अब्दुल ग़फ़्फ़ार,पश्चिम चंपारण
अगर आप अपने शऊर और अपनी चेतना को वसीअ और गहरा करना चाहते हैं, तो किताबें आपकी बेहतरीन रफ़ीक़ बन सकती हैं। किताबें इंसान को मुख़्तलिफ़ सिम्त में सोचने पर मजबूर करती हैं। मुख़्तलिफ़ तजरिबात और नज़रियात से रू-शनास करवाती हैं और दुनिया को एक नए ज़ाविये, नए दृष्टिकोण से देखने की सलाहियत फ़राहम करती हैं।
दिसंबर की सर्दियों में आपको अपनी पसंद की कोई किताब मिल जाए, तो सर्दियों का एहसास जाता रहता है। ऐसी ही एक किताब मुझे मिली है ‘कुछ उनकी यादें कुछ उनसे बातें’।
”ग़म मंटो की मौत का नहीं है, मौत नागुज़ीर (अनिवार्य) है। मेरे लिए भी और तुम्हारे लिए भी। ग़म उन ना-तख़्लीक़-कर्दा (सृजन नहीं हुए) शह-पारों (अति उत्तम रचनाओं) का है, जो सिर्फ़ मंटो ही लिख सकता था। उर्दू में अच्छे से अच्छे अफ़सानानिगार पैदा हुए, लेकिन मंटो दोबारा पैदा नहीं होगा। और कोई उसकी जगह लेने नहीं आएगा। ये बात मैं भी जानता हूं और राजेंद्र सिंह बेदी भी, इस्मत चुग़ताई भी, ख़्वाजा अहमद अब्बास भी और उपेन्द्र नाथ अश्क भी।”
यह कहना है उर्दू के सबसे बड़े अफ़सानानिगार कृश्न चंदर का। यह उद्धरण मैंने लिया है ‘कुछ उनकी यादें कुछ उनसे बातें’ किताब से। इस किताब का लिप्यंतरण और संपादन किया है जाने-माने लेखक ज़ाहिद ख़ान ने, और प्रकाशन किया है एशिया पब्लिशर्स दिल्ली ने।
ज़ाहिद ख़ान हिन्दी साहित्य को उर्दू अदब से हम-आहंग करनेवाले उन लेखक, साहित्यकार और पत्रकार का नाम है जिनके दस-बीस नहीं, बल्कि हज़ार से ज़्यादा आलेख अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी अपनी तहरीर-कर्दा कई किताबें मसलन ‘आधी आबादी अधूरा सफ़र’, ‘फ़ैसले जो नज़ीर बन गए’, ‘तहरीक-ए-आज़ादी और तरक़्क़ीपसंद शायर’, ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र’ और ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक की रहगुज़र’ प्रकाशित हो चुकी हैं।
उनके लिप्यंतरण और संपादन में इससे पहले तीन किताबें ‘पौदे’ (कृश्न चंदर), ‘रूदाद-ए-अंजुमन’ (हमीद अख़्तर) और ‘यह किसका ख़ून है’ (अली सरदार जाफ़री) प्रकाशित हो चुकी हैं।
ज़ाहिद ख़ान मध्य प्रदेश के छोटे से शहर शिवपुरी में रहते हैं और नॉन-फ़िक्शन में ज़बान व अदब के लिए अच्छा काम कर रहे हैं। इस किताब में मेरे पांचों पसंदीदा अफ़सानानिगार कृश्न चंदर, राजिंदर सिंह बेदी, इस्मत चुग़ताई, सआदत हसन मंटो और ख़्वाजा अहमद अब्बास से जुड़ी यादें और उनसे जुड़ी बातें दर्ज हैं।
