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दिल्ली के लिए नया नहीं है बुलडोजर का गवर्नेंस मॉडल

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उमेश चतुर्वेदी
इसे लोकप्रियता कहें या चलन, उत्तर प्रदेश से शुरू हुआ गवर्नेंस का बुलडोजर मॉडल उत्तर प्रदेश की सीमाओं को पार कर चुका है। जिस तरह से इसे जनता के एक वर्ग का समर्थन मिल रहा है, उससे लगता नहीं कि इस पर स्थायी ब्रेक लग सकता है। बेशक, राजधानी दिल्ली के जहांगीरपुरी के संदर्भ में राज व्यवस्था के इस औजार पर तत्कालिक ब्रेक लग गया है, लेकिन सुनवाई कर रहे जज ने जिस तरह बचाव पक्ष के वकीलों से सवाल-जवाब किया है, उससे साफ है कि अतिक्रमण की संस्कृति को लेकर न्यायालय भी चिंतित है।

तुर्कमान गेट
गवर्नेंस का बुलडोजर मॉडल दिल्ली के लिए नया नहीं है। यह संयोग ही है कि जिस अप्रैल महीने में जहांगीरपुरी में बुलडोजर चला, उससे ठीक 46 साल पहले तुर्कमान गेट में भी बुलडोजर ने हजारों लोगों को बेघर किया था। बस तारीख का अंतर है। 46 साल पहले की तारीख 16 अप्रैल थी और 2022 की तारीख 21 अप्रैल रही। 46 साल पहले जब बुलडोजर चला था तो उसके पीछे सौंदर्यीकरण का हवाला दिया गया था, जबकि अब के बुलडोजर का घोषित मकसद अतिक्रमण को हटाना रहा।

दिल्ली में चले बुलडोजर और उस पर सुप्रीम कोर्ट की रोक के बाद बुलडोजर का गवर्नेंस मॉडल बहस के केंद्र में है। हाल के कुछ वर्षों में हमने जिस तरह का मानस तैयार किया है, उसमें किसी भी विषय पर सम्यक विमर्श की गुंजाइश लगातार कम होती जा रही है। निश्चित तौर पर चर्चा के इस मॉडल को बढ़ावा देने में आज की राजनीति का बड़ा योगदान है। चूंकि आज की राजनीति का लक्ष्य सिर्फ सत्ता हासिल करना रह गया है, लिहाजा वह अपना हर कदम अपने आधार वोट बैंक के नजरिए से ही उठाती है।

कहना न होगा कि चाहे उत्तर प्रदेश हो या मध्य प्रदेश या फिर दिल्ली, बुलडोजर के गवर्नेंस मॉडल की आलोचना और प्रशंसा अपने-अपने राजनीतिक नजरिये से हो रही है। इसे लेकर लोगों के बीच दो तरह की साफ विचारधारा दिख रही है। बुलडोजर के गवर्नेंस मॉडल के विरोधियों का मकसद अल्पसंख्यवाद को बढ़ावा देना है तो इस गवर्नेंस मॉडल की समर्थक राजनीति इसे अपराध और अतिक्रमण विरोधी बनाने की कोशिश में है।

उत्तर प्रदेश में हालिया विधानसभा चुनाव में इसके विरोध को मुद्दा बनाने की कोशिश भी हुई। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को बुलडोजर बाबा तक कहा गया। राज्य में बीजेपी विरोधी राजनीति का लक्ष्य इस बहाने से पार्टी को सत्ता से बाहर करना रहा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। इससे लगता है कि बुलडोजर के गवर्नेंस मॉडल को लोगों का समर्थन मिल रहा है। यह समर्थन ही है कि मध्य प्रदेश में भी इसी मॉडल को अपनाया जाने लगा है।

