया। यहीं से जॉर्ज राजनीति में किनारे होने लगे। जिस पार्टी को जॉर्ज ने बनाया था उसी पार्टी में अध्यक्ष का चुनाव वो अप्रैल 2006 में शरद यादव के हाथों हार गए।
बीजेपी के फैसले समझ से परे
ऐसा नहीं है कि पीएम मोदी या अमित शाह जिनको बीजेपी का चाणक्य कहा जाता है, उनको ये इतिहास नहीं पता होगा। नीतीश कुमार एक बेहतर सीएम हो सकते हैं, मगर वो दोस्ती भी निभाएं ये जरूरी नहीं। बिहार में बीजेपी का आज जो हाल हुआ है उसकी पटकथा 2020 में ही लिख गई थी जब बीजेपी ने सरेंडर किया था। उससे पहले भी एक बार नीतीश कुमार बीजेपी से नाता तोड़कर राजद के साथ सरकार बना चुके थे मगर बीजेपी को लगा कि उनके साथ नीतीश का आना घर वापसी है। बीजेपी ने बिहार की तीसरे नंबर की पार्टी के नेता को सीएम बना दिया। आज ये मुश्किलें हैं बिहार की तरह ही महाराष्ट्र में भी अपना इकबाल घटाकर एकनाथ शिंदे को मजबूत कर रही है। क्या बीजेपी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से कुछ सीखने को तैयार नहीं है? आखिर उसे एकनाथ शिंदे को महाराष्ट्र का नीतीश कुमार बनाने का आत्मघाती स्टंट क्यों कर रही है?