शशिकांत गुप्ते
सीतारामजी आज पूर्ण रूप से साहित्यकार की मानसिकता हैं।
साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्यकार का सिर्फ कर्तव्य ही नहीं,बल्कि दायित्व है। जीवन के हर एक क्षेत्र में व्याप्त हो रही विसंगीतियों, कुरीतियों, अंधविश्वास, और दकियानूसी रूढ़ियों पर कटाक्ष कर समाज को यथार्थ से अवगत कराएं।
साहित्यकार समाज को दर्पण दिखाने का साहस तब कर पाएगा, जब साहित्यकार स्वयं को दर्पण में देखेगा।
भौतिकवादी मानसिकता से ग्रस्त साहित्यकार में सुविधाभोगी मानसिकता पनपती है।
वर्तमान सुविधाभोगी मानसिकता समाज के साथ धर्मीक क्षेत्र और राजनीति में भी व्याप्त हो रही है।
सुविधाभोगी मानसिकता,
यथास्थितिवाद की समर्थक होती है।
यथास्थितिवादी सिर्फ सुधार के पक्षधर होतें हैं,और परिवर्तन के विरोधी होतें हैं।
गांधीजी ने समाज के कल्याण के लिए, सुधारवादी तरीक़े को त्याग, परिवर्तनकारी तरीका अपनाया है।
यथास्थितिवादियों के लिए, शायर नईम अख़्तरजी का शेर प्रासंगिक होगा।
उसे पारसाई का दावा है
शराफ़त जिसकी घुट्टी में नहीं है
(परसाई= धर्मात्मा,सदाचारी)
साहित्यकार समाज के सामने यथार्थ प्रकट करने के लिए, शायर नईम अख़्तरजी का यह शेर मौजु है।
तजुर्बे के लिए एक ज़ख्म बहुत है
आपकों पहली ठोकर में संभल जाना था
शशिकांत गुप्ते इंदौर