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पसमांदा मुस्लिमों को  2024 के चुनाव में अपने साथ करना चाहती है बीजेपी?

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2024 में लोकसभा चुनाव हैं। भारतीय जनता पार्टी इसके लिए स्‍ट्रैटेजी बनाने में लग गई है। उसकी रणनीति में मुसलमान भी हैं। वह इनमें से एक वर्ग को अपने पाले में करने की कोशिश करेगी। यह वर्ग देश में मुस्लिम आबादी का 85 फीसदी है। हाल में बीजेपी की राष्‍ट्रीय कार्यकारिणीकी बैठक हुई थी। इसमें प्रधा नमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बड़ा सुझाव दिया था। पीएम ने कहा था कि पार्टी को पसमांदा मुस्लिमों का समर्थन जीतने की कोशिश करनी चाहिए। इसके लिए ‘स्‍नेह यात्रा’ निकालने का प्‍लान बनाया गया है। इसे बीजेपी की रणनीति में एक बड़े बदलाव के तौर पर भी देखा जा रहा है। कारण है उसका फोकस हिंदू और हिंदुत्‍व पर ही रहा है। सवाल यह है कि पसमांदा मुसलमान कौन हैं, समुदाय में उनका दर्जा क्‍या है, संख्‍या के लिहाज से राजनीतिक रूप से ये कितने अहम हैं। आइए, इन सभी सवालों के जवाब जानने की कोशिश करते हैं।

मुसलमानों में हैं कई जातियां और वर्ग
देश में मुस्लिमों के भीतर भी कई वर्ग हैं। सामाजिक रूप से इनकी तीन बड़ी कैटेगरी हैं। अशराफ, अजलाफ और अरजाल। अशराफ में सैयद, शेख, पठान और अन्‍य शामिल हैं। यह मुसलमानों में सबसे दबदबे वाला गुट है। इनका संबंध विदेश से होता है। सैयदों का रिश्‍ता पैगंबर मोहम्‍मद के परिवार से माना जाता है। कह सकते हैं कि ये उनके वंशज हैं। अशराफ में ही शैखजादे आते हैं जो अरब के कुरैश कबीले से जुड़े हैं। वहीं, पठानों का ताल्‍लुक अफगानिस्‍तान से है। अशराफ शरीफ का बहुवचन है। यह मुसलमानों में सबसे एलीट वर्ग है।

अजलाफ जिल्‍फ (अशिष्‍ट) का बहुवचन है। इसमें मुख्‍य रूप से कारीगर आते हैं। दर्जी, धोबी, बढ़ई, लोहार, नाई, कुम्‍हार वगैरह इसी समाज के लोग हैं। अरजाल मुसलमानों में सबसे निचले पायदान पर हैं। यह रजील (निम्‍नतम) का बहुचन है। इसमें मेहतर और नट आते हैं। इसमें वो दलित हैं जिन्‍होंने इस्‍लाम कबूल किया है। अजलाफ और अरजाल मिलकर पसमांदा गुट बनाते हैं। पसमांदा का फारसी में मतलब होता है वो लोग जो पीछे रह गए।

भारत में ज्‍यादातर मुस्लि‍मों में एक खास स्थिति रही है। इन्‍होंने इस्‍लाम तो अपना लिया। लेकिन, इनका पेशा नहीं बदला। यानी धर्मांतरण के साथ सामाजिक और आर्थिक स्थिति में कमोबेश कोई बदलाव नहीं हुआ।

पसमांदा मुस्लिमों के हक की लड़ाई
हमारे सहयोगी अखबार टाइम्‍स ऑफ इंडिया के साथ बातचीत में पूर्व सांसद और ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज के संस्‍थापक अली अनवर ने कहा कि इस्‍लाम में समानतावाद का सिद्धांत है। यही कारण है कि धर्म को कबूल करने के बाद भी लोगों के कामों में ज्‍यादा बदलाव नहीं आया। दूसरे शब्‍दों में कहें तो लोग अपने पुश्‍तैनी कामों से जुड़े रहे।

अनवर को बिहार में दलित मुसलमानों के अध्‍ययन के लिए एके बिड़ला फेलोशिप मिली थी। 1998 में उन्‍होंने मुस्लिम अधिकारों की लड़ाई के लिए महाज की शुरुआत की। पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने अनवर की एक किताब ‘मसवत की जंग’ का लोकार्पण किया था। अनवर को पसमांदा के अधिकारों की लड़ाई के लिए बड़ा नेता माना जाता है।

