बलजीत कौर ‘अमहर्ष‘
वैश्विक ज्ञान व दर्शन की दृष्टि से भारतीय वेद, पुराण, ब्राह्मण आरण्यक, धर्म, दर्शन, उपनिषद् और संस्कृति ज्ञान-विज्ञान और जीवन-मूल्यों के अनुपम भंडार रहे हैं। इनमें रामकथा किसी-न-किसी रूप में समाहित रही है। न केवल भारतीय साहित्य में बल्कि विदेशी साहित्य में उसे अत्यन्तमहत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। वह किसी एक युग, देश, संस्कृति और साहित्य के लिए आदर्श नहीं रही बल्कि प्रत्येक युग, देश, काल, साहित्य और संस्कृति के लिए उत्कृष्ट संदेश देती रही है। अनेक साहित्यकारों ने रामकथा को अपनी रचना का उद्देश्य बना कर साहित्य जगत में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है। इनमें महर्षि बाल्मीकि, भवभूति, भास, तुलसीदास, केशवदास, नरेश मेहता और भारत भूषण अग्रवाल जैसे साहित्यकारों का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
वैदिक युग से लेकर अत्याधुनिक युग तक रामकथा अपने विशिष्ट योगदान से साहित्य की शोभा और समृद्धता में श्रीवृद्धि करती आई है। वैदिक-गथों में रामकथा के पात्रों का नामोल्लेख मात्र मिलता है जबकि पुराणों में रामकथा संक्षिप्त रूप में प्राप्त होती है। सर्वप्रथम आदिकवि महर्षि बाल्मीकि कृत ’रामायण‘ में रामकथा शृंखलाबद्ध व विस्तृत रूप में प्राप्त होती है। इसमें बाल्मीकि ने राम को नर के माध्यम से नारायण के रूप में वर्णित करते हुए उन्हें विष्णु के अवतार के रूप में स्थापित किया है। बाल्मीकि कृत रामायण में राम के रूप में आदर्श-चरित्र व आदर्श जीवन का दृष्टांत प्रस्तुत किया है। संस्कृत साहित्य में कालिदास कृत ’रघुवंश‘ और भवभूति कृत ’उत्तररामचरित् का महत्त्वपूर्ण योगदान है।बौद्ध व जैन साहित्य के अंतर्गत रामकथा को धार्मिक सिद्धान्तों के अनुसार ढालकर प्रस्तुत किया गया। हिन्दी साहित्य के आदिकाल में ’पृथ्वीराजरासो‘ में दस अवतारों के अंतर्गत श्रीराम का वर्णन मिलता है। भक्तिकाल में केशवदास, ईश्वरदास, विष्णुदास और विशेषकर तुलसीदास ने तो अपना सम्पूर्ण जीवन ही राम-भक्ति व राम-नाम के गुणगान में ही समर्पित कर दिया। भक्तिकालीन ने इन कथाओं के माध्यम से विदेशी आक्रमणकारियों से त्रस्त जनता को भक्ति का अवलम्ब प्रदान किया। रीतिकाल में रामकथा शृंगार व माधुर्य भाव के साथ अलंकृत शैली में वर्णित किया।
आधुनिक काल में रामकथा को समकालीन संदर्भों में प्रयोग करते हुए अन्वेषण और बौद्धिक प्रवृति का परिचय दिया। आधुनिक काल में राम के लोकावतारों व अलौकिक स्वरूप को वैज्ञानिक, बौद्धिक व तार्किक कसौटी पर कसा गया उस युग में रामकथा, घटनाओं, चरित्रों को युग-संदर्भानुसार व परिवेश के अनुरूप नवीन पृष्ठ्भूमि पर व्याख्यायित किया। यहाँ पौराणिक पात्रों के अतिमानवीय और अलौकिक स्वरूप की उपेक्षा करते हुए लौकिक धरातल पर वर्णित किया।आधुनिक युग संघर्ष और द्वन्द्व का युग है जिसमें अनेक प्रकार की विसंगतियों, समस्याएँ, मानसिक विकृतियाँ, अव्यवस्थाएँ, विभक्त व्यक्तित्व, संशय, दुविधा, अनीति, अनाचार वैचारिक विभिन्नता, जातिवाद, समूहवाद की समस्याएँ व्याप्त हैं। बैद्धिकतावाद और वैज्ञानिक धरातल पर अतिमानवीय और अलौकिक चरित्र और कृत्य विश्वसनीयता की कसौटी खरे नहीं उतरते। इस प्रकार आधुनिकयुग में पौराणिक प्रसंगों और चरित्रों को आधुनिक सन्दर्भानुसार नवीन धरातल पर नवीन दृष्टि से व्याख्यायित किया।
