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बीजेपी ने गुर्जर वोटों को साधा,पायलट के ‘अपमान’ से कांग्रेस को नुकसान

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2018 के राजस्थान चुनाव में, गुर्जर समर्थन का ज्वार निर्णायक रूप से कांग्रेस के पक्ष में बदल गया था. इसने आठ गुर्जर सीटें जीतीं और राज्य के पूर्वी क्षेत्र, जिसे गुर्जर-मीणा बेल्ट माना जाता है, की कुल 39 में से 25 सीटें हासिल कीं.

5 साल बाद, यह धारणा कि गुर्जर नेता सचिन पायलट को मुख्यमंत्री पद न दिए जाना, कांग्रेस से एक कच्चा सौदा हासिल हो रहा है, ने पूर्वी राजस्थान में पार्टी को नुकसान पहुंचाया है.

गुर्जर, पायलट को मुख्यमंत्री बनाने की उम्मीद में उनके पीछे लामबंद हो गए थे, लेकिन 5 साल से अधिक समय के बाद, पूर्व उप मंत्री के विद्रोह और उसके बाद हुए अपमान और अलगाव ने पूर्वी राजस्थान में कांग्रेस की संभावनाओं को नुकसान पहुंचाया है.

इस बार बाजी पलट गई, क्योंकि यह 25 सीटों से घटकर 17 सीटों पर आ गई. इस बार इस क्षेत्र से कांग्रेस के 10 मंत्री हार गये. इस बीच, पूरे क्षेत्र में बीजेपी की सीटें 2018 में 1 से बढ़कर 18 सीटों पर पहुंच गईं.

कुल मिलाकर, राजस्थान में 40 विधानसभा क्षेत्रों में गुर्जरों का प्रभाव है. 2018 में जहां कांग्रेस के 11 गुर्जर उम्मीदवारों में से 8 विजयी हुए थे, वहीं बीजेपी के सभी 8 उम्मीदवार लहर में डूब गए थे.

इस साल, भाजपा और कांग्रेस ने क्रमशः 10 और 11 गुर्जर उम्मीदवार मैदान में उतारे. जबकि भाजपा के 5 ने जीत हासिल की, कांग्रेस के केवल 3- जिनमें पायलट भी शामिल हैं – को सफलता मिली.

कोटपुतली ने दिखाया कि कैसे इस बार राजस्थान में गुर्जर वोट कांग्रेस से दूर चला गया. यह एकमात्र सीट थी जिसे पार्टी 2013 में जयपुर संभाग में जीतने में कामयाब रही थी.

इस बार, भाजपा के हंसराज पटेल, एक गुर्जर, ने भाजपा के बागी उम्मीदवार मुकेश गोयल की मौजूदगी के बावजूद कांग्रेस उम्मीदवार और राजस्थान के मंत्री राजेंद्र सिंह यादव को हराया.

दूसरा मामला दौसा जिले का है, जहां कांग्रेस ने 2018 में पांच में से चार सीटें जीतीं. इस बार, पार्टी चार सीटें हार गई- ओम प्रकाश हुड़ला (महुवा), परसादी लाल मीणा (लालसोट), गजराज खटाना (बांदीकुई) और ममता भूपेश (सिकराय) हारे हैं.

नतीजे प्रासंगिक हैं क्योंकि दौसा में मीणा और गुर्जर मतदाताओं की संख्या अधिक है.

इसी तरह, भाजपा सवाई माधोपुर जिले में 2 सीटें जीतने में कामयाब रही, जो कि 2018 में शून्य के ऊपर है – क्योंकि वह मीणा और गुर्जर वोट हासिल करने में कामयाब रही. भाजपा के दिग्गज नेता किरोड़ी लाल मीणा, जिन्हें राज्य चुनाव में उतारा गया था, सवाई माधोपुर से जीते. उन्होंने सीएम अशोक गहलोत के करीबी और कांग्रेस उम्मीदवार दानिश अबरार को हराया.

इसके अलावा, भाजपा ने करोली में 4 में से 2 सीटें जीतीं, जबकि भरतपुर में 7 में से 5 सीटें. संयोग से, भरतपुर की दूसरी सीट भाजपा के एक बागी ने जीती. यहां तक कि पूर्ववर्ती भरतपुर राजघराने से आने वाले कांग्रेस उम्मीदवार विश्वेंद्र सिंह भी चुनाव हार गए.

चुनाव हारने वाले सचिन पायलट खेमे के उम्मीदवारों में खटाना, विश्वनाथ सिंह (भरतपुर), भजनलाल जाटव (वेर) शामिल रहे. हालांकि, पायलट ने टोंक से 29,000 से अधिक वोटों के अंतर से जीत हासिल की, लेकिन 2018 में यह 54,000 से अधिक वोटों से कम है.

भाजपा सांसद सुखबीर जौनपुरिया, एक गुर्जर नेता, ने दिप्रिंट को बताया, “गुर्जरों ने कई फैक्टर्स से भाजपा को वोट दिया – सचिन पायलट का अपमान और समुदाय के साथ गहलोत का व्यवहार और यहां तक कि पूर्वी इलाके में मीणाओं ने भी भाजपा का समर्थन किया.”

गुर्जर आरक्षण आंदोलन में शामिल हिम्मत सिंह गुर्जर ने दिप्रिंट को बताया कि यह कांग्रेस के मंत्रियों के खिलाफ लोगों का गुस्सा था जिसकी कीमत पार्टी को चुकानी पड़ी. उन्होंने कहा, “गुर्जर वोट बंटने से बीजेपी को मदद मिली.”

