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पुस्तक समीक्षा: गांधी सियासत और सांप्रदायिकता, एकता का पुनर्पाठ

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“मैं हिंदुओं के लिए हिंदू राज्य की इच्छा करना देशद्रोह मानता हूं।” यह वाक्यांश रामराज्य की अवधारणा रखने वाले महात्मा गांधी का है। उनका यह कथन 14 सितंबर, 1924 को “नवजीवन” में हिंदू-मुस्लिम एकता की जरूरत पर लिखे गए एक लंबे लेख में मौजूद है। गांधी के जरिए कई ऐसी बातें उनकी पूरी विचार श्रृंखला के बीच कही और लिखी गई हैं जिन्हें आज तोड़ मरोड़ कर सियासी फायदों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। और जो अंततः सूचना महामारी का हिस्सा बनकर लोगों की सोच और प्राथमिकताएं तक बदल दे रही हैं।

इंस्टीट्यूट ऑफ ऑब्जेक्टिव स्टडीज के सहयोग से लेखक पीयूष बबेले द्वारा रचित 298 पृष्ठीय “गांधी सियासत और सांप्रदायिकता” उन लेख, तथ्य और संदर्भों का सार है जो गांधी के विचार की शक्ल में सांप्रदायिकता और उसकी सियासत के खिलाफ बेहद मजबूती से खड़े होते हैं। यह किताब गांधी के विचारों का बेजा इस्तेमाल करने वालों को न सिर्फ आईना दिखाती है बल्कि उन्हें एकता का पुनर्पाठ भी कराती है।

किताब की भूमिका से ही यह बात खुलकर सामने आती है कि गांधी का पथ एकता और सन्मार्ग का है। वह हिंदू-मुसलमान को एकता की मजबूत डोर में बांधना चाहते थे। गांधी के हवाले से किताब के एक हिस्से में लिखा गया है “मैं दो समुदायों के बीच सबसे अच्छा सीमेंट बनने की कोशिश कर रहा हूं। मेरी लालसा यह है कि अगर जरूरत पड़े तो मैं अपने खून से दोनों को जोड़ सकूं। दोनों धर्मों में ऐसा कुछ नहीं है जिससे दोनों समुदायों को अलग रखा जा सके।”

गांधी के मन की व्यथा में कुप्रथाएं और सांप्रदायिकता सर्वोच्च बनी रहीं। किताब के एक हिस्से में वर्ष 1915 की बात है जब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका को अलविदा कहकर भारत आ गए थे। वह भारत को समझने की ललक में धार्मिक यात्राओं पर निकले। लेकिन हरिद्वार के कुंभ में उन्हें एक बड़ा झटका लगा। उस वक्त भारत हिंदू-मुसलमान में इस कदर बंटा हुआ था कि उनका पानी तक हिंदू और मुसलमान था। लेखक जिक्र करते हैं कि जब तक हिंदू पानी की आवाज नहीं लगाई जाती तब तक गला सूखने के बावजूद लोग पानी नहीं लेने नहीं जाते।

शायद यही कारण था कि गांधी ने भारत में अपने पहले राजनीतिक आंदोलन का मुख्य आधार भी हिंदू-मुस्लिम एकता ही रखा था। अंग्रेजों के रॉलेट एक्ट को काला कानून बताते हुए वह लोगों में अलख जगा रहे थे। 6 अप्रैल, 1919 को तय हड़ताल थी। गफलत में पंजाब और दिल्ली में 30 मार्च को ही रैली निकाल दी गई। दिल्ली में 9 लोगों पर गोली चली। इसमें चार हिंदू और पांच मुसलमानों ने शहादत दी। किताब में 6 अप्रैल, 1919 को गांधी के लिखित भाषण का जिक्र किया गया है। इस भाषण में गांधी हिंदू और मुसलमान दोनों के बलिदान का जिक्र करते हुए लोगों को सत्याग्रह और उसकी प्रतिज्ञाओं के बारे में समझाते हैं। वह हिंदू-मुसलमान के बलिदान को महान घटना भी करार देते हैं।

लेखक इस घटना का जिक्र करते हुए मीडिया की भूमिका को उजागर करता है। अंग्रेजों न बात को इस तरह उठाया जैसे गांधी अहिंसा नहीं, हिंसा का समर्थन कर रहे हों। जबकि असल में गांधी लोगों से शुद्ध सत्याग्रह का आग्रह कर रहे थे।

गोवध के नाम पर आज भी हिंदू-मुस्लिम आमने-सामने रहते हैं। किताब का एक हिस्सा गांधी के वक्त भी आई इस समस्या का जिक्र करता है। गांधी हिंदुओं के बीच मुसलिमों के प्रति गोवध से जुड़ी घृणा को कम करने के लिए कहते हैं कि जैसे घर में भाई से कोई चीज मांगी जाती है तो वह लड़कर नहीं विनय और सत्याग्रह के जरिए होती है। ऐसे ही हिंदू गोवध रोकने के लिए मुस्लिमों से विनय और सत्याग्रह का सहारा लें। गांधी कहतें हैं कि संभव है कि अधिकांश मुस्लिम गोवध त्याग देंगे।

