पुष्पा गुप्ता
नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 (सीएए) अपने आप में एक ग़लत क़ानून है जो धर्म के आधार पर एक क़ौम के लोगों को नागरिकता देने से इंकार करता है।
मगर राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर),जो देशव्यापी एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर) के लिए पहला क़दम है, के साथ मिलकर यह न केवल मुसलमानों के लिए, बल्कि अन्य सभी भारतीयों के लिए विनाशकारी साबित होगा।
आइए देखते हैं, कैसे :
*भारत की नागरिकता :*
नागरिकता हमें कई अधिकार देती है। मतदान के अधिकार के अलावा, नागरिकों के पास समानता, भाषण की स्वतंत्रता, गैर-भेदभाव, इकट्ठा होने की स्वतंत्रता, धर्म की स्वतंत्रता आदि मौलिक अधिकार हैं, उन्हें भारत में स्थायी रूप से निवास करने का अधिकार है।
अधिकांश राज्य कल्याणकारी योजनाएँ केवल नागरिकों के लिए हैं, जैसे, मनरेगा, एससी/एसटी/ओबीसी लोगों के लिए आरक्षण, राशन कार्डआदि। भारत में विदेशी लोगों को केवल जीवन का अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार होता है।
भारतीय नागरिकता जन्म के द्वारा, प्राकृतीकरण द्वारा, पंजीकरण द्वारा और किसी नये क्षेत्र के भारत में शामिल होने के द्वारा हो सकती है। अधिकांश भारत में, जन्म से नागरिकता के लिए, किसी व्यक्ति का यहाँ 1950-1987 के बीच जन्म होना चाहिए; 1987 के बाद, उसका भारत में जन्म होने के अलावा, माता-पिता में से एक को भारतीय नागरिक होना चाहिए; 2004 के बाद, उसके जन्म के अलावा, माता-पिता में से एक भारतीय नागरिक होना चाहिए और दूसरे को अवैध प्रवासी नहीं होना चाहिए।
1985 में हुए असम समझौते के तहत 25 मार्च 1971 से पहले असम में प्रवेश करने वाले विदेशियों को नागरिकता दी जानी थी।
*एनपीआर+एनआरसी की प्रक्रिया में समस्याएँ :*
असम में एनआरसी से बाहर होने वाले 19 लाख लोगों में से लगभग 70% महिलाएँ हैं। यह तथ्य बताता है कि अपनी नागरिकता साबित करने के लिए लोगों से काग़ज़ दिखाने के लिए कहने का तरीक़ा ही ग़लत है –एनआरसी अवैध आप्रवासियों के नाम पर केवल उन लोगों को पकड़ सकता है जिनके पास आवश्यक काग़ज़ात नहीं हैं। भारत में गाँवों से शहरों में जो भारी आबादी आकर बसती है, उसमें भी ज़्यादातर पुरुष पहले आते हैं और बाद में महिलाओं और बच्चों को शहर में लाने की कोशिश करते हैं। इसलिए यह बात असम्भव लगती है कि पुरुषों की तुलना में बहुत अधिक महिलाएँ अवैध प्रवासी हैं।
इसका सीधा मतलब है कि जो महिलाएँ काग़ज़ नहीं दिखा पायीं उन्हें “बाहरी” मान लिया गया। और अब सरकार पूरे भारत में इस विनाशकारी एनआरसीको लागू करने की योजना बना रही है!
एनपीआर प्रस्तावित एनआरसी का पहला चरण है। एनपीआर जनगणना के समान लगता है, लेकिन असल में ऐसा नहीं है। एनपीआर नागरिकता अधिनियम 1955 और नागरिकता नियम, 2003 के अन्तर्गत आता है, जबकि जनगणना जनगणना अधिनियम, 1948 के तहत की जाती है।
*एनपीआर की आधारभूत प्रक्रिया :*
– एनपीआर के लिए, सरकारी कर्मचारी घर-घर जाकर भारत में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति का, चाहे वह नागरिक हो या विदेशी, नाम और अन्य ब्यौरे फ़ॉर्म में दर्ज करेंगे।
– फिर वे अपने कार्यालय में बैठकर, एकत्र की हुई सूचनाओं की जाँच-पड़ताल करेंगे और उनमें से कौन “संदिग्ध नागरिक” हैं, यह तय करेंगे।
– तब ऐसे “संदिग्ध नागरिकों” से यह साबित करने के लिए दस्तावेज़ माँगे जायेंगे कि वे असली नागरिक हैं।
– उसके बाद निर्णय लिया जायेगा कि इनमें कौन से “संदिग्ध नागरिक” भारतीय नागरिक होने के योग्य हैं।
– भारतीय नागरिकों का एक राष्ट्रीय रजिस्टर (एन.आर.आई.सी.) तैयार किया जायेगा।
– जिनका नाम इस सूची में होगा उन्हें राष्ट्रीय नागरिकता कार्ड दिया जायेगा।
– यदि आपके पास कार्ड नहीं है, तो आप भारतीय नागरिक नहीं होंगे!
