अग्नि आलोक
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ब्रह्म है शब्द

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शशिकांत गुप्ते

सीताराम जी आज बहुत ही गम्भीर मानसिकता में दिखाई दिए।
सीतारामजी किसी अज्ञात शायर शेर पढ़ रहे थे।
सुकून मिलता है दो लफ्ज़ कागज़ पर उतार कर
कह भी देता हूँ और आवाज नहीं होती
सीतारामजी ने जो शेर पढा, और शेर के माध्यम से जो भाव प्रकट किए हैं,मैने इन्ही भावनाओ को प्रकट करती मेरी रचना सीतारामजी को सुनाई
कलम नहीं
है शक्ति अभिव्यक्ति की
जोड़ कर
अक्षर अक्षर
अंकित करती
शब्दों को
बनतें प्रेरणा स्रोत
शब्द
गीत,प्रेम के
क्रांति के
बनते भजन
भक्ति के
सागर की गहराई के
सरिताओं की कलकल के
यही कलम करती अंकित
चित्र के माध्यम से जीवंत
कथा,कहानी
भूगोल,इतिहास
पौराणिक कथाओं को
सृष्टि के सौंदर्य को
हूबहू जस का तस
क्रांति है
कलम की शक्ति में
नहीं है सिर्फ अभिव्यक्ति
जरूरत नहीं इसे सड़क पर
नारे लगाने की
शब्द ब्रह्न ही नही है
ब्रह्मास्त्र है
कलम में
नहीं होती सिर्फ स्याही
होता है
विचारों का लावा
ला सकती है
सिर्फ कलम ही
वैचारिक क्रांति
दूर करने के लिए भ्रांति
सक्षम है कलम
एक एक अक्षर से
बने शब्द
शब्दों के बन जाते हैं,वाक्य
हो जाते हैं अमिट
रह जाते हैं स्मृति में
कहानी,कविता, गीत
के रूप में
लिखती है
कलम ही
नाटक, फ़िल्म की पटकथा,
रंगमंच के लिए संवाद
और दृश्य
प्रकट करते हैं
होकर भी अदृश्य
सिर्फ शब्द।
सहजता,और सरलता से
कलम की शक्ति को
मुश्किल नहीं
है नामुमकिन भी
पहचान पाना
कलम की शक्ति
अंनत है
उद्वेलित करने
की क्षमाता
मानव के मानस को
कलम में ही है।

( यह रचना 2 फरवरी 2020 की है)
यह रचना सुनाने पर सीतारामजी ने कहा आज शब्दों पर पाबंदी लगाने की कोशिश की जा रही है।
मैने कहा यह कोशिश असफल ही होगी।
शब्दों पर पाबंदी सिर्फ संसद और विधानसभा के सभागृह में लगाई जा सकती है। देश के हर एक व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो संविधान द्वारा प्राप्त है।
मैने सीतारामजी के गम्भीर मुड़ को थोड़ा सहज करने के लिए एक वाकया सुनाया।
“एक मनोरंजन कार्यक्रम की याद आई। बीसवीं सदी के सत्तरवे दशक (सन 1962) में चीन के साथ युद्ध हो बाद आकाशवाणी पर फौजी भाइयों के लिए उनके पसंददीदा फिल्मी गानों का एक कार्यक्रम शुरू किया गया था।
विविध भारती पर प्रसारित इस कार्यक्रम का नाम था जयमाला
इस कार्यक्रम को फिल्मी अभिनेता और अभिनेत्री प्रस्तुत करते थे। जयमाला के एक कार्यक्रम को मशहूर हास्य अभिनेता महमूदजी ने भी इस कार्यक्रम को प्रस्तुत किया था।
महमूदजी से कर्यक्रम के दौरान पूछा गया, फ़िल्म के पर्दे पर अभिनेता और अभिनेत्री को आपस में चुम्बन लेने मनाई है?
हास्य कलाकार महमूदजी ने जो जवाब दिया था वह बहुत लाजवाब था। महमूदजी ने कहा हाँ पर्दे पर चुम्बन लेना मना है,लेकिन पर्दे के पीछे लोग धड़ाधड़ लेतें देतें हैं।”
यह वाकया सुनकर सीतारामजी को जोर से हँसी आ गई।
सीतारामजी कहने लगे, सच में
सड़को पर असंसदीय भाषा का धडल्ले से उच्चारण हो रहा है।
उच्चारण करने वाले बेख़ौफ़ हैं,कारण वे जानते है इस कहावत को जब सँया भए कोतवाल तो डर काहे का
मैने कहा आप भी कलम के सिपाही हो।
आओ अपन साथ मिलकर दुष्यन्त कुमार के इस शेर को पढतें हैं।
मै बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूँ
मै इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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