आखिर इस मॉडल को समर्थन क्यों मिल रहा है, विरोधी राजनीतिक ताकतों को इस पर भी सोचना चाहिए। उत्तर प्रदेश में इस शासन मॉडल का इस्तेमाल पुलिस उन अपराधियों के खिलाफ खुलेआम करने लगी है, जो जघन्य अपराधों के बाद फरार हैं। अपराधियों के खिलाफ बुलडोजर कार्रवाई जैसे ही शुरू हो रही है, वे खुद-ब-खुद पुलिस या अदालतों के समक्ष समर्पण कर रहे हैं। जनता चाहे किसी भी राजनीतिक विचारधारा की समर्थक हो, उसे शांति और समृद्धि चाहिए होती है। बुलडोजर के गवर्नेंस मॉडल के खौफ के जरिए अगर उसे राहत मिलती है तो उसके समर्थन में उसे आना ही है। यही वजह है कि मध्य प्रदेश में भी जब इस मॉडल को अजमाया गया तो उसे जनसमर्थन मिला।

भारतीय संविधान जाति, धर्म और नस्ल के आधार पर भेदभाव नहीं करता। अव्वल तो इस आधार पर राजनीति भी नहीं होनी चाहिए। लेकिन यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि चाहे 1937 के चुनाव हों या बाद के दौर के, हर बार राजनीति ने जाति और धर्म के दायरे में अपना आधार तलाशे की कोशिश की। चूंकि भारत की शुरुआती राजनीतिक व्यवस्था की अगुआ कांग्रेस रही है, इसलिए इस संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए वही सबसे ज्यादा जिम्मेदार है।

इसी का असर रहा कि पूरी राजनीति जाति और धर्म के सीमित दायरों में समाहित होती चली गई। इसीलिए जब जहांगीरपुरी का मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचता है तो वहां भी इसे हिंदू-मुसलमान के दायरे में बांटने की होती है। बुलडोजर के गवर्नेंस मॉडल पर सवाल उठाते हुए जब कपिल सिब्बल सुप्रीम कोर्ट में कहते हैं कि बुलडोजर का इस्तेमाल सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ हो रहा है तो एक बड़ा समुदाय इसे अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के रूप में देखता है। हालांकि तथ्य इसके ठीक उलट है। खरगोन में बुलडोजर ने जहां 26 मुस्लिम परिवारों की संपत्तियों को तोड़ा है वहीं 88 हिंदुओं के घर भी ध्वस्त हुए हैं।

राजनीति में अपने हिसाब से मुद्दों को हवा में उछालने का चलन रहा है। उसी आधार पर धारणाएं बनाई जाती हैं। जहांगीरपुरी मामले में भी ऐसा दिख रहा है। जहांगीरपुरी की मार्केट असोसिएशन ने साल 2021 में दिल्ली हाईकोर्ट में अवैध कब्जे और अतिक्रमण के खिलाफ याचिका दायर की थी। जिसके खिलाफ कार्रवाई के लिए नगर निगम को हाईकोर्ट ने आदेश दिया है। जहांगीरपुरी में 20 अप्रैल को सातवीं बार बुलडोजर की कार्रवाई हुई। इसमें भारी संख्या में पुलिस बल लगाने की वजह रही कि जहां कार्रवाई होनी थी, वह इलाका संवेदनशील है। इसी इलाके में रामनवमी के दिन दंगा हो चुका था।

विशेषाधिकार या संरक्षण
हमने जिस लोकतंत्र को स्वीकार किया है, उसमें जाति और धर्म के आधार पर विशेषाधिकार की बात नहीं है, संरक्षण की बात जरूर है। लेकिन समय के साथ संरक्षण की यह अवधारणा विशेषाधिकार की तरह स्वीकार कर ली गई है। इसीलिए जब भी किसी अपराध और अतिक्रमण के खिलाफ कार्रवाई होती है, तो उसका राजनीतिक विरोध शुरू हो जाता है। बुलडोजर के शासन मॉडल के विरोध के पीछे भी यही सोच काम कर रही है। लेकिन इस सोच का भी विरोध शुरू हो गया है। इसीलिए बुलडोजर के गवर्नेंस मॉडल की लोक स्वीकार्यता बढ़ रही है। जो इस स्वीकार्यता को नहीं समझ पा रहे हैं, राजनीतिक तौर पर उनके अप्रासंगिक होने का खतरा ज्यादा है।

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