यह बेहद नौकरशाहाना और समय खाने वाली प्रक्रिया है। सरकारी बाबुओं के हाथ में बहुत अधिक शक्ति होगी, जो भ्रष्ट, साम्प्रदायिक और जातिवादी हो सकते हैं।
कोई भी व्यक्ति आपके एनआरसी में शामिल किये जाने पर आपत्ति उठा सकता है। यह आपत्ति क्षुद्र व्यक्तिगत दुश्मनी, पेशे सम्बन्धी प्रतिद्वन्द्विता, आपकी मातृ-भाषा, जाति, धर्म आदि से भेद के कारण हो सकती है।
जनगणना के आँकड़ों की गोपनीयता जनगणना क़ानून, 1948 के प्रावधानों के अन्तर्गत संरक्षित है। एनपीआर के तहत ऐसा कोई प्रावधान मौजूद नहीं है। डेटा का सम्भावित दुरुपयोग एक गम्भीर चिन्ता का विषय है।
*कौन लोग प्रभावित हो सकते हैं?*
महिलाएँ सबसे ज़्यादा असुरक्षित हैं (असम एनआरसी से जो लोग बाहर कर दिये गये है उनमें 2/3 से अधिक महिलाएँ हैं)। महिलाओं के पास अक्सर काग़ज़ात नहीं होते, या उनके काग़ज़ातों में विसंगति के कारण उन्हें समस्याएँ झेलनी पड़ती हैं, क्यों कि इसकी सम्भावना रहती है कि :
– विवाह के बाद उनके नाम बदल जायें (कुछ समुदायों में स्त्रियाँ अपना उपनाम ही नहीं पहला नाम भी बदल देती हैं)
– उन्हें स्कूल न भेजा गया हो
– विरासत में सम्पत्ति न मिली हो
– विवाह के बाद दूसरे गाँव/शहर चली गयी हों
सभी समुदायों के ग़रीब और अशिक्षित लोग जिनके पास दस्तावेज़ नहीं होते।
एससी (लगभग 23 करोड़ भारतीय), एसटी (लगभग 12 करोड़ भारतीय), और ओबीसी (लगभग 55 करोड़ भारतीय), जो अक्सर ग़रीब होते हैं और हो सकता है कि उनके पास आवश्यक दस्तावेज़ न हों।
ख़ानाबदोश और आदिवासी, जो अक्सर सरकारी काग़ज़ातों से बाहर रखे जाते हैं।
21 करोड़ भारतीय मुस्लिमों की भारी बहुतायत, जो ग़रीब है। हो सकता है कि उनमें से बहुतों के पास दस्तावेज़ न हो और उन्हें सीएए + एनआरसी के घातक संयोजन का सामना करना पड़े।
अनाथ और परित्यक्त बच्चे, जिनके पास अपने और अपने माता-पिता के लिए आवश्यक दस्तावेज़ न हों। यूनिसेफ़ के अनुसार भारत में ऐसे 3.1 करोड़ बच्चे हैं।
भारत की जनसंख्या के कम से कम 42 प्रतिशत (51.5 करोड़) लोगों के पास जन्म प्रमाणपत्र नहीं है। इसमें वे बुज़ुर्ग आते हैं जो एक ऐसे दौर में पैदा हुए थे जब जन्म पंजीकरण अक्सर नहीं होता था और वे लोग, जिनका जन्म घर पर या ऐसे ग्रामीण क्षेत्रों में हुआ है जहाँ अभी भी जन्म पंजीकरण नहीं होता।
अनपढ़ लोग। भारत में आज भी 27 करोड़ से अधिक ऐसे लोग हैं जो पढ़ या लिख नहीं सकते हैं। यह अजीब है कि काग़ज़ का एक टुकड़ा उनकी तक़दीर का फै़सला कर सकता है।
बहुत से विकलांग लाेग। शारीरिक अशक्तताओं वाले व्यक्तियों के अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठनों का कहना है कि विकलांगों में से कई को उनके परिवारों द्वारा छोड़ दिया जाता है। उनके पास दस्तावेज़ नहीं होते या इसकी काफ़ी सम्भावना होती है कि उनके आँखों की पुतली और अँगूठे के निशान के मिलान में गड़बड़ी हो जाये।
