अनिल त्रिवेदी
स्वतंत्र लेखक
लो कतंत्र एक पक्षीय या एक दलीय नहीं हो सकता है। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की सामान्य न्यूनतम निरंतर उपस्थिति से ही सामान्य रूप से लोकतंत्र सहजता से चल सकता है। भारतीय लोकतंत्र बहुदलीय होकर अपने जन्म के पचहत्तर वर्ष पूरे कर चुका है। इतना समय बीत जाने पर भी भारतीय लोकतंत्र में सहज सत्ता पक्ष और सहज विपक्ष का उदय या विकास न हो पाना एक ऐसा सवाल है जिसकी केवल व्यापक चर्चा ही नहीं वरन सहज लोकतंत्र की दिशा में कदम बढ़ाना भी जरूरी है। साथ ही साथ वास्तविक लोकतंत्रात्मक राजनैतिक व्यवहार भारतीय समाज में खड़ा करने की दृष्टि से नीचे से लेकर ऊपर तक खुला संवाद भी करते रहना बेहद जरूरी है। लोकतंत्र आपसी संवाद, सद्भाव और समझ के बिना जीवन्त लोकतंत्र नहीं बन सकता।
वैसे भारतीय लोकतंत्र लोक संख्या के हिसाब से दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। देश की आजादी के बाद से बनने वाली सभी सरकारें वयस्क मताधिकार के आधार पर ही चुनी गई है। यह बात बहुदलीय भारतीय लोकतंत्र की मजबूती का एक अनोखा उदाहरण हैं। पर देश की विधि, विधान, संविधान में राजनैतिक दल बनाने की जो प्रक्रिया निर्धारित है उसके अनुसार ही भारत में मौजूद सैकड़ों राजनैतिक दल पंजीकृत तो हो गये पर राजनैतिक दल देश व्यापी सोच, समझ और विस्तार वाले आज तक नहीं बन पाये, कहां और क्या कमी रह गई? यह खुली बातचीत से हम समझ सकते हैं। भारतीय लोकतंत्र में विकसित हुए सभी राजनैतिक दल कानून और कागज पर तो लोकतांत्रिक तरीके से पंजीकृत हैं पर मन वचन और कर्म से लोकतंत्र की आत्मा से एकाकार हो अपने दैनंदिन कार्य कलापों को करते हुए नहीं महसूस होते है। भारतीय राजनीति का बाहरी ढांचा भले ही लोकतांत्रिक व्यवस्था वाला दिखाई देता हो पर अंदरूनी व्यवहार में स्थित एकदम उलट है। भारत के नागरिकों में आपस में जो सोच समझ और एक दूसरे के प्रति व्यवहार का तौर तरीका है उसका भारतीय लोकतंत्र की राजनीति और विशेषकर चुनावी राजनीति पर गहरा असर दिखाई देता है। पचहत्तर सालों के बाद भी लोकतांत्रिक व्यवस्था और संस्कारों को प्राणप्रण से अपना ही नहीं पाये हैं। पर इस सब के बाद भी भारत के राजनैतिक दल और मतदाता दोनों ही को चुनाव का असाधारण चस्का लग गया है। यही बात भारतीय लोकतंत्र की विशेषता और कमजोरी दोनों बन गई है।
यह भी खुली सच्चाई है कि आज तक का भारतीय लोकतंत्र का सत्ता पक्ष और विपक्ष अपनी अपनी सुविधा के लोकतंत्र में, बुनियादी या सचेत लोकतंत्र की अपेक्षा ज्यादा भरोसा करता दिखाई देता है।
यह खुली सच्चाई है कि आज तक का भारतीय लोकतंत्र का सत्ता पक्ष और विपक्ष अपनी अपनी सुविधा के लोकतंत्र में बुनियादी या सचेत लोकतंत्र की अपेक्षा ज्यादा भरोसा करता दिखाई देता है। आजादी के बाद से भारत में कई राजनैतिक दल अकेले या समूह में गठबंधन बना कर सत्ता पक्ष और विपक्ष की भूमिका में काम करने का अवसर पाते रहे हैं पर सभी राजनीतिक दलों ने अपनी सत्ता पक्ष और विपक्ष की भूमिका के साथ वैसा न्याय नहीं किया जैसा भारत जैसे प्राचीन वैचारिक पृष्ठभूमि वाले देश में होना चाहिए। इसी कारण भारत में लोकतंत्र की लंबी परम्परा के बाद भी लोकतांत्रिक मूल्यों का उदय उस तरह नहीं हो पाया जिसकी कल्पना हमारे स्वाधीनता आंदोलन के लिए अपना सबकुछ लुटा देने वालों स्वतंत्रता संग्रामके योद्धाओं के मनों में स्वराज के रूप में समायी हुई थी और जी स्वतंत्र लोकतांत्रिक देश की जनता के मन का सबसे बड़ा सपना थी। स्वतंत्रता और स्वराज की संकल्पना में आज भी अधूरापन महसूस होता है। लोकतंत्र लोगों का लोगों पर लोगों का शासन की पद्धति है। लोकतंत्र में सभी विचारों और सभी समूहों को अवसर दिये बिना हम भारतीय लोकतंत्र को सहजता से नहीं चला सकते। भारत में आज हम सबको मिलकर ही लोकतांत्रिक तरीके से देश और व्यवस्था को चलाने में सबको अवसर और मौका दिये बिना आबादी को राजनैतिक प्रक्रियाओं में शामिल ही नहीं कर सकते हैं।
सबसे बड़ी जनसंख्या वाले देश होने से भारत को एक निर्णायक भूमिका पर खुली चर्चा कर या विचार विमर्श कर यह निर्णय लेना चाहिए कि किसीभी नागरिक को किसी भी संवैधानिक निर्वाचित पद पर लगातार दो बार से अधिक निर्वाचित होने का अवसर नहीं प्रदान किया जाना चाहिए। यानी दो बार विधायक और दो बार लोकसभा, दो बार राज्यसभा। इस तरह अधिकतम कुल बत्तीस सालों तक कोई भी नागरिक निर्वाचित जनप्रतिनिधि के रूप में कार्यरत रह कर अपने विधायक या संसदीय जीवन का सबसे जीवन्त और ऊर्जावान योगदान देश और समाज को देकर विधायी और संसदीय कार्य कलापों को समयबद्ध तरीके से सम्पत रहने की चुनौती जनप्रतिनिधि और नागरिकों के मन में पैदा की जा सकती है।
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