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भारत में ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय समस्या है भाई-भतीजाबाद

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डॉ हिदायत अहमद खान

भारत में भाई-भतीजावाद और परिवारवाद को लेकर राजनीतिक गलियारे से लेकर विभिन्न क्षेत्रों में सदा से ही गर्मा-गरम बहस होती चली आ रही है। परिवारवाद के नाम पर कांग्रेस सदा से विरोधियों के निशाने पर रही है। अब जबकि केंद्र में भाजपा नीत सरकार लंबे समय से बर्चस्व में है तो यहां पर भी भाई-भतीजाबाद के आरोप लगने शुरु हो गए हैं। चुनावी टिकट का मामला हो या पदों के बंटबारे की बात हो, सभी जगह परिवारवाद हावी होता दिखता है। हद तब हो जाती है जब सरकारी नौकरियों में भाई-भतीजाबाद खूब फलता-फूलता दिखता है। यहां बताते चलें कि यह बीमारी महज भारत में पल रही हो ऐसा नहीं है, बल्कि इसकी जद में दुनियां की महाशक्ति कहा जाने वाला अमेरिका तक आ चुका है।

अमेरिका जैसे लोकतांत्रिक देश में जहां राजनीतिक पारदर्शिता और संस्थागत संतुलन पर ज़ोर दिया जाता है, वहाँ भी प्रशासनिक नियुक्तियों में परिवारवाद और व्यक्तिगत संबंधों की भूमिका एक विवादास्पद विषय बना हुआ है। नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बयान और अब उनके फैसले को लेकर दुनियाभर में चर्चाएं हो रही हैं। खास चर्चा उनकी नियुक्तियों को लेकर हो रही है। उनकी प्रशासनिक नियुक्तियों ने भाई-भतीजावाद वाली बहस को एक बार फिर से हवा दे दी है। दरअसल ट्रंप ने अपने परिवार के करीबी सदस्यों और सहयोगियों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया है, जिससे अमेरिकी राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय मंच पर कई सवाल खड़े हो गए हैं। वैसे यह कोई नई बात नहीं है, क्योंकि इससे पहले भी ट्रंप के प्रशासन में पारिवारिक सदस्यों को खास नियुक्तियां देने का अपना ही एक अलग इतिहास रहा है।

अपने पिछले कार्यकाल में उन्होंने अपनी बेटी इवांका ट्रंप और उनके पति जारेड कुशनर को व्हाइट हाउस में वरिष्ठ सलाहकार के तौर पर नियुक्त किया था। अब जो ताजा मामला सामने आया है, उसमें उन्होंने अपने एक समधी अरबपति मसाद बाउलोस को मध्य पूर्व मामलों के सलाहकार के रूप में और दूसरे समधी रियल एस्टेट कारोबारी चार्ल्स कुशनर को फ्रांस में अमेरिकी राजदूत के रूप में नियुक्त किया है। इस कदम ने उनके आलोचकों को एक बार फिर यह कहने का मौका दिया है कि ट्रंप प्रशासन भाई-भतीजावाद और देश के हितों के टकराव से भरा हुआ है। इन नियुक्तियों को लेकर कहा तो यहां तक जा रहा है कि इनका अंतरराष्ट्रीय मंच पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है। मध्य पूर्व जैसे संवेदनशील क्षेत्र में मसाद बाउलोस की नियुक्ति ने यह सवाल उठाया है कि क्या व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर ऐसे अहम पदों पर की जा रहीं नियुक्तियां अमेरिका की कूटनीति को कमजोर करने वाली साबित नहीं होंगी? हालांकि, ट्रंप ने बाउलोस को एक अनुभवी और प्रभावशाली व्यक्ति के रूप में पेश किया, लेकिन आलोचकों का तर्क है कि ऐसे व्यक्तियों की नियुक्ति अमेरिकी कूटनीति की पारंपरिक संरचना और उसकी निष्पक्षता को कमजोर करती है। चार्ल्स कुशनर की फ्रांस में नियुक्ति, जो अमेरिका का एक महत्वपूर्ण सहयोगी है, ने भी इसी तरह की चिंताओं को जन्म दिया है।

एक राजदूत का काम पारंपरिक रूप से पेशेवर राजनयिकों या अनुभवी व्यक्तियों को सौंपा जाता है। परिवार के सदस्यों की नियुक्ति से यह छवि बनती है कि अमेरिकी विदेश नीति में व्यक्तिगत हित ज्यादा अहम हो गए हैं और राष्ट्रहित दोयम दर्जे पर जाते दिख रहे हैं। चिंता इसलिए भी है क्योंकि ट्रंप के परिवार के सदस्यों की नियुक्तियों पर अक्सर हितों के टकराव के आरोप लगते रहे हैं। जारेड कुशनर के पिछले विवादों को देखते हुए, यह चिंता बढ़ जाती है कि ऐसी नियुक्तियां राजनीतिक स्वार्थों को बढ़ावा दे सकती हैं। उदाहरण के तौर पर, ट्रंप द्वारा जारेड कुशनर को 2005 के अपराध मामले में माफी देने और बाद में उन्हें व्हाइट हाउस में अहम भूमिका देने से पारदर्शिता पर सवाल खड़े हुए। अमेरिकी प्रशासन की ऐसी नियुक्तियां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी आलोचना का केंद्र बन सकती हैं। अमेरिका के सहयोगी और विरोधी देश दोनों ही इस तरह की नियुक्तियों को राजनीतिक और कूटनीतिक प्रक्रियाओं की कमजोरी के रूप में देख सकते हैं। यह स्थिति अमेरिकी नेतृत्व की विश्वसनीयता को कमजोर कर सकती है, खासकर उन देशों में जो पारिवारिक और व्यक्तिगत प्रभाव से दूर एक पारदर्शी और संस्थागत शासन प्रणाली का अनुसरण करते हैं।

बहरहाल ट्रंप के मौजूदा फैसले इस बात का संकेत देते हैं कि वह अपनी नीतियों और प्रशासनिक फैसलों में अपने परिवार और करीबी सहयोगियों पर भरोसा करने की नीति को जारी रखेंगे। हालांकि, इस तरह के कदमों से अमेरिकी संस्थाओं और उनके वैश्विक प्रभाव पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ सकता है। ट्रंप की ये नियुक्तियां अमेरिकी राजनीति में भाई-भतीजावाद और हितों के टकराव की बहस को फिर से बढ़ावा देगी, लेकिन भारत में इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि यहां पहले से ही इस तरह के प्रयोग होते रहे हैं, जिनका असर दूरगामी तौर पर देखने को मिल रहा है।

ऐसे में भाई-भतीजावाद और परिवारवाद से बचने अमेरिका भारत से सबक ले सकता है। फिलहाल यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि इस तरह के फैसले अमेरिका की घरेलू और अंतरराष्ट्रीय नीतियों को कैसे प्रभावित करते हैं। लोकतंत्र में पारदर्शिता और निष्पक्षता को बनाए रखना एक महत्वपूर्ण चुनौती है, और यही कारण है कि इन विवादों का अध्ययन करना और उनसे सबक लेना भविष्य की नीतिगत दिशा के लिए अनिवार्य माना जाता है।

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