राहुल-अखिलेश यादव-स्टालिन-शरद पवार सहित इंडिया गठबंधन जाति जनगणना के एक्सेलरेटर पर जैसे-जैसे अपना दबाव बढ़ाएगी, उतनी तेजी से भाजपा की बंद मुट्ठी के भीतर से पिछड़ों और दलित-आदिवासियों का वोट बैंक वाष्पीकृत होता चला जायेगा। आरएसएस इस खतरे को भांप रही है, और इसे देखते हुए वह ताबड़तोड़ भाजपा पर दबाव बढ़ाती जा रही है। यहां पर यह कहना अनुचित नहीं होगा कि मंडल-2 की राजनीति भले ही इंडिया गठबंधन को आने वाले चुनावों में अपराजेय स्थिति में पहुंचा दे, लेकिन इसे भी दो कदम आगे चलकर एक नए भंवर में फंसने के लिए बाध्य होना ही पड़ेगा, क्योंकि मुकम्मल समाधान की लड़ाई, इससे हजार गुना अधिक बड़ी है।
रविंद्र पटवाल
इस बार का संसद का मानसून सत्र बजट के लिए समर्पित था, लेकिन यह जाति जनगणना के मुद्दे पर आकर टिक गया है। कथित राष्ट्रीय चैनलों और समाचार पत्रों तक को यह लिखने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है कि नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी लगातार बीजेपी पर हमला बोल रहे हैं। वो भी उन बिंदुओं को मुद्दा बनाकर बीजेपी को घेर रहे हैं, जिनके लिए बीजेपी का रिकॉर्ड कांग्रेस से बेहतर रहा है। देश में सबसे अधिक पढ़े जाने वाले एक बड़े मीडिया चैनल और प्रिंट मीडिया के एक लेख में कहा गया है कि, “बीजेपी को समझ में नहीं आ रहा है कि राहुल के उन नरेटिव का तोड़ क्या निकाला जाए। बीजेपी जो भी कर रही है, उसमें खुद फंसती जा रही है। जैसे कि बीजेपी सांसद अनुराग ठाकुर मंगलवार को राहुल गांधी की जाति पूछ ली तो बवाल मच गया। जबकि राहुल गांधी खुद जाति-जाति की रट लगाए हुए हैं। पत्रकारों से उनकी जाति पूछते रहे हैं।”
समीक्षक अभी से कयास लगा रहे हैं कि क्या यह मंडल-2 की तैयारी है? क्या देश में अगला चुनाव इसी एजेंडे पर लड़ा जाना है? निश्चित रूप से जिस नैरेटिव का तोड़ भाजपा नहीं निकाल पा रही है, और अपने युवा नेताओं को आगे कर वह जितना राहुल गांधी को अपमानित करने और किनारे करने की कोशिश कर रही है, उतना ही वह स्वंय को घिरता महसूस कर रही है। तो स्वाभाविक तौर पर अखबार, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया सहित बौद्धिक वर्ग में भी लामबंदी तो होगी ही।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि मंडल-1 जो कि 1989 में शुरु हुआ, और जिसकी शुरुआत भी एक ऐसे राजनीतिक संकट से शुरू हुई थी, जिसके एक सिरे पर कांग्रेस थी, जबकि दूसरे सिरे पर कांग्रेस से ही निकले विश्वनाथ प्रताप सिंह थे, जिन्होंने लेफ्ट और दक्षिणपंथ (भाजपा) के समर्थन पर केंद्र में सत्ता हासिल की थी। संकट में घिरी जनता दल के मुखिया वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने का ऐलान कर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए 27% आरक्षण को लागू करा दिया था। उस समय भी कांग्रेस देश की सबसे बड़ी पार्टी हुआ करती थी, जिसके नेता राजीव गांधी ने इसका पुरजोर विरोध किया था।लेकिन कांग्रेस के पास इससे लाभ हासिल करने के लिए बहुत कुछ नहीं था।