2011 की जनगणना के अनुसार 2.1 करोड़ भारतीय विकलांग हैं, जिनमें 1.21 करोड़ निरक्षर हैं। हालाँकि विश्व बैंक के अनुसार भारत में विकलांगों की संख्या कहीं अधिक है, चार से आठ करोड़ के बीच।
वे लोग जिनके नाम अलग-अलग दस्तावेज़ों में अलग-अलग तरीक़े से लिखे हुए हैं। यह एक ऐसी ग़लती है जो भारत में बिल्कुल आम है।
(असम में, एक व्यक्ति को, जिसका नाम एक दस्तावेज़ में साखेन अली और दूसरे में साकेन अली दर्ज हो गया था, डिटेंशन कैम्प में 5 साल बिताने पड़े। सुचन्द्रा नाम की एक महिला को भी काफ़ी समय कैम्प में बिताना पड़ा क्योंकि उसका नाम अलग-अलग काग़जों में अलग ढंग से लिखा गया था।).
वे लोग जिनके दस्तावेज़ बाढ़, भूकम्प या आग जैसी आपदाओं के दौरान नष्ट हो गये हैं या लम्बे समय के दौरान गुम हो गये हैं।
कुछ सरकारी कार्यालयों के रिकॉर्ड बाढ़ और आग में नष्ट हो गये हैं, या चूहे और दीमकों द्वारा खा लिये गये हैं, इसलिए यह सम्भव नहीं है कि सरकार से उनकी नकल प्रतियाँ प्राप्त कर ली जायें।
*सीएए भेदभावपूर्ण क्यों?*
सीएए पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान और बंगलादेश से आनेवाले उन अवैध प्रवासियों को भारतीय नागरिकता की पात्रता प्रदान करता है, जो हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई (यानी गै़र-मुस्लिम) हैं और जो भारत में 2015 से पहले आ चुके हैं।
सीएए तिब्बत, श्रीलंका और म्यांमार जैसे अन्य देशों के उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों की और साथ ही पाकिस्तान में उत्पीड़न झेलनेवाले हज़ारा, अहमदिया, नास्तिकों और राजनीतिक विरोधियों की अनदेखी करता है।
यह क़ानून पहला ऐसा उदाहरण है जो धर्म को भारतीय नागरिकता की कसौटी के रूप में इस्तेमाल करता है। सीएए भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष सिद्धान्तों का उल्लंघन करता है और यह अनुच्छेद 13, 14, 15, 16 और 21 का भी उल्लंघन करता है, जो समानता के अधिकार, क़ानून के समक्ष समानता और भारतीय राज्य द्वारा गैर-भेदभावपूर्ण व्यवहार की गारण्टी देते हैं।
सीएए अवैध प्रवासियों से सम्बन्धित है। अवैध प्रवासियों को प्राकृतीकरण या पंजीकरण के माध्यम से नागरिकता उपलब्ध नहीं है। जिस मुसलमान को “अवैध प्रवासी” घोषित कर दिया गया है वह किसी भी तरह से भारत में नागरिकता नहीं पा सकता।
भारतीय मुसलमान सीएए+ एनआरसी से बुरी तरह प्रभावित हो सकते हैं, क्योंकि देश भर में लागू एनआरसी में अपनी नागरिकता साबित करने के लिए जिन मुसलमानों के पास आवश्यक दस्तावेज़ नहीं होंगे, उन्हें अवैध प्रवासी घोषित किया जा सकता है।
नागरिकता प्राप्त करने के लिए वे सीएए का उस तरह उपयोग नहीं कर पायेंगे जैसाकि गै़र-मुस्लिम भारतीय झूठ बोलकर और यह दावा करके कर सकते हैं कि वे बंगलादेश, पाकिस्तान या अफ़गानिस्तान से आने वाले अवैध प्रवासी हैं।
*गै़र-मुस्लिमों के लिए समस्याएँ :*