इन पांचों अफ़सानानिगारों के बिना उर्दू अफ़साने का तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता। इन पांचों में एक समानता और है, इन पांचों ने हिन्दी फ़िल्मों के लिए भी लिखा। यह अलग बात है कि कोई कामयाब रहा, तो कोई नाकाम।
प्रेमचंद, कृश्न चंदर, मंटो, इस्मत, बेदी, अब्बास और अहमद नदीम क़ासमी को पढ़-पढ़ कर ही मैंने लिखना सीखा है। मेरे पसंदीदा सात अफ़सानानिगारों में से पांच इस किताब में शामिल हैं। इसलिए यह किताब मेरे लिए आब-ए-हयात का दर्जा रखती है।
किताब समीक्षा : ‘कुछ उनकी यादें, कुछ उनसे बातें’, उर्दू से हिंदी लिप्यंतरण और संपादन : ज़ाहिद ख़ान, प्रकाशक : एशिया पब्लिशर्स दिल्ली-110085, पृष्ठ संख्या : 168, मूल्य : 300 रुपए
‘कुछ उनकी यादें कुछ उनसे बातें’ में कृश्न चंदर, राजिंदर सिंह बेदी, इस्मत चुग़ताई, ख़्वाजा अहमद अब्बास और सआदत हसन मंटो के ख़ाके (रेखाचित्र) और ख़ुद-नविश्त (आत्मकथा) के अलावा मज़ामीन (आलेख) और इंटरव्यू (साक्षात्कार) भी शामिल हैं।
मंटो का इंटरव्यू इसमें शामिल नहीं है। जिसके बारे में ज़ाहिद ख़ान लिखते हैं, ”लाख चाहने के बाद भी सआदत हसन मंटो का इंटरव्यू मुझे नहीं मिल सका। वजह, मंटो इन सब में सबसे पहले 1955 में ही सिर्फ़ 43 साल की उम्र में हमसे जुदा हो गये थे।
मंटो के कई ख़ाके तो हमें मिल जाते हैं, लेकिन उनका कोई इंटरव्यू मेरी नज़र से नहीं गुज़रा। तमाम कोशिशों के बाद भी मैं उनका कोई इंटरव्यू नहीं ख़ोज सका।
”किताब में कृश्न चन्दर से बलवंत सिंह की दिलचस्प गुफ़्तगू शामिल है। जिसमें कृश्न चन्दर के एहसासात और जज़्बात उभर कर सामने आते हैं और उनकी ज़िंदगी के मुख़्तलिफ़ पहलू उजागर होते हैं। उसके बाद कृश्न चन्दर की बीवी सलमा सिद्दीक़ी का इंटरव्यू है।
जिसमें वो बताती हैं कि ”अपने आप को…अपने फ़न को, कृश्नजी तराज़ू में तौलने की इजाज़त नहीं देते थे। वो कहते थे, ‘हम सभी लिखनेवाले हैं। सभी एक ज़माने में, एक माहौल में लिख रहे हैं। अगर बेदी ने कोई कमज़ोर कहानी लिख ली, तो उससे कृश्न चन्दर का पलड़ा भारी नहीं हो जाता। हर अफ़सानानिगार अपनी मजमूई हैसियत से पहचाना जाता है।”
कृश्न चन्दर के बाद किताब में राजिंदर सिंह बेदी का ज़िक्र आता है। जिसमें उनका आत्मकथ्य, आलेख और इंटरव्यू शामिल हैं। किताब में बेदी की एक फ़िल्म ‘आँखें देखी’ का ज़िक्र है, जिसके बारे में बेदी कहते हैं, ”वो मेरे बीमार होने से पहले बनी थी। और उसके बाद दरमियान में ही रह गयी।
एनएफ़डीसी का पैसा उसमें लगा हुआ था। पांच लाख उन्होंने उसमें लगाए थे। जो बाद में बढ़कर दस लाख हो गए। फिर उस पर लेबोरेट्री वालों ने सूद इतना लिया कि वो फ़िल्म बन के, मुकम्मल हो के डिब्बों में बंद पड़ी है। अब कोई पंद्रह-बीस लाख रुपये लगाए और उसे निकलवाए। बस इसी वजह से वो फ़िल्म ख़राब हो रही है।”
