~ पवन कुमार
कनाडा यानी लघु भारत. हमारे सिखों का गढ़. हमारे स्टूडेंट्स की जबरजस्त पसंद. तो चलिए जानते हैं यहां के कुछ विचित्र और कुछ उलटे- पुलते सच.
कनाडा देश में ज़मीन खूब है लेकिन उसे बरतने वाले न के बराबर। यहाँ प्रति किलोमीटर आबादी का घनत्व मात्र 4 व्यक्ति हैं। ऊपर से यहाँ कृषि के अलावा अन्य उत्पादन शून्य है। कृषि में भी सिर्फ़ गेहूं, कुछ सब्ज़ियाँ और पर्याप्त फल। सेब तो यहाँ की मुख्य फसल है।
आसपास किसी भी हरित क्षेत्र में चले जाइए, सेब ज़मीन पर पड़े मिलेंगे। आप पेड़ से तोड़ कर भी सेब खा सकते हैं, बशर्ते वह किसी का निजी फ़ॉर्म हाउस न हो। पेट्रो-उत्पाद भी यहाँ है, किंतु पेट्रोल या डीज़ल सस्ते नहीं है।
यहाँ गाड़ियाँ गैस (सीएनजी या पीएनजी) से नहीं चलतीं, सिर्फ़ पेट्रोल अथवा डीज़ल से। पर पेट्रोल पम्प को गैस स्टेशन बोलते हैं। इन गैस स्टेशनों पर आपको अपनी गाड़ी में पेट्रोल स्वयं भरना होता है।
भुगतान के लिए क्रेडिट कार्ड स्वैप करिए और जाएं। पेट्रोल यहाँ डेढ़ से पौने दो डॉलर के बीच है अर्थात् 100 रुपए से थोड़ा अधिक। डीज़ल के दाम कुछ और ज़्यादा हैं।
अब टेस्ला जैसी बिजली से चलने वाली गाड़ियाँ अमेरिका से निर्यात की जाती हैं। उनकी माँग भी खूब है। परंतु उनकी क़ीमत बहुत अधिक है। यूँ भी टेस्ला विश्व की महँगी कारों में से एक है। यह अमेरिका में बनती इस कम्पनी के मालिक एलेन मस्क हैं। उन्होंने ही कुछ महीने पहले ट्वीटर को ख़रीदा था।
डीज़ल 1.86 डॉलर का प्रति लीटर है यानी पेट्रोल से अधिक। खाना-पीना भी पर्याप्त महँगा है और पब्लिक कन्वेयन्स भी कोई भारत से कम नहीं। यहाँ टैक्स इंडिया से अधिक हैं। लेकिन स्वास्थ्य और सेकेंड्री तक शिक्षा मुफ़्त है। इसके बाद बहुत महँगी। यही कारण है कि अधिकतर कनाडाई बच्चे आठवीं से 12वीं के बीच ड्रॉप आउट हो जाते हैं।
सिर्फ़ चीनी व भारतीय लोग ही अपने बच्चों को पढ़ाते हैं। लेकिन आदमी के श्रम का महत्त्व इतना अधिक है कि आप अपने नौकर से, सफ़ाई कर्मी से भी अबे-तबे नहीं कर सकते। इसीलिए जो कनाडा आया वह यहीं का होकर रह गया। कनाडा में बसे भारतीय व चीनी।
यहाँ पर घरों में दूक़ानें नहीं होतीं। हर बस्ती के समीप 50 से 100 एकड़ में फैले शॉपिंग प्लाज़ा हैं, जिनमें बहुत लम्बे-चौड़े माल हैं, डिपार्टमेंटल स्टोर हैं। सब में सामान भरा पड़ा है पर क़ीमत उसी स्तर के भारत में मिलने वाले सामान से दूनी।
चाहे इलेक्ट्रानिक गैजेट्स हों, मोबाइल फ़ोन हों या घरेलू समान अथवा कपड़े। क़ीमत सुनते ही तबीयत हरी हो जाती है। सब्ज़ियों में 50 ग्राम धनिया भी एक डॉलर यानी 100 रुपए की होती है।
टमाटर, लौकी, प्याज, आलू आदि भी प्रति पौंड (लगभग 450 ग्राम) चार से पाँच डॉलर के। कनाडा का एक डॉलर भारत के 61 रुपए के क़रीब है। एक पौंड जलेबी भी 12 डॉलर की। हालाँकि लोगों की कमाई भी पर्याप्त है।