जो लोग यह मानते हैं कि हिंदू-मुस्लिम साथ नही रह सकते, उन्हें यह किताब गांधी के हवाले से बताती है कि हिंदुओं में शैव और वैष्णव के झगड़े का जिस तरह से विराम हुआ और दोनों एक हो गए, इसी तरह से कालांतर में हिंदू-मुसलमान में भी विभेद मिट सकता है। किताब गांधी के हवाले से बार-बार इस पूर्वाग्रह को तोड़ती है कि हिंदू अहिंसक और मुस्लिम हिंसक होते हैं।

किताब में 8 दिसंबर, 2021 को यंग इंडिया में महात्मा गांधी के जरिए लिखे गए लेख का हवाला दिया गया है। इसमें गांधी कहते हैं कि “हिंदू-मुसलमान की जय” कहे बिना भारत को जय नहीं मिल सकती।

गांधी के जीवन सफर के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ती यह पुस्तक उनके अफ्रीका आंदोलन और फिर भारत में किए गए आंदोलन व प्रयोगों की बात करते हुए सांप्रदायिकता की समस्या को बार-बार सामने रखती है।

मोपला विद्रोह के बारे में आज एक सांप्रदायिक प्रचार फैला है। जबकि किताब तथ्यों के साथ इसे काश्तकार और जमींदार के बीच हुए संघर्ष की कहानी के तौर पर पेश करती है। साथ ही गांधी के लेखों और टिप्पणियों के जरिए आग्रह करती है कि सही संदर्भों में मोपला विद्रोह सांप्रदायिक नहीं बल्कि अंग्रेजों की फूट डालने की रणनीति थी।

गांधी से संवाद और विवाद दोनों को पुस्तक में जगह मिली है। रविंद्रनाथ टैगोर, भीमराव आंबेडकर, सावरकर और कई अन्य लोगों की टीका-टिप्पणियों और लेखों का जिक्र भी पाठक के लिए रोचकता और निरंतरता बनाए रखता है।

किताब का एक हिस्सा यह बताता है कि पूर्व से ही महात्मा गांधी को मुसलमानों का हितैषी और हिंदुओं का विरोधी बताया जाता रहा है, हालांकि यह सच नहीं रहा। वह दोनों को बराबर तरीके से प्रेमपूर्ण आचरण के लिए आग्रह करते रहते हैं। महात्मा गांधी ने 17 सितंबर, 1924 को दिल्ली से सीएफ एंड्रयूज को पत्र लिखकर 21 दिन उपवास के बारे में बताया था। इस उपवास के लिए दिल्ली में उन्होंने मुहम्मद अली और शौकत अली के घर को अपना ठिकाना बनाया। गांधी हिंदू-मुस्लिम के बीच बढ़ती दरार से झुब्ध थे।

गांधी कहते हैं, कुछ लोग चुप-चाप ऐसी चर्चा करते हैं कि मैं मुसलमान भाइयों में इतना पगा रहता हूं कि हिंदुओं के मन का भाव जानने लायक रह ही नहीं गया हूं। वह कहते हैं हिंदुओं के मन का भाव तो मेरे ही मन का भाव है। जब मेरे अस्तित्व का कण-कण हिंदू है तो हिंदुओं के मन का भाव जानने के लिए मुझको उनके बीच रहने की क्या जरूरत है?

16 अप्रैल, 1925 को “मेरी स्थिति” नाम के लेख में अपनी लाचारी को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा, “मैं हिंदू-मुस्लिम एकता में जान नहीं डाल सकता, सो उसके लिए मुझे कोई कार्यवाही करने की जरूरत नहीं। एक हिंदू की हैसियत से, मैं उन तमाम मुसलमानों की सेवा करूंगा जो मुझे करने देंगे।… मुझे अपने मन में पूर्ण विश्वास है कि एकता जरूर होगी, चाहे वह घमासान लड़ाइयों के बाद ही क्यों न हो, किंतु होगी जरूर।”

लेखक के मुताबिक, एक जगह गांधी यह भी स्पष्ट करते हैं कि खुद कुरआन की शिक्षाएं भी आलोचना से मुक्त नहीं हो सकती। गांधी लिखते हैं “इस्लाम के संबंध में लिखते समय मैं उसकी इज्जत का ख्याल उतना ही रखता हूं जितना हिंदू धर्म की इज्जत का।” वह कहते हैं जिस तरह शास्त्र की आज्ञा मानकर हर आदेश का समर्थन नहीं किया जा सकता उसी तरह कुरआन की किसी बात को सिर्फ इसलिए नहीं माना जा सकता कि वह कुरआन में लिखी है। प्रत्येक बात विवेक की कसौटी पर कसी जानी चाहिए।

किताब मोहम्मद अली जिन्ना के वक्त मुस्लिम सांप्रदायिकता के उभार और वीडी सावरकर के वक्त हिंदू सांप्रदायिकता के उभार के पक्ष को भी सामने रखती है। भारत-पाकिस्तान के विभाजन तक की यात्रा में बार-बार गांधी हिंदू-मुस्लिम सवालों से घिरे रहते हैं। वह निराश होकर भी कायम रहते हैं कि यह विभेद मिट जाएगा।

किताब शुरू से अंत तक बड़ी बारीकी से भौतिक दुनिया में सांप्रदायिकता से युद्ध का महात्मा गांधी के अभियान को सामने रखती है। एकता का एक ऐसा अभियान जो अभी अधूरा प्रतीत हो रहा है।

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