आगे चलकर बेदी अपने बारे में बताते हैं, ”मैं छह साल से लंगड़ा के चलता हूं। हाथ मेरे काम नहीं करते। मैं पैरालिसिस का मरीज़ हूं। अब मैं निकला हूं उससे, तो रेक्टल कैंसर का शिकार हो गया हूं। जिसमें एक तरफ़ से पेट फाड़ के दर्द कम किया जाता है और बाक़ी रेक्टल ऊपर आ जाती है।”
इससे यह जानकारी मिलती है कि बीमारी की वजह से ही बेदी ने दूसरे अफ़सानानिगारों से कम लिखा है। लेकिन जो भी लिखा है कमाल का लिखा है। बेदी लिखते हैं, ”ग़रज़ कि कम लिखते हुए भी अस्सी कहानियां पैंतालीस साल में लिखी हैं। और अब भी लिखने की ख़्वाहिश है।”
उसके बाद ज़िक्र आता है इस्मत चुग़ताई का। सबसे पहले ‘इस्मत के अफ़साने’ शीर्षक से कृश्न चंदर ने जो भूमिका लिखी है, उससे ज़ाहिर होता है कि इस्मत के ज़्यादातर अफ़साने पारिवारिक पृष्ठभूमि पर लिखे गए हैं। उनके अफ़सानों के ज़्यादातर किरदार उनके अपने ख़ानदान की उपज मालूम पड़ते हैं।
कृश्न चंदर लिखते हैं, ”पहले पहल जब मैंने इस्मत चुग़ताई के अफ़साने पढ़े, तो मुझे ये मालूम हुआ कि मेरे ज़ेहन की चारदीवारी में एक नया दरीचा खुल गया है। यह दरीचा जो मेरे विवेक और चेतना की दुनिया में एक नये मंज़र का इजाफ़ा करता है।”
फिर नंबर आता है ख़्वाजा अहमद अब्बास का। अब्बास के कहानी संग्रह पर कृश्न चंदर की लिखी भूमिका शामिल है और एक इंटरव्यू भी है, जो कृश्न चंदर ने ही किया है।
अब्बास के कहानी संग्रह ‘पांव के फूल’ की भूमिका में कृश्न चंदर लिखते हैं,”अब्बास की तहरीरों में फ़ौरी तासीर और मुस्तक़िल तासीर दोनों मिलते हैं। मुझे अब्बास के अफ़सानों में जो बात सबसे ज़्यादा पसंद है, वो दूसरों को सबसे ज़्यादा नापसंद है। यानी उनका अंदाज़-ए-निगारिश (लिखने की शैली)। उनकी बेमिसाल सादगी और सलासत।”
इंटरव्यू में एक जगह अब्बास कहते हैं, ”एक अदीब को अपने किरदारों में अपने आपको ज़ाहिर करते हुए भी उनसे अलग-थलग रहना चाहिए। जैसे एक डॉक्टर अपने मरीज़ों से लगाव रखते हुए भी उनसे अलग रहता है। उसे डॉक्टर रहना चाहिए, ख़ुद मरीज़ न बनना चाहिए।
जैसे बहुत से अफ़सानानिगार अपने अदब में ज़ाहिर यौन संबंधों में अपनी वासना की भूख मिटाने लगते हैं।” इस किताब से वाज़ेह होता है ख़्वाजा अहमद अब्बास न सिर्फ़ अफ़सानानिगार थे बल्कि फिल्मों में कथा-पटकथा लेखक और निर्देशक भी थे। पत्रकार भी थे और सोशल वर्कर भी थे। और सबसे बढ़कर एक हमदर्द और दोस्त-परवर इंसान भी थे।