यहाँ पर न्यूनतम मज़दूरी 15 डॉलर है। कोई भी व्यक्ति आठ घंटे से अधिक काम नहीं कर सकता और हफ़्ते में 5 दिन ही।
यूँ स्वास्थ्य यहाँ सरकार की ज़िम्मेदारी है, लेकिन कैन्सर जैसे रोगों का इलाज़ ख़ुद कराना होगा। इसी तरह सरकारी अस्पताल दांत और आँख का इलाज़ नहीं करते। अगर आपके दाँत में दर्द हो या चश्मा टूट जाए तो फिर आपको भारत भागना होगा। ऐसा नहीं कि यहाँ डेंटिस्ट न हों। ख़ूब हैं पर उनकी फ़ीस इतनी अधिक है कि दाँत का दर्द भूल जाएँगे।
कोई भी मेडिकल बीमा दाँत को कवर नहीं करता और न सरकारी अस्पताल। क्योंकि दाँत को स्वास्थ्य से नहीं काज़्मेटिक से जोड़ा गया है। दाँत के डॉक्टर को यहाँ डॉक्टर नहीं डेंटिस्ट या कारीगर कहा जाता है।
यही हाल चश्मे का है। यूँ भारत में भी BDS या MDS को अन्य डॉक्टर नीची निगाह से देखते हैं पर कमाई वहाँ भी इनकी ख़ूब है और यहाँ भी।
यहाँ मेहनती आदमी की कमाई ख़ूब है। लेकिन खर्च भी कम नहीं। आलीशान गाड़ी और उतने ही भव्य आवास। केस्को, वालमार्ट, होमडिपो में अंधाधुंध ख़रीदारी होती है और अगर सेल लगी हो तो टूट पड़ते हैं।
ज़रूरत से अधिक ख़रीद लेते हैं और फिर बर्बाद करते हैं। उपभोक्तावाद यहाँ चरम पर है। मज़दूर और मालिक सबके पास गाड़ी। कोई किसी से हेय नहीं। मज़दूर अपने मालिक को कोई सलाम नहीं करता न सर बोलता है। वह उसे जॉन या स्मिथ के नाम से बुलाएगा।
अगर यहाँ एक अनजाने व्यक्ति ने भी आपको गुड मॉर्निंग कहा हो तो उसके जवाब में मुस्करा कर आप उसे मॉर्निंग कहेंगे। न कहना एक अवमानना है।
अंग्रेज़ी यहाँ कोई सम्मानित भाषा नहीं है। सम्मान फ़्रेंच बोलने वालों को मिलता है। अंग्रेज़ी बोलने वालों को लोफ़र या लंपट समझा जाता है। बल्कि क्युबेक में अगर आपने अपने साइन बोर्ड में अंग्रेज़ी ऊपर रखी, फ़्रेंच नीचे तो आप पर जुर्माना ठोका जा सकता है।
वहाँ अंग्रेज़ी से आपका काम नहीं चलेगा। अलबत्ता हिंदी, उर्दू, पंजाबी, बांग्ला गुजराती तमिल, तेलुगू भी एक सम्मानित भाषा है।
एक दिन हम लोक विटबी के लेक अंटारियो बीच पर गए। बीच पर भीड़ बहुत थी। हम एक बेंच पर बैठ गए। मेरी बग़ल में हिजाब लगाए एक युवती बैठी थी। मैंने पूछा, कहाँ से हो बिटिया? बोली, पाकिस्तान के लाहौर से। मैंने कहा फिर तो पड़ोसी हो।
उस दिन सुन्नी मुसलमानों का नव वर्ष था, इसलिए सोचा बधाई दे दूँ। किंतु भय भी था कि यदि शिया हुई तो बुरा मान जाएगी, इसलिए पूछ लिया, आप लोग शिया हो या सुन्नी।
वह भी थोड़ा झिझकी, सोचा होगा हाय अल्ला! पाकिस्तान से हज़ारों किमी दूर भी शिया-सुन्नी। ख़ैर, वह बोली- हम लोग सुन्नी हैं। मैंने कहा, कि हैपी न्यू ईयर। वह खुश हुई बोली थैंक्स। उसके पति आ गए।
तो मैंने हैंड शेक किया और हैप्पी न्यू ईयर बोला। दोस्ती हो गई। तब उसकी पत्नी ने बताया कि उसका नाम हिना है। एक वर्ष से वे यहाँ पर हैं, पत्नी हाउस वाइफ़ है और पति पढ़ रहा है। मैंने पूछा, तब खर्चा-पानी कैसे चलता है? तो बोली, मेरी दोनों बेटियाँ यहीं पैदा हुई हैं, इसलिए इनके भरण-पोषण के लिए हर महीने एक-एक हज़ार डॉलर दोनों के नाम वज़ीफ़ा मिलता है और कुछ लाहौर से लेकर आए हैं।