मंडल कमीशन के विरोध का सीधा लाभ उठाया, भारतीय जनता पार्टी ने, जबकि मंडल कमीशन और सामाजिक न्याय के पुरोधा बनकर उभरने वाले मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव को उत्तर प्रदेश और बिहार में इसका सीधा राजनीतिक लाभ मिला। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के लिए भी यह दौर सबसे माकूल साबित हुआ। यही वह झंझावात का दौर था, जब देश आर्थिक, सामजिक और राजनीतिक उथल-पुथल के बीच गुजर रहा था। मंडल विरोध को हवा देकर भाजपा ने कांग्रेस के पारंपरिक ब्रह्मण वोट बैंक पर सेंधमारी कर ली थी, लेकिन इसके साथ ही कमंडल का दौर भी शुरू कर दिया।
सोमनाथ से अडवाणी की रथयात्रा का उद्येश्य भले ही अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को लेकर रहा हो, लेकिन इसके माध्यम से असल में मंडल की आंधी को नेस्तनाबूद करना प्रमुख था, जिसे आरक्षण विरोधी युवा और अगड़ी जातियों ने हाथों हाथ लिया। अपने इतिहास में पहली बार वर्चस्वशाली जातियों की गोलबंदी ने आरएसएस/भाजपा की पांतों को मजबूती से अपनी वैचारिकी को आगे रखने की हिम्मत दी थी, और देखते ही देखते भाजपा देश की राजनीति में एक अपरिहार्य शक्ति बन गई थी।
मंडल की राजनीति को भी स्थायित्व मिल चुका था, लेकिन कांग्रेस इस बीच, न तीन में न तेरह वाली स्थिति की ओर बढ़ती जा रही थी। 91 में भले ही नरसिम्हाराव के नेतृत्व में कांग्रेस सत्ता में आई हो, लेकिन तब तक इसकी भूमिका देश की एक प्रमुख राजनीतिक चालक शक्ति के बजाय एक संक्रमणकालीन सरकार की हो चुकी थी, जिसके ऊपर नई अर्थनीति को सुचारू ढंग से लागू करवाने का दायित्व था। एक मध्यमार्गी पार्टी की उसकी ऐतिहासिक भूमिका ने इसे संपन्न कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन बदली हुई परिस्थिति में देश का माहौल मंडल समर्थक या मंडल विरोधियों के ही पक्ष में बन रहा था।
यही कारण है कि दक्षिण भारत को छोड़, धीरे-धीरे कांग्रेस का अस्तित्व शेष भारत से खत्म होता चला गया, और भाजपा एकमात्र राष्ट्रीय दल के रूप में मजबूती से स्थापित होने लगी, जबकि उसके बरक्स उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में ओबीसी जातियों की दावेदारी ने अपनी जगह बना ली थी। यह मध्यवर्ती जातियों के उभार का समय था, जो कृषि में पूंजी निवेश और लाभकारी खेती के चलते समाज के अन्य क्षेत्रों में भी अपनी हिस्सेदारी के लिए सामने आ रहे थे। इसमें विरोधाभास सिर्फ यह था कि इसके आर्थिक कारकों के लिए जिम्मेदार कांग्रेस अब महत्वहीन हो रही थी। 89 के बाद पहचान की राजनीति बनाम धार्मिक पहचान के बीच देश जो बंटा, वह अभी तक जारी है। लेकिन इसके साथ ही जारी है, फिर से गरीब और अमीर के बीच की विभाजन रेखा का लगातार चौड़ा होते जाना। 2004 से लगातार दो बार यूपीए सरकार बनाने में सफल कांग्रेस लगातार दो नावों पर पैर रखे दिखाई दी, जो एक तरफ तो पीएम मनमोहन सिंह के नेतृत्व में नव-उदारवादी अर्थनीति के एजेंडे पर चल रही थी, लेकिन उसी के साथ यूपीए की चेयरमैन सोनिया गांधी के जरिये शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार और मनरेगा जैसे ग्रामीण रोजगार गारंटी योजनाओं पर भी काम कर रही थी।