एनआरसी सभी धर्मों के लोगों को प्रभावित करेगा। कई गै़र-मुस्लिम एनआरसी को लेकर चिन्तित नहीं हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि आवश्यक दस्तावेज़ न होने के कारण यदि उन्हें गै़र-नागरिक घोषित कर दिया जाता है तो वे झूठ बोलकर सीएए के माध्यम से नागरिकता प्राप्त कर सकते हैं और यह कह सकते हैं कि वे बंगलादेश, पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान से आये अवैध प्रवासी हैं। आरएसएस के लोग हिन्दुओं के बीच ऐसा प्रचार भी कर रहे हैं।
मगर वे यह नहीं जानते कि धोखाधड़ी करके सीएए के ज़रिये नागरिकता पाना इतना आसान नहीं होगा। अगर कोई व्यक्ति झूठ बोलकर सीएए के माध्यम से नागरिकता पाने का इन्तज़ाम कर भी लेता है, तो इसका अर्थ होगा जीवन भर के लिए असुरक्षा।
ये कुछ समस्याएँ हैं जो उसके सामने आ सकती हैं :
एक मराठी मानुष या कोई मलयाली लड़की अथवा कोई तमिल व्यक्ति जिसके पास उपयुक्त दस्तावेज़ नहीं है, और जो बंगाली, उर्दू, पंजाबी या पश्तो नहीं बोल सकता, वह बंगलादेश/पाकिस्तान/अफ़गानिस्तान से होने का दावा कैसे कर सकता है?
कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि सीएए क़ानून के तहत उन गै़र-मुसलमानों को नागरिकता नहीं मिल पायेगी जो हिन्दी, मराठी, गुजराती या तमिल भाषी हैं।
यह मत भूलिए कि ये सारे फ़ैसले सरकारी कर्मचारियों के हाथों में होंगे। कुछ दिन पहले हरियाणा के अम्बाला शहर में दो लड़कियों का पासपोर्ट बनाने से कर्मचारियों ने इस लिए इंकार कर दिया था क्योंकि वे “चेहरे से नेपाली” लग रही थीं!
*आरक्षित वर्ग विषयक प्रश्न और चिन्ताएँ :*
यदि सम्बन्धित व्यक्ति एनआरसी से बाहर है और उसे सीएए के ज़रिये नागरिकता लेनी हो तो एससी/एसटी/ओबीसी के आरक्षण का क्या होगा?
क्या इन 3 देशों के अवैध आप्रवासी होने का दावा करने वाले लोग आरक्षण के पात्र होंगे?
इसका क्या प्रमाण है कि वे उसी जाति के हैं जिसका होने का वे दावा करते हैं?
कुछ बहुजन कार्यकर्ताओं का आरोप है कि सीएए+एनपीआर+ एनआरसी खुले तौर पर मुस्लिम विरोधी है, लेकिन इसका छुपा एजेंडा है एससी/एसटी/ओबीसी के ग़रीब लोगों को आरक्षण से वंचित करना और उनकी ताक़त को ख़त्म कर देना।
अगर आप झूठ बोलते हैं और यह कहते हैं कि आप एक अवैध आप्रवासी हैं तो कल्पना करें कि आप कैसी नाज़ुक स्थिति में होंगे और आपको और आपके प्रियजनों को, जिसमें आपकी महिला रिश्तेदार भी शामिल हैं, किस तरह डरकर या दबकर रहना होगा।
यदि आपके पास आवश्यक दस्तावेज़ नहीं हैं तो हो सकता है कि किसी सरकारी बाबू के हाथ में, जो भ्रष्ट हो, यह तय करने का अधिकार हो कि आप सीएए के माध्यम से नागरिकता के योग्य हैं या नहीं।
करोड़ों लोग सफ़ेद झूठ कैसे बोल सकते हैं और कैसे कह सकते हैं कि वे दूसरे देश के हैं? यदि वे झूठे साबित हो जाते हैं (जिसे करना आसान होगा), तो उनके साथ क्या होगा?