बीजेपी ने कैसे बनाई अपनी रणनीति

भाजपा ने कुछ समय से गुर्जर वोटों को वापस पाने के लिए एक बहुआयामी योजना पर काम किया था, जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली में कांग्रेस द्वारा राजेश और सचिन पायलट को अपमानित करने के उनके दावे में देखा गया.

मोदी ने भीलवाड़ा जिले के जहाजपुर चुनावी रैली में कहा, “राजेश पायलट ने एक बार पार्टी के हित के लिए गांधी परिवार को चुनौती दी थी… बाद में वह पीछे हट गए, लेकिन परिवार ने राजेश पायलट को दंडित किया और उनके बेटे को भी दंडित कर रही है… राजेश पायलट का निधन हो गया, लेकिन कांग्रेस पार्टी उनके बेटे के खिलाफ अपना गुस्सा निकाल रही है.”

इतना ही नहीं – चुनाव प्रचार से पहले भी – मोदी जनवरी में गुर्जर समुदाय के देवता की जयंती समारोह में हिस्सा लेने के लिए भीलवाड़ा के देवनारायण मंदिर गए थे.

भाजपा ने समर्थन जुटाने के लिए टोंक जिले के देवली-उनियारा निर्वाचन क्षेत्र में 2008 में वसुंधरा राजे के कार्यकाल के अंत के दौरान आरक्षण के लिए गुर्जर विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करने वाले किरोड़ी लाल बैंसला के बेटे विजय बैंसला को भी चतुराई से मैदान में उतारा. अन्य उल्लेखनीय गुर्जर उम्मीदवार हंसराज पटेल गुर्जर (कोटपुतली) और उदय लाल भड़ाना (मंडल) थे.

इस साल हुए संगठनात्मक बदलावों में गुर्जर प्रतिनिधियों को भी जगह मिली है. लाभार्थियों में सुखबीर सिंह जौनापुरिया (पार्टी प्रदेश उपाध्यक्ष, अलका गुर्जर (राष्ट्रीय सचिव), नीलम गुर्जर (प्रदेश सचिव), और अंकित गुर्जर चेची (भाजयुमो प्रदेश अध्यक्ष) शामिल हैं.

केंद्रीय मंत्री कृष्ण पाल गुर्जर और राज्यसभा सांसद सुरेंद्र नागर उन गुर्जर नेताओं में शामिल थे, जिनको समुदाय के समर्थन को पार्टी में वापस लाने की जिम्मेदारी दी गई थी.

परंपरागत रूप से, मीणाओं ने कांग्रेस का समर्थन किया जबकि गुर्जर भाजपा के साथ चले गए. सचिन पायलट ने एक  रिकॉर्ड बनाए क्योंकि उन्हें दोनों समुदायों से महत्वपूर्ण समर्थन मिला.

कांग्रेस में पायलट कमतर करते देखते हुए, भाजपा ने पूर्व उपमुख्यमंत्री के साथ हुए ‘अन्याय’ का राग अलापती रही. भीलवाड़ा जिले में पीएम मोदी की तरह, भाजपा के सुखबीर सिंह जौनापुरिया ने उसी थीम को दोहराया. टोंक-सवाई माधोपुर से दो बार के सांसद पायलट ने कहा, “उनके पास मुख्यमंत्री बनने का कोई मौका नहीं था क्योंकि गहलोत कभी ऐसा होने नहीं देंगे.”

सितंबर में, कांग्रेस विधायक दानिश अबरार को पायलट मुद्दे पर गुस्से का शिकार होना पड़ा, जब वह अपने ही विधानसभा क्षेत्र सवाई माधोपुर में एक कार्यक्रम में शामिल होने पहुंचे थे. अबरार को ‘पायलट के गद्दारों को, गोली मारो…’ के नारे का सामना करना पड़ा.

पहली बार विधायक बने, गहलोत के सलाहकार, को राज्यसभा सांसद और भाजपा के दिग्गज नेता किरोड़ी लाल मीणा के खिलाफ खड़ा किया गया था. अबरार को भाजपा की बागी नेता आशा मीणा का भी सामना करना पड़ा, जो निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ रही थीं.

इसी तरह, पिछले साल जून में पायलट का खुद का बयान कि गहलोत ने उन्हें ‘नकारा’, ‘निकम्मा’ कहा था, भाजपा ने इसे उभारा कि सीएम ने कैसे गुर्जरों को अपमानित किया था. मामले को और भी बदतर बनाने के लिए, चुनाव प्रचार के दौरान राजस्थान के मंत्री परसादी लाल मीणा के बयान ने समुदाय को और अधिक परेशान किया. उन्होंने कहा, ‘सचिन, राजेश पायलट को हम नेता बनाना चाहते थे, जैसा कि वे हैं. 1984 से पहले उन्हें कोई नहीं जानता था. मैं अकेला मीणाा नेता था जो उनके साथ था.”

हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक नारायण बरेठ ने राजस्थान में नए पैदा हुए ज्वार की व्याख्या करते हुए एक अलग रुख अपनाते हैं. 2008 के गुर्जर आंदोलन और उस दौरान जान जाने के बावजूद, उन्होंने दिप्रिंट से कहा कि समुदाय ने 2013 में वसुंधरा राजे को वोट दिया था. “लिहाजा, 2018 को छोड़कर, गुर्जर पारंपरिक रूप से भाजपा को वोट देते हैं.”

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