दरअसल उनका पीआर (परमानेंट रेज़िडेंसी) पुराना है। इसलिए बेटियाँ जब-जब होने को हुईं तो दम्पति कनाडा आ गए। बाई बर्थ बेटियाँ कनाडा की नागरिक हो गईं। मियाँ-बीवी भी एक न एक दिन नागरिक हो ही जाएँगे।
फिर वे धीरे से बोले, चलो, पाकिस्तान के निज़ाम से छुट्टी मिली। पति को पुलाव पसंद है और पत्नी को बिरयानी। इसलिए कभी-कभी खटक जाती है।
मेरे एक मित्र कहते हैं : मैं टोरंटो के पब्लिक प्लेस पर कुर्ता-पायजामा पहन कर विचरण करता हूँ। इस वज़ह से मेरी पहचान फ़ौरन स्पष्ट हो जाती है। पाकिस्तानियों का ध्यान मेरी तरफ़ अधिक खिंचता है। भारतीयों और बांग्लादेशियों का भी। इस कारण मुझे भाषा की क़िल्लत नहीं होती। और मैं स्वयं सभी से संवाद कर लेता हूँ। चाहे वह ब्लैक हो या गोरा अथवा ब्राउन (दक्षिण एशियाई- भारतीय, पाकिस्तानी, बाँग्ला देशी, नेपाली, भूटानी, मालदीव के लोग)। मेरा सभी से डायलॉग है। शायद इसीलिए मैं इस परदेस में बोर नहीं होता हूँ।
यहाँ मानसून का मौसम नहीं है बस चार ही मौसम हैं। जून की गर्मी के बाद धूप अगहनी होने लगती है। कभी गर्म तो कभी ठंड। आज धूप है पर हवा के कारण ठंड भी पर्याप्त है। मैं दुआरे पर बैठ कर धूप ले रहा हूँ। आसमान खुला है और कोई धूल नहीं।
मुझे अपने गाँव के दिन याद आ रहे हैं जब अगहन में खटोला बाहर डाल कर एंजॉय करते थे और बादलों की आवाजाही से काल्पनिक चित्र बनाते थे। यहाँ शोर नहीं है सिर्फ़ हवा चलने से पेड़ों के हिलने की आवाज़ें हैं।
यहाँ कई दोस्त मैंने बना लिये हैं। उनमें यहाँ बसे हिंदी भाषी उत्तर भारतीय हैं। हिंदी में कोरे दक्षिण भारत के हैं। संस्कृत के विद्वान हैं। सिंहल देश से हैं, चीन व पाकिस्तान से हैं और गोरे भी हैं। यही कारण है, मुझे कोई होम सिकनेस नहीं फ़ील हो रही है।
कुछ बहुत अंग्रेज़ी बोलना सीख गया हूँ और यही गति रही तो चार महीने बाद मैं अंग्रेज़ी में भाषण-पटु भी हो जाऊँगा। बाक़ी हिंदी, पंजाबी, उर्दू एवं संस्कृत तो बाँच ही लेता हूँ। टोरंटो की कांसुलेट जनरल और ओटवा स्थित भारत के उच्चायुक्त से भी १५ अगस्त तक मिल लूँगा।
यहाँ के प्रधानमंत्रीश्री बहुत लिबरल, सहज और ग्रासरूट आदमी हैं। हमारे मित्र उनसे भी मेरी मुलाक़ात करवा देंगे। इसीलिए मैंने कहा था, सबसे बात करो तो अपना दुःख-दर्द भूल जाओगे। मनुष्य हो इसलिए खुल कर बिंदास हो कर जीना सीखो। कनाडा आए हो तो कनाडा को एंजॉय करो। यहाँ भारत को लाद कर मत घूमो। यहाँ सब बराबर हैं।
कोई आपका धर्म, मज़हब या आपकी जाति पूछे तो डाँट कर कहो- हाऊ यू डेयर! (आपकी हिम्मत कैसे हुई, इतना मूर्खतापूर्ण सवाल पूछने की) घबरा कर वह अपने बिल में घुस जाएगा। निकलो बाहर अपने बिल से दुनिया आपका इंतज़ार कर रही है। (चेतना विकास मिशन).
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