यदि आप झूठ बोलते हैं और कहते हैं कि आप एक गै़रक़ानूनी आप्रवासी हैं, तो जिस समय से आपने यहाँ आकर बसने का दावा किया है उसके पहले का आपका सारा जीवन आधिकारिक तौर पर अमान्य हो सकता है। यानी आपको एक शरणार्थी के रूप में अपना जीवन फिर से शुरू करना पड़ेगा।
आप भारत आकर रहने का जो समय बताते हैं उससे पहले की आपकी सारी ज़मीन, सम्पत्ति, शैक्षणिक योग्यताओं का क्या होगा?
कोई व्यक्ति भारत आकर रहने का जो समय बताता है उससे पहले हुई शादियों का क्या होगा? क्या इन विवाहों को रद्द कर दिया जायेगा? क्या ऐसे विवाहों से जन्मे बच्चों को नाजायज़ माना जायेगा? इसका दुरुपयोग रोकने के लिए कौन से उपाय किये गये हैं?
पैतृक सम्पत्ति केवल वंशजों को ही दी जा सकती है। यदि आपको एक आप्रवासी होने का दावा करना पड़े तो क्या आप अपनी पैतृक सम्पत्ति से हाथ धो बैठेंगे?
यदि आप कहते हैं कि आप किसी अन्य देश से आये प्रवासी हैं तो बीमा, उत्तराधिकार में मिलने वाली सम्पत्ति, अनुकम्पा के आधार पर नौकरी पाने, यहाँ तक कि अपने माता-पिता द्वारा किराये पर ली गयी जगह पर रहने के उन अधिकारों का क्या होगा, जो आपके परिवार के सदस्यों से जुड़े होने पर ही मिलते हैं?
अगर आपका बच्चा कहता है कि वह किसी अन्य देश से भारत आया या आयी है, तो अपने बुढ़ापे के दिनों में आप उसके द्वारा अपनी देखभाल किये जाने के किसी भी क़ानूनी अधिकार का दावा कैसे कर सकते हैं?
कोई व्यक्ति किसी देश से आकर रहने का जो समय बताता है उससे पहले उसके द्वारा किये गये बलात्कार, हत्या या गबन जैसे अपराधों का क्या होगा? यदि सरकार क़ानूनी रूप से यह स्वीकार करती है कि अपराध होने के समय अभियुक्त इस देश में नहीं था या थी तो उस पर मुक़दमा कैसे चलाया जा सकता है?
अगर बड़े पैमाने पर राज्य की स्वीकृति से इस तरह की बेईमानी होगी, तो देश में क़ानून का कितना सम्मान बना रहेगा?
क्या होगा यदि एनआरसी पूरा होने के बाद में आयी कोई सरकार सीएए को वापस ले लेती है? तब आपकी नागरिकता और आपके जीवन की क्या हैसियत होगी?
क्या होगा अगर राज्य सरकार, भ्रष्टाचार, क्षुद्र दुश्मनी या महज़ कर्तव्यनिष्ठा के कारण पुलिस या अन्य अधिकारी आपके अवैध आप्रवासी के दावे की जाँच करने का निर्णय करते हैं?
क्या आपके स्वाभिमान के लिए यह उचित होगा कि आप झूठ बोलें और यह कहें कि आप किसी दूसरे देश से आये अवैध आप्रवासी हैं? क्या यह आपके लिए उचित होगा कि आप अपने माता-पिता की सन्तान होने से इन्कार कर दें?
देश को इस भयावह टूट-बिखराव और आत्मघाती स्थिति में क्यों डाला जाये?
