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‘चंपारण मटन’ : हमें सोचने पर मजबूर करती लघु फिल्म 

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नीरज बुनकर

प्रतिष्ठित भारतीय फिल्म और टेलीविज़न संस्थान (एफटीआईआई), पुणे की सिनेमाई प्रस्तुति “चंपारण मटन” ऑस्कर स्टूडेंट एकेडेमी अवार्ड के लिए नामांकन के सेमीफाइनल दौर में पहुंच गई है। यह एक उल्लेखनीय सफलता है। लेखक और निर्देशक रंजन उमाकृष्ण कुमार के कुशल मार्गदर्शन में बनी यह लघु फिल्म जाति की राजनीति, आर्थिक दबावों और सामाजिक भेदभाव जैसी बहुआयामी विषयों को एक माला में पिरोकर अपना कथानक बुनती है। फिल्म बिहार के चंपारण में रोज़मर्रा के जीवन की चुनौतियों से जूझते एक परिवार की मार्मिक कथा कहती है। चंपारण मटन इस इलाके का एक सुस्वादु व्यंजन है, जिसकी ख्याति इस क्षेत्र की सीमाओं के पार, भारत के दूसरे हिस्सों में फैल चुकी है। इस फिल्म की कहानी चंपारण मटन पकाने और खाने के आसपास घूमती है। सांस्कृतिक सूक्ष्मांतरों और सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तन के कारकों की पड़ताल के ज़रिए ‘चंपारण मटन’, पारिवारिक संघर्षों की जटिलताओं के साथ-साथ व्यापक सामाजिक मसलों पर भी प्रकाश डालती है। 

फिल्म की शुरुआत कड़ाही में प्याज तले जाने की जानी-पहचानी आवाज़ से होती है। इसके बाद बारीक कटे करेले को चलाते एक हाथ का क्लोजशॉट आता है। एक करछी, पकती हुई सब्ज़ी के बीच से अपनी राह बना रही है। फिर हमें खाना पकाने में मग्न एक महिला दिखाई देती है। कहीं दूर एक मंदिर में घंटियां बज रही हैं और घर में एक आदमी पैर धो रहा है। यह तो हुई शुरूआती सेटिंग। आगे हमारा परिचय मुख्य किरदारों रमेश (जिसकी भूमिका चंदन राय ने निभाई है) और उसकी पत्नी (फलक खान) से होता है। रमेश की पत्नी भोजन पकाने की शौक़ीन है मगर धन की कमी उसकी राह में रोड़ा है और उसे परिवार के सदस्यों के ताने सुनने पड़ते हैं, क्योंकि भोजन में मटन शामिल नहीं होता। छठ पर्व नज़दीक है और जैसी की प्रथा है, उस समय मांसाहारी व्यंजन घर के मेन्यु के बाहर रहते हैं। 

निर्देशक ने इस फिल्म में मुख्यधारा की हिंदी के बजाय, पूर्वी बिहार के तराई इलाके और दक्षिणी नेपाल में बोली जाने वाली बज्जिका भाषा का उपयोग किया है। यह इस फिल्म को एक अलग रंग देती है। इससे फिल्म ज्यादा प्रामाणिक बन पड़ी है और दर्शकों को किरदारों के जीवन और उनके रहवास के क्षेत्र से जोड़ती है। फिल्म अनगढ़ है और उसकी भाषा की सुंदरता उसे और आकर्षक बनाती है। वह बॉलीवुड की फिल्मों की तरह परिष्कृत नहीं है, जिसके चलते वह दर्शकों से आत्मीयता स्थापित कर पाती है और वे अपने-आप को उससे जोड़ पाते हैं( निर्देशक रंजन ने गांव के मुखिया का किरदार स्वयं निभाया है। यह फिल्म कल्पना और यथार्थ की विभाजक रेखा को धुंधली करती है, दर्शकों को सामाजिक प्रतिनिधित्व पर प्रश्न उठाने का मौका देती है और उन्हें किस्सागोई की कला की ताकत से रू-ब-रू करवाती है। रंजन स्वयं दलित हैं मगर एक ऊंची जाति का किरदार निभा कर वे सामाजिक मानकों को चुनौती देते हैं और यह फिल्म की केंद्रीय थीम – आगे बढ़ने और समानता हासिल के प्रयासों को रेखांकित करता है। यह मेटानैरेटिव डिवाइस न केवल कहानी को अधिक गहराई और प्रभावशीलता देती है वरन् वह हमें यह भी बताती है कि निर्देशक की फिल्म के किरदारों और उनके जैसे वास्तविक व्यक्तियों के संदर्भ में किस तरह की महत्वाकांक्षाएं हैं। उपयुक्त भाषा के चुनाव और गल्प के मौलिक ढांचे के ज़रिए यह फिल्म एक हाशियाकृत समुदाय के मूल भाव को तो रेखांकित करती ही है, इसके साथ ही यथास्थिति को चुनौती भी देती है। यह एक शानदार फिल्म है, जो न केवल मनोरंजन करती है, बल्कि हमें सोचने पर मजबूर करती है और कुछ करने के लिए प्रेरित भी।