2014 से 2024 तक फिर से तीन दशक बाद पहली बार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में सफल रही, जो यूपीए की तुलना में सीधे-सीधे बड़ी एकाधिकार पूंजी की सेवा कर पाने में सक्षम साबित हुई। एक तरफ हिन्दुत्वादी नैरेटिव को चलाकर समाज और राजनीतिक परिदृश्य में हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को निरंतर बढ़ाया गया, अपने विकल्प में मौजूद कांग्रेस के रहे-सहे वजूद को खत्म करने का अनथक प्रयास कर भाजपा/आरएसएस के लिए 2047 तक का विजन तैयार किया गया, वहीं दूसरी तरफ क्रोनी कैपिटल के लिए खुले हाथों से देश के संसाधनों की लूट और छोटे-मोटे पूंजीपतियों तक को बुलडोज होते देखा गया।
इसे हिन्दुत्वादी राजनीति का कौशल ही कहना चाहिए कि जिस राजनीतिक शक्ति ने मंडल-1 का सबसे मुखर विरोध किया था, उसी ने राम मंदिर, कांवड़ यात्रा, गौ-रक्षा अभियान जैसे तमाम अभियानों में बड़ी संख्या में देश के ओबीसी, दलितों और आदिवासियों को अपने पक्ष में गोलबंद कर लिया था, जिसका बड़ा लाभ उसे 2014 और उसके बाद अभी तक हासिल हो रहा था। अपनी वैचारिकी को देश पर प्रतिष्ठापित करने के लिए संघ और भाजपा में पर्याप्त लचीलापन था, जिसे विभिन्न राज्यों में ओबीसी मुख्यमंत्रियों के तौर पर देखा गया। लेकिन 2014 के बाद तो जैसे सब कुछ बदल गया था, हालांकि पीएम मोदी के नेतृत्व में भी दलित, पिछड़े और आदिवासी पृष्ठभूमि के किसी व्यक्ति को बड़े संवैधानिक पदों पर आसीन कराकर क्रोनी पूंजी की सेवा का काम बदस्तूर जारी रहा, जिसे अंततः 4 जून के चुनाव परिणामों में एक झटका जरुर लगा है।
यह झटका अनायास नहीं है। 35 वर्षों के आरक्षण समर्थन-विरोध के समानांतर हिंदुत्व की राजनीति में ऊभ-चूभ होने के बाद बहुसंख्यक भारतीय खुद को पहले से कहीं अधिक लुटा-पिटा पा रहा है। इस बीच में न जाने कितने सावन, वसंत और पतझड़ आये और चले गये। गांव में हल-बैल की जगह ट्रैक्टर, डीजल, खाद और कीटनाशकों ने ले ली, दलित और पिछड़े समाज को शहरी मजदूर बनने के लिए पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ा। सरकारी शिक्षा का स्तर गिरता चला गया, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए सरकार की बजाय निजी स्कूलों और नर्सिंगहोम का मुंह देखना पड़ रहा है। आरक्षण है, लेकिन रोजगार ही सरकार ने खत्म कर दिए हैं, या लेटरल एंट्री ने स्थानापन्न कर दिया है। संवैधानिक पदों पर भले ही दलित या पिछड़े को प्रतिनिधित्व दिया गया है, लेकिन दलित की बेटी की अस्मत लुटने पर थाने में सुनवाई नहीं हो रही है।