*एनआरसी का वित्तीय व्यय :*
असम एनआरसी के 10 साल की अवधि में 1200 करोड़ रुपये ख़र्च हुए और 3 करोड़ की आबादी के लिए लगभग 52,000 लोग तैनात किये गये। अगर हम इन आँकड़ों को राष्ट्रीय स्तर तक बढ़ा दें तो 134 करोड़ लोगों के लिए देशव्यापी एनआरसी करवाने में केवल सरकार को 55,000 करोड़ रुपये से अधिक ख़र्च करना पड़ सकता है। (तुलना के लिए जान लीजिए कि भारत सरकार हर साल लगभग 65,000 करोड़ रुपये स्वास्थ्य पर और 95,000 करोड़ रुपये शिक्षा पर ख़र्च करती है।)
भारत की वर्तमान जनसंख्या लगभग 134 करोड़ है। यदि उनमें से 1% (1.34 करोड़) को भी अवैध आप्रवासी घोषित किया जाता है, तो उनके लिए डिटेंशन शिविर बनाने में लगभग 2 लाख करोड़ रुपये का ख़र्च आयेगा। हालाँकि अनुमान लगाया जा रहा है कि कम से कम 10 करोड़ नागरिकता साबित नहीं कर पायेंगे!
इन डिटेंशन शिविरों के रखरखाव में, कै़द किये गये उन सभी लोगों को शिविरों में रखने और उनके खाने-पीने का प्रबन्ध करने में, जो अपनी रोज़ी-रोटी कमा लेते थे और ख़ुद ही अपना घर-परिवार चला लेते थे, सरकार को हर साल हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च करने पड़ेंगे।
प्रत्येक भारतीय को इसके लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष टैक्सों के रूप में भुगतान करना होगा (देश का हर व्यक्ति टैक्स भरता है, माचिस की डिब्बी से लेकर फ़ोन रिचार्ज कराने तक पर टैक्स लगता है)।
सरकारी अधिकारियों, अदालतों और उन लोगों को जिन्हें अपना और अपने प्रियजनों का बचाव करना है, अपना समय सरकारी दफ़्तरों और अदालतों के चक्कर लगाने और लाइनों में खड़े होने में ख़र्च करना पड़ेगा। अर्थव्यवस्था की हालत और बदहाल हो जायेगी।
सरकारी ख़र्च के अलावा आम लोगों को अपने बचाव में भारी ख़र्च करना होगा। 3.2 करोड़ लोगों की आबादी वाले असम में, अनुमान है कि अब तक लोगों की 11,000 करोड़ रुपये तक की राशि ख़र्च हो चुकी है और उम्मीद है कि अभी यह बहुत अधिक बढ़ेगी क्योंकि एनआरसी से बाहर हो गये 19 लाख लोगों को अपने बचाव के लिए विदेशियों के न्यायाधिकरणों और अदालतों में ख़र्च करना पड़ेगा।
अनुमान है कि राष्ट्रीय स्तर पर बढ़कर यह राशि 5 लाख करोड़ रुपये से भी अधिक हो जायेगी।
यह नामुमकिन है कि इतने करोड़ों लोग, जिन्होंने कोई अपराध नहीं किया है, दब्बूपन के साथ यह मान लें कि उनकी नागरिकता और उनके अधिकार छीन लिये जायें और सब कुछ हमेशा की तरह चलता रहे।
भारत पर अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं. अर्थव्यवस्था पूरी तरह धराशायी हो सकती है।
*सम्भावित दुष्प्रभाव :*
करोड़ों लोगों की ज़िन्दगी नर्क हो जायेगी। पूरे समाज में दुख और कड़वाहट फैलेगी।
सरकार के हाथों में – शीर्ष सत्ता से लेकर मामूली सरकारी बाबुओं और पुलिस के सिपाही तक के हाथों में – अत्यधिक शक्ति केन्द्रित हो जायेगी।
करोड़ों लोग सिर्फ़ इसलिए गै़र-नागरिक घोषित हो सकते हैं, क्योंकि उनके पास आवश्यक काग़ज़ नहीं होंगे। उन्हें डिटेंशन शिविरों में बन्द किया जा सकता है या भारत में उन्हें ऐसे गै़र-नागरिकों के रूप में रहने की अनुमति दी जा सकती है, जो सभी मौलिक अधिकारों से वंचित होंगे। उन्हें वोट देने का, राशन पाने, मनरेगा का लाभ उठाने आदि का अधिकार नहीं होगा।