अनवर कहते हैं कि मुस्लिमों के भीतर दलितों की स्थिति में तब तक कोई बदलाव नहीं आएगा जब तक उन्‍हें अनुच्‍छेद 341 के तहत अनुसूचित जाति (एससी) का दर्जा नहीं मिलेगा। शुरू में सिर्फ हिंदुओं को यह दर्जा मिलता था। बाद में सिख और बुद्ध में कनवर्ट होने वालों को भी यह दर्जा बनाए रखने की इजाजत दी गई। यह और बात है कि इस्‍लाम और क्रिश्चियनिटी में तब्‍दील होने वालों को यह दर्जा गंवाना पड़ता है।

ओबीसी के तौर पर पसमांदा मुस्लिमों की पहचान
बीपी मंडल, रंगनाथ मिश्रा और राजिंदर सच्‍चर सहित सहित कई आयोग वर्गों के आधार पर मुसलमानों के भीतर भेदभाव मौजूद होने की बात कह चुके हैं। अभ‍िनेता दिलीप कुमार, वरिष्‍ठ उर्दू स्‍तंभकार हसन कमाल और अन्‍य के साथ मिलकर शब्‍बीर अंसारी ने ओबीसी के तौर पर मुसलमानों को मान्‍यता देने की मुहिम चलाई थी। अंसारी ने कहा कि महाराष्‍ट्र सरकार ने 1967 में ओबीसी के तौर मुस्लिम सब-क्‍लास के एक गुट को सबसे पहले मान्‍यता दी थी।

1980 में मंडल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट जमा की थी। अगस्‍त, 1989 में वीपी सिंह सरकार ने उसके सुझावों को लागू किया था। इसके चलते ओबीसी के लिए 27 फीसदी कोटा का रास्‍ता तैयार हुआ। यही वह समय था जब और ज्‍यादा मुस्लिम सब-क्‍लास ओबीसी लिस्‍ट में जुड़े। अभी 79 ऐसी जातियां हैं जिन्‍हें ओबीसी का लाभ मिलता है।

समुदाय के अंदर रहा है विरोध
अंसारी बताते हैं कि एक समय था जब अशराफ ने अजलाफ और अरजाल की मौजूदगी को खारिज किया था। अरजाल ने इसके लिए बादशाहों और मुफलिसी में जीने वालों का हवाला देते हुए कहा था कि ये दोनों नमाज में अल्‍लाह की इबादत में एकसाथ खड़े होते हैं। कई बार तो उन्‍हें भी काफी विरोध का सामना करना पड़ा है। जब उन्‍होंने यह बताने की कोशिश की कि मुसलमानों में भी बैकवर्ड क्‍लास है। हालांकि, धीरे-धीरे लोग इस बात को स्‍वीकार करने लगे।

अंसारी कहते हैं कि उन्‍होंने अभिनेता दिलीप कुमार को भी बताया था कि वह पसमांदा हैं। कारण है कि उनके पिता फल बेचा करते थे। इस तरह वह ओबीसी हैं। उस मुस्लिमों में ओबीसी की मौजूदगी को लेकर स्थिति साफ नहीं थी। लिहाजा, महाराष्‍ट्र में अधिकारी मुस्लिमों को ओबीसी सर्टिफिकेट जारी करने से मना कर देते थे। 7 दिसंबर, 1994 में महाराष्‍ट्र के तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री शरद पवार ने एक रेलॉल्‍यूशन जारी किया था। इसमें कहा गया था कि मुस्लिम ओबीसी को हिंदू ओबीसी के बराबर का दर्जा मिलेगा। इसने कई मुस्लिमों के लिए रिजर्वेशन के रास्‍ते खोल दिए थे।

2014 में कांग्रेस-एनसीपी सरकार ने महाराष्‍ट्र में मुस्लिमों के भीतर 50 पिछड़े वर्गों की पहचान की थी। उन्‍हें शिक्षा और रोजगार में 5 फीसदी आरक्षण दिया था। इस फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती दी गई थी। कोर्ट ने सिर्फ शिक्षा में 5 फीसदी आरक्षण की इजाजत दी थी। लेकिन, थोड़े ही समय बाद सरकार बदल गई। नई बीजेपी सरकार ने इस मामले में ज्‍यादा दिलचस्‍पी नहीं ली।

जानकार कहते हैं कि पसमांदा मुस्‍ल‍िमों का एक वर्ग आर्थिक रूप से बढ़ा है। लेकिन, समाज में उसे भेदभाव का सामना करना पड़ता है। कई सैयद, शेख, सिद्दीकी और पठान जैसे मुस्लिम अंसारी, धुनिया, सलमान और अन्‍य पसमांदा मुसलमानों में शादियां नहीं करते हैं। अब पीएम का पसमांदा मुसलमानों के बीच जगह बनाने की मुहिम अहम साबित हो सकती है। यह इस वर्ग के कुछ सकारात्‍मक बदलाव ला सकता है।

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