ये वे मुद्दे हैं, जिनसे दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक आबादी ही नहीं, आम गरीब सवर्ण भी जूझ रहा है। लेकिन बड़ी पूंजी और हिंसक प्रतिक्रियावादी शक्तियों का राजनीति, समाज, मीडिया और सोशल मीडिया में इतना तगड़ा दबदबा बन चुका था कि दिन के उजाले में भी इनके लिए घुप अंधकार काल था। इस काल को भी जब अमृत काल कहा गया तो किसी के पास भी सच बात कहने की हिम्मत नहीं थी। राहुल गांधी, जो दो-दो चुनाव में तगड़ी चोट खाकर बीजेपी की आईटी सेल के द्वारा पप्पू घोषित किये जा चुके थे, कांग्रेस के भीतर के पॉवर के इर्द-गिर्द मंडराने वालों के भी निशाने पर बने हुए थे। एक तरफ कांग्रेस मुक्त भारत के मोदी के सपने को चुनौती देने की जिम्मेदारी थी, जिसे कांग्रेस के भीतर बने रहकर कर पाना असंभव होता जा रहा था, जिसे राहुल ने भारत जोड़ो यात्रा के जरिये तोड़ा, अपने लिए और साथ ही कांग्रेस के लिए एक राह तलाशी, जिसका लाभ उन करोड़ों लोगों को भी मिला, जिनकी आवाज पिछले कई वर्षों से घुट रही थी।
जाति जनगणना के माध्यम से राहुल गांधी क्या हासिल करना चाहते हैं? आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी की बात सबसे पहले लोहिया ने उठाई थी। लोहिया की समूची राजनीति कांग्रेस विरोध पर टिकी हुई थी। ऐसा कहा जाता है कि आरएसएस को वैधता प्रदान करने में यदि सबसे बड़ा हाथ किसी का है, तो वह जय प्रकाश नारायण और उसके बाद लोहिया और उनके बाद उनके कार्यकर्ताओं का रहा है। क्या हिस्सेदारी की बात उठाकर राहुल गांधी ने एक बड़े झंझावात को खड़ा करने का मन बना लिया है? क्या इस हिस्सेदारी में खेती, कॉर्पोरेट वर्ल्ड और निजी क्षेत्र में नौकरियां भी हो सकती हैं? क्या राहुल गांधी की राजनीति प्रतीकात्मकता से आगे की है? क्या कांग्रेस की भावी राजनीति में कमल नाथ, दिग्विजय सिंह जैसों का कोई स्थान नहीं रहने वाला है? क्या पहचान की राजनीति के बजाय वर्गीय राजनीति को प्राथमिकता नहीं देनी चाहिए?
ऐसे ढेर सारे प्रश्न हैं, जो निकट भविष्य में बड़े सवाल बनकर उभरने वाले हैं। फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि भाजपा ने जितनी सहजता से पिछले दस वर्षों के दौरान मनुवादियों और मंडलवादियों को एक ही हाथ में साधकर, देश के चंद धन्नासेठों और विदेशी पूंजी के लिए खुली लूट की दावत का इंतजाम किया था, उसे पूरा करने में उसे इस बार कदम-कदम पर भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।
राहुल-अखिलेश यादव-स्टालिन-शरद पवार सहित इंडिया गठबंधन जाति जनगणना के एक्सेलरेटर पर जैसे-जैसे अपना दबाव बढ़ाएगी, उतनी तेजी से भाजपा की बंद मुट्ठी के भीतर से पिछड़ों और दलित-आदिवासियों का वोट बैंक वाष्पीकृत होता चला जायेगा। आरएसएस इस खतरे को भांप रही है, और इसे देखते हुए वह ताबड़तोड़ भाजपा पर दबाव बढ़ाती जा रही है। यहां पर यह कहना अनुचित नहीं होगा कि मंडल-2 की राजनीति भले ही इंडिया गठबंधन को आने वाले चुनावों में अपराजेय स्थिति में पहुंचा दे, लेकिन इसे भी दो कदम आगे चलकर एक नए भंवर में फंसने के लिए बाध्य होना ही पड़ेगा, क्योंकि मुकम्मल समाधान की लड़ाई, इससे हजार गुना अधिक बड़ी है।