वे गैस कनेक्शन, फ़ोन कनेक्शन नहीं ले पायेंगे, किसी सरकारी योजना का उनको लाभ नहीं मिलेगा, बैंक में खाता नहीं खुलेगा। वे पूरी तरह सरकारी एजेंसियों के रहमोकरम पर होंगे और उनकी ज़िन्दगी हमेशा डर के साये में गुज़रेगी। ऐसे में वे जीने के लिए कुछ भी करने को मजबूर हो जायेंगे और कौड़ियों के मोल पर उनसे मनमाना काम कराया जा सकेगा।
अम्बानी-अडानी, टाटा-बिड़ला जैसे पूँजीपतियों को डिटेंशन सेंटरों में ग़ुलाम मज़दूर मुहैया कराये जायेंगे जिनमें हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों को ही खटना और मरना होगा।*
जब भारी ग़रीब आबादी मताधिकार से वंचित हो जायेगी तो सरकारें ग़रीबों के हितों की और भी चिन्ता नहीं करेंगी।
भारत उन देशों में से है जहाँ आर्थिक असमानता की दर दुनिया में सबसे अधिक है। यहाँ सबसे ऊपर के 9 खरबपतियों की सम्पत्ति नीचे की 50% आबादी की कुल सम्पत्ति के बराबर है। एनआरसी प्रक्रिया ग़रीबों को बुरी तरह प्रभावित करेगी, और यह असमानता पहले से भी ज़्यादा बढ़ जायेगी।
अदालतों पर काम का अभी भी बहुत अधिक बोझ है। एनआरसी लागू होने के बाद उनमें मुक़दमों की बाढ़ आ जायेगी क्योंकि जिन करोड़ों लोगों को अर्द्ध-न्यायिक विदेशी ट्रिब्यूनलों द्वारा अवैध प्रवासी माना जायेगा, वे उच्च न्यायालयों में मुक़दमा दायर कर सकेंगे, यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट में भी अपील कर सकेंगे।
अपराध में वृद्धि होगी और क़ानून का राज और भी कमज़ोर होगा।
जैसाकि हिटलर के समय के जर्मन कवि की इस प्रसिद्ध कविता में कहा गया है, जब आप दूसरे समुदायों पर अत्याचार के प्रति उदासीन रहते हैं, तो जब आप पर अत्याचार होगा, तब आपको भी सहारा नहीं मिल पायेगा।
कविता कहती है : “पहले वे कम्युनिस्टों के लिए आये और मैं कुछ नहीं बोला क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था। फिर वे यूनियन वालों के लिए आये और मैं कुछ नहीं बोला, क्योंकि मैं यूनियन में नहीं था। फिर वे यहूदियों के लिए आये, और मैं कुछ नहीं बोला क्योंकि मैं यहूदी नहीं था। फिर वे मेरे लिए आये, और तब कोई नहीं बचा था जो मेरे लिए बोलता।”
कई जाने-माने लोगों ने इन क़ानूनों की तुलना 1935 में हिटलर के शासन में जर्मनी में पारित न्यूरेमबर्ग क़ानूनों से की है, जिनके तहत यहूदियों से उनकी नागरिकता छीन ली थी।
उन्होंने आगाह किया है कि सीएए+ एनपीआर+एनआरसी उसी तरह के ‘होलोकॉस्ट’ यानी जनसंहार को जन्म दे सकता है जिसमें यहूदियों को बदनाम और अलग-थलग किया गया, उनकी नागरिकता छीन ली गयी, उन्हें यातना शिविरों में ले जाया गया और अन्त में उन्हें गैस चैम्बरों में मार दिया गया। जर्मनी में नाज़ियों द्वारा 60 लाख यहूदियों की सुनियोजित ढंग से हत्या कर दी गयी थी।
जब नाज़ी यहूदियों के ख़िलाफ़ सामूहिक हत्याकाण्ड रच रहे थे तो आरएसएस के तत्कालीन प्रमुख गोलवलकर इसे “नस्लीय गौरव” का सर्वोच्च रूप बता रहे थे। उन्होंने यहूदियों से “देश को शुद्ध करने” के लिए नाज़ी जर्मनी की प्रशंसा की थी। उन्होंने हिटलर की नस्लवादी नीतियों – न्यूरेम्बर्ग क़ानूनों – के लिए कहा कि “यह हमारे सीखने और लाभ उठाने के लिए एक अच्छा सबक़” है।