मांस और विशेषकर बिहार के चंपारण जिले के प्रसिद्ध मटन खाने की उत्कट इच्छा, रमेश और उसकी पत्नी के बीच तनातनी का कारण बन जाती है। इस बीच गांव के मुखिया के घर से आ रही बाजों की आवाज़ से रमेश की पत्नी और दर्शकों दोनों को पता लग जा जाता है कि वहां शादी के उत्सव की धूम है। दंपत्ति के बीच विवाद, उनके समक्ष उपस्थित आर्थिक चुनौतियों का खुलासा करता है। रमेश की पत्नी किसी भी तरह मटन खाना चाहती है। उसे पता चलता है कि विवाह के भोज में मटन परोसा जाएगा। मगर हाय, वे तो निमंत्रित ही नहीं है। वह अपने पति से कहती है कि वह किसी भी तरह मटन का इंतजाम करे। इस बीच, मटन की आस में रमेश की दादी बिना निमंत्रण के ही मुखिया के भोज में चली जाती है। इससे रमेश को और चिढ होती है। उपर से उसकी पत्नी की मटन खाने की लालसा, जिसे वह बाद में दबा लेती है, रमेश को और ज्यादा परेशान करती है। धनाभाव तो समस्या है ही। फिर वह तय करता है कि वह मटन का इंतजाम करके ही रहेगा।

आगे के दृश्यों में रमेश द्वारा मटन खरीदने के लिए पैसे का जुगाड़ करने के प्रयासों को दिखाया गया है। इन प्रयासों में उसे असफलता हाथ लगती है और उसे अपमान का सामना भी करना पड़ता है। यह गांव में व्याप्त सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को बताता है। तनाव तब और बढ़ जाता है जब रमेश और उसके भाई, गांव के मुखिया से आर्थिक मदद मांगते हैं। रमेश, मुखिया के पास जाने के लिए बहुत इच्छुक नहीं है। मगर उसका भाई उसे इसके लिए राजी कर लेता है। जिस समय वे दोनों मुखिया के घर में प्रवेश कर रहे होते हैं, कैमरा हमें वह थाल दिखाता है, जिससे दो व्यक्तियों को मटन और चावल परोसा जा रहा है। उनके निम्न सामाजिक दर्जे के चलते दोनों भाई वहां सम्मान के पात्र नहीं हैं, मगर मटन खाने की उनकी ललक, सामाजिक ऊंच-नीच से ऊपर उठने की उनकी आकांक्षा का प्रतीक है। गांव के मुखिया का उनके प्रति तिरस्कारपूर्ण दृष्टिकोण दर्शकों से छुपता नहीं। वह रमेश को खरी-खोटी सुनाता है। वह पूछता है कि रमेश की उससे पैसे मांगने की हिम्मत कैसे हुई। वह रमेश की मुखरता और हठधर्मी से भी नाराज़ है। मुखिया का कारिंदा रमेश को याद दिलाता है कि उसने शादी के पहले एक मृत बछड़े को ठिकाने लगाने और नाली की सफाई करने से इंकार कर दिया था। रमेश अपनी बात पर अड़ा रहता है। वह शिक्षित है और उसके पास इतिहास में ऑनर्स डिग्री है। फिर वह ऐसे छोटे काम क्यों करेगा?  

फिल्म परोक्ष रूप से शिक्षा, और विशेषकर इतिहास की शिक्षा, के महत्व पर जोर देती है। इतिहास पढने से रमेश को यह मालूम है कि हजारों साल से ऊंचे तबके के लोग उसके समुदाय के साथ अन्याय करते आए हैं। इतिहास के अध्ययन से उसे उन जाति-विरोधी नेताओं के बारे में भी पता है जो उसे उनसे लड़ने की प्रेरणा देते हैं। रमेश की शिक्षा, उसके सशक्तिकरण का स्त्रोत बन जाती है और वह उसकी जाति के लिए काम निर्धारित करने वाली रूढ़िवादिता को चुनौती देता है। मुखिया को उसकी मुखरता पसंद नहीं आती। वह रमेश को और अपमानित करता है– “तुम्हारे पिता साल-दर-साल गटर साफ़ करते रहे और मृत मवेशियों को ठिकाने लगाते रहे।” यह सुनकर रमेश, जो वापस जा रहा होता है, पलट कर मुखिया से ऊंची आवाज़ में कहता है– “सुनो! ऐसा कोई नियम नहीं है कि लड़कों को भी वही करना चाहिए जो उनके बाप करते थे।” यह प्रतिउत्तर रमेश के अपने आत्मसम्मान और वैयक्तिकता को हासिल करने के प्रयास का प्रमाण है।

अंततः रमेश सामाजिक नियम-कायदों की बेड़ियों को तोड़ने का निर्णय लेता है और अपनी बाइक गिरवी रखकर मटन खरीदना तय करता है। इसके बाद हम देखते है कि रमेश और उसका परिवार खेत में मटन का आनंद ले रहा है और इस प्रकार अपने प्रतिरोध का प्रदर्शन कर रहा है। यह एक नयनाभिराम दृश्य है, जिसके पार्श्व में कबीर के भावपूर्ण दोहे, मधुर धुन में गाए जा रहे हैं। यह सामाजिक अपेक्षाओं पर व्यक्ति की इच्छाशक्ति की विजय का प्रतीक है। 

यह फिल्म, ग्रामीण बिहार के सांस्कृतिक संदर्भ में, सामाजिक पदक्रम, आर्थिक संघर्ष और व्यक्तिगत आकांक्षाओं की पड़ताल करती है। कथानक दमदार है, पृष्ठभूमि में अर्थपूर्ण गीत है और किरदारों का चरित्र चित्रण अत्यंत सूक्ष्मता से किया गया है। फिल्म सामाजिक मानकों द्वारा निर्मित जटिलताओं और मुश्किलों के बावजूद एक व्यक्ति की अपनी राह से न डिगने की मर्मभेदी कथा सुनाती है। 

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