ज़ाहिद ख़ान ने आख़िरी अफ़सानानिगार के रूप में सआदत हसन मंटो को शामिल किया है। इसमें मंटो का एक छोटा-सा आत्मकथ्य शामिल है, तो कृश्न चंदर के लिखे हुए दो बेमिसाल ख़ाके भी शामिल हैं। कृश्न चंदर लिखते हैं, ”मंटो ने ज़िंदगी के मुशाहिदे में अपने आपको एक मोमी शमा की तरह पिघलाया है।
वो उर्दू अदब का वाहिद शंकर है, जिसने ज़िंदगी के ज़हर को ख़ुद घोल के पिया है। और फिर उसके ज़ायके को, उसके रंग को खोल-खोल के बयान किया है। लोग बिदकते हैं, डरते हैं, मगर उसके मुशाहिदे की हक़ीक़त और उसके इदराक की सच्चाई से इंकार नहीं कर सकते।
ज़हर खाने से अगर शंकर का गला नीला हो गया था, तो मंटो ने भी अपनी सेहत गंवा ली है। उसकी ज़िंदगी इंजेक्शन की मोहताज हो के रह गई है। ज़हर मंटो ही पी सकता था। और कोई दूसरा होता, तो उसका दिमाग़ चल जाता। मगर मंटो के दिमाग़ ने ज़हर को भी हज़म कर लिया है।”
समाज की जितनी भी बुराईयों का ज़िक्र मंटो के अफ़सानों में मिलता है, उन तमाम बुराईयों को मंटो ने न सिर्फ़ बेहद क़रीब से देखा है, बल्कि उनमें डूबकर उनकी लज़्ज़तों को महसूस भी किया है। मेरे ख़याल से मंटो को ‘गुनाहों का देवता’ का लक़ब देना मुनासिब जान पड़ता है।
मंटो ख़राब नहीं थे, ज़माना ख़राब था और ज़माना ख़राब है। वो तो बस अपने अफ़सानों में समाज को उसका असली चेहरा दिखाने का काम करते थे। मंटो ने ठीक ही कहा कि ”मेरे अफ़साने नहीं, ज़माना नाक़ाबिले बर्दाश्त है।” और यह भी ठीक कहा कि ”मैं उस सोसाइटी की चोली क्या उतारूंगा, जो है ही नंगी। मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, क्योंकि यह मेरा काम नहीं, दर्ज़ियों का काम है।”
उन्होंने अपनी तहरीरों में बार-बार उस मुनाफ़िक़त और बर्बरियत को बेनक़ाब किया था, जो इंसानियत के चेहरे पर तहज़ीब का नक़ाब ओढ़ कर छुपी हुई थीं। उनकी किताबें उनकी चीख़ें थीं, जो समाज के बहरे कानों तक कभी नहीं पहुंच सकीं। आख़िर में कृश्न चंदर लिखते हैं, ”एक अजीब हादसा हुआ है, मंटो मर गया है। गो वो एक अरसे से मर रहा था।
कभी सुना कि वो पागलख़ाने में है। कभी सुना कि कसरत-ए-शराबनोशी से अस्पताल में पड़ा है। कभी सुना कि यार-दोस्तों ने उससे क़त’-ए-त’अल्लुक़ कर लिया है। कभी सुना कि वो और उसकी बीवी-बच्चे फ़ाक़ों पर गुज़र कर रहे हैं। बहुत सी बातें सुनी।
हमेशा बुरी बातें सुनीं, लेकिन ये यक़ीन न आया। क्यूंकि उस अरसे में उसके अफ़साने बराबर आते रहे। अच्छे अफ़साने भी और बुरे अफ़साने भी। जिन्हें पढ़कर, मंटो का मुंह नोचने को जी चाहता था। और ऐसे अफ़साने भी जिन्हें पढ़कर उसका मुंह चूमने का जी चाहता था।”