गोलवलकर ने कहा है कि कोई भी भारतीय जो हिन्दू नहीं है, वह “देशद्रोही” है और भारत में गै़र हिन्दू होना “देशद्रोह” है। मोदी गोलवलकर को अपना “पूजनीय गुरू” कहते हैं।
अगर ये विनाशकारी क़ानून लागू हुए तो गृहयुद्ध की सम्भावना हो सकती है। करोड़ों लोग चुपचाप अपने साथ हो रहे अन्याय को बर्दाश्त नहीं करेंगे।
पूरी दुनिया में भारत अलग-थलग पड़ जायेगा।
पूरी दुनिया में अनिवासी भारतीयों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
पड़ोसी देशों में रहने वाले हिन्दुओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
समाज में शत्रुता, दुख और दुर्भावना फैलेगी।
*आप क्या कर सकते हैं :*
अपने परिवार, दोस्तों, सहकर्मियों और पड़ोसियों के बीच इस मुद्दे के बारे में जागरूकता बढ़ाएँ। उन्हें समझाएँ कि सीएए + एनपीआर + एनआरसी हमारे लिए विनाशकारी साबित होगा और इसे रोका जाना चाहिए।
सरकार, आरएसएस-भाजपा और बिके हुए मीडिया द्वारा किये गये झूठे और ज़हरीले प्रचार से सावधान रहें। इसके बहकावे में न आयें। आपके पास आने वाले संघ-भाजपा के लोगों से सवाल करें।
इसका विरोध करें। पूरे भारत में लाखों-लाख लोग लोकतांत्रिक तरीक़ों से इस क़ानून का विरोध कर रहे हैं। उनका साथ दीजिए।
ज़्यादातर पूँजीवादी मीडिया अपने मालिकों की भाषा बोलते हुए इस मसले पर भी झूठ फैलाने में लगा है। भाजपा का आईटी सेल भी दिनो-रात व्हॉट्सऐप, फ़ेसबुक और वेबसाइटों से ज़हरीला प्रचार कर रहा है। आँख मूँदकर इनकी बातों को मत मान लीजिये।
यह मीडिया कभी ग़रीबों और मेहनतकशों की आवाज़ नहीं उठाता है। आज भी उसे हमारी नहीं बल्कि अपने धन्नासेठ मालिकों के हितों की चिन्ता है।
ट्विटर, फेसबुक, व्हॉट्सऐप, इंस्टाग्राम, टेलीग्राम, यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्मों के ज़रिए जनता के पक्ष में भी काफ़ी लोग आवाज़ उठा रहे हैं। इसके अलावा, ‘मज़दूर बिगुल’ जैसे अख़बार और पत्रिकाएँ सच्चाई को लोगों तक पहुँचाने में लगी हैं। इनकी पहचान कीजिए और इनसे जुड़िए।
सबसे ज़रूरी बात है कि सीएए + एनपीआर + एनआरसी की प्रक्रिया का पूरा बहिष्कार किया जाये। सरकार एनपीआर की प्रक्रिया शुरू करने जा रही है। देश भर में जारी आन्दोलन की ओर से इसके साथ असहयोग करने का आह्वान किया जा रहा है। यह बहुत ज़रूरी है।
अगर करोड़ों लोग सिविल नाफ़रमानी की राह पर चलते हुए सरकार को अपने ब्यौरे देने से इंकार कर देंगे एनपीआर की प्रक्रिया उन्हें रद्द करनी पड़ेगी।
जो लोग पत्रकार, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता, फिल्मकार, कलाकार, लेखक आदि हैं, उन्हें अपने हुनर के साथ इस आन्दोलन से जुड़ना होगा।
इस वक़्त, सीएए + एनपीआर + एनआरसी के खिलाफ लड़ाई बेहद ज़रूरी और महत्वपूर्ण है। लेकिन इसके साथ ही हमें पूरी फासीवादी सत्ता और राजनीति के विरुद्ध एक लम्बी लड़ाई में भी जुटना होगा।
फासीवाद को जड़ से मिटाने के लिए ज़रूरी है कि इसे पैदा करने वाली पूँजीवादी व्यवस्था को मिटाने के संघर्ष के साथ इस लड़ाई को जोड़ा जाये।
(इस लेख को तैयार करने के लिए ‘सिटिज़न्स फ़ॉर जस्टिस एंड पीस’ द्वारा प्रस्तुत सामग्री का उपयोग किया गया है. अंग्रेज़ी से रूपान्तर, स्रोत : मज़दूर विगुल)