ज़ाहिद ख़ान ने हालांकि इस किताब में मंटो पर कम मटेरियल है, लेकिन रुलानेवाला मटेरियल पेश किया है, जो कृश्न चंदर का लिखा हुआ है। इस किताब में कृश्न चंदर ने यूं तो इस्मत चुग़ताई और ख़्वाजा अहमद अब्बास पर भी ख़ूब लिखा है, लेकिन जो कुछ मंटो पर लिखा है वो संग-ए-मील की हैसियत रखता है।
यूं लगता है कि कृश्न चंदर की दोस्ती सबसे थी, लेकिन मंटो से रूहानी रिश्ता था। जैसा कि कृश्न चंदर ने कहा था कि ”अगर वो उस वक़्त बंबई में रहते, तो मंटो को पाकिस्तान नहीं जाने देते।” मंटो ना पाकिस्तान जाते, ना उनकी दुर्गति होती। तब शायद ना जाने कितने लाफ़ानी अफ़साने मंटो लिख जाते।
किताब के आख़िर में ज़ाहिद ख़ान ने ‘एक और तस्वीर’ के उन्वान से कृश्न चंदर की बीवी सलमा सिद्दीक़ी का मज़मून शामिल किया है, जो इस किताब की जान है। इसमें सलमा सिद्दीक़ी ने अपने घर पर आयोजित उस साहित्यिक गोष्ठी का मज़ेदार ज़िक्र किया है जिसमें उस वक़्त बंबई में मौजूद तमाम बड़े अदीबों और शायरों ने हिस्सा लिया था।
इस गोष्ठी में मेज़बान कृश्न चंदर और सलमा सिद्दीक़ी के अलावा अली सरदार जाफ़री, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, फ़िरदौस मजरूह, राजिंदर सिंह बेदी, इस्मत चुग़ताई, क़ुर्रतुल एन हैदर, ख़्वाजा अहमद अब्बास, कृश्न चंदर के भाई महेंद्र नाथ, मुनीष नारायण सक्सेना, मनहर जी, महावीर अधिकारी, धर्मवीर भारती और पुष्पा भारती वग़ैरह शामिल थे।
इस गोष्ठी में सभी साहित्यकार एक साथ मिल बैठकर ख़ूब खाते-पीते हैं। उनकी नोकझोंक और उनकी तकरार के क़िस्से पढ़कर मज़ा आ जाता है। मंटो की मौत का क़िस्सा पढ़ने के बाद, पाठकों के दिल पर जो उदासी छायी रहती है, वो इस गोष्ठी में शामिल लेखकों की चुहलबाज़ी और उनके मनोरंजक संवादों को पढ़ने के बाद बहुत हद तक दूर हो जाती है।
आख़िर में यह कहना चाहता हूं कि ‘कुछ उनकी यादें कुछ उनसे बातें’ एक बेहद ज़रूरी किताब है, उनके लिए जो अपने महबूब अफ़सानानिगारों के बारे में गहरी जानकारी रखना चाहते हैं। यह किताब तथ्यों पर आधारित है, इसमें कुछ भी मुबालग़ा-आराई (अतिशयोक्ति) नहीं है।
यह फ़िक्शन नहीं, नॉन-फ़िक्शन है। इसमें कृश्न, बेदी, मंटो, इस्मत और अब्बास की ज़िंदगी और उनके लेखकीय संघर्षों को रेखांकित किया गया है। उन संदर्भों का ज़िक्र भी इस किताब में शामिल है, जो कहीं दूसरी जगह इकठ्ठा पढ़ने को नहीं मिल सकता।
हिन्दीभाषी पाठकों के लिए ज़ाहिद ख़ान ने सबसे अच्छा काम ये किया है कि हर कठिन और दुश्वार उर्दू, अरबी, फ़ारसी लफ़्ज़ का हिन्दी अनुवाद कर दिया है। जिसके चलते पाठकों को किताब पढ़ने में कहीं रुकावट पेश नहीं आती।