आधुनिक काल में रामकथा के पौराणिक प्रसंगों के माध्यम से आधुनिक परिवेश बोध व युगीन यथार्थ को अभिव्यक्ति प्रदान की गई। आलोच्य युग में दुर्गा प्रसाद गुप्त द्वारा रचित ’गौतम-अहल्या‘ में अहिल्या द्वारा शीलभंग और अनुचित विवाहेतर-संबंधांे के दुष्परिणामों से जोड़कर वर्णित किया गया। वहीं तुलसीदत्त शैदा कृत ’जनक नंदिनी‘ में राम को सीता के चरित्र संदेह करने के माध्यम से सहज मानवीय शंकालु वृत्ति सहित वर्णित किया गया है।आगा हश्र कश्मीरी द्वारा रचित ’सीता बनवास‘ में सीता के माध्यम से आधुनिक युग की विद्रोहिणी व जागरूक नारी जो पुरुष वर्ग की दासी और यंत्रणाओं के विरोध में स्वतंत्र अस्तित्व के रूप में उद्घोषणा करते हुए दिखाया गया है तथा विभीषण प्रसंग के द्वारा घर-भेदिया प्रवृत्ति को उजागर किया गया है। सेठ गोविन्ददास द्वारा लिखित ’कर्तव्य‘ (पूर्वाद्ध) में कर्म-निष्ठता व कर्तव्य प्रियता के साथ मानवीय दुर्बलताओं के साथ वर्णित किया गया है। आलोच्य कृति में सेठ गोविन्ददास ने जातिवाद की समस्या, लोकतांत्रिक शक्ति, बहु-विवाह जैसी समस्याओं को प्रभावी रूप में चित्रित किया है। आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने ’मेघनाद-वध‘ में साहित्य के राक्षसी पात्र को मानवीय विशेषताओं से सम्पन्न उज्ज्वल चरित्र युक्त दिखाया है। देवराज दिनेश कृत ’रावण‘ में रावण को ’नायक‘ के रूप में वर्णित कर उसके चरित्र के दूसरे पक्ष, पण्डित गौरीशंकर कृत ’शबरी अछूत‘ के माध्यम से जातिवाद तथा पृथ्वीनाथ शर्मा की ’उर्मिला‘ में रामकथा की उपेक्षिता के हृदयोद्गारों व रघुकुल की निन्दा करते हुए वर्णित किया गया है।
रामवृक्ष बेनीपुरी कृत ’सीता की माँ‘ में सीता के पृथ्वी से उत्पन्न होने वाली घटना को बौद्धिक धरातल प्रदान करने व अंत में सीता के धरती में समा जाने की घटना के लिए राम को दोषी ठहराया है। सीताराम चतुर्वेदी कृत ’शबरी‘ में तत्कालीन परिवेश व रावण द्वारा सीता हरण की घटना को, अंग्रेजों द्वारा भारत की आजादी छीनने से समानता के रूप में वर्णित कर देश को आजाद कराने महत् प्रेरणा से मंडित किया है। सदगुरूचरण अवस्थी ने ’मंझली-राणी‘ में कैकेयी केा भारतीय संस्कृति की रक्षा हेतु, दो वर माँग कर राम को वनवास भेजने के रूप में वर्णित किया है।जगदीशचन्द्र माथुर कृत ’दशरथनन्दन‘ में तुलसीकृत मानस को जनसामान्य की भाषा में प्रस्तुत किया है। नरेन्द्र कोहली कृत ’शंबूक की हत्या‘ में शंबूक को सत्य के प्रतीक और कुसुमकुमार कृत ’रावण-लीला‘ में समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार व सामाजिक अंतर्विरोधों को वर्णित व नारी गौरव तथा डॉ० रामकुमार वर्मा कृत ’राजरानी सीता‘ के माध्यम से अतिमानुषी प्रसंगों को बौद्धिक व तर्कपूर्ण धरातल पर प्रतिष्टित किया है।विद्यानिवास मिश्र कृत ’मेरे राम का मुकुट भीग रहा है‘ में तत्कालीन विसंगतियों लक्ष्मीनारायण लाल कृत ’राम की लड़ाई‘ में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय समाज में व्याप्त अव्यवस्था, अफसरशही, सत्ता की सामंतवादी प्रवृत्ति, भ्रष्टाचार, दल-बदल की नीति, बेरोजगारी, शोषण और जातिगत विसंगतियों की उन्मूलन और मानवतावाद की प्रतिष्ठा का सफल चित्रण किया है।
भारत भूषण अग्रवाल कृत ’अग्निलीक‘ एक काव्य नाटक है इस कृति में भारत भूषण अग्रवाल जी ने रामकथा की मिथकीय आयाम प्रदान करके आधुनिक युग-परिवेशनुसार चित्रित किया है इस रचना में ’राम‘ को सामन्तवादी प्रवृत्तियों के समर्थक और राज्य-लोभी के रूप वर्णित कर राम के चरित्र के अन्तर्विरोधों की खोज की है। उन्होंने ’चारण‘ नामक पात्र की आदिवासी समूह के प्रतीक के रूप में नवीन सृष्टि और सीता परित्याग की घटना की मुक्त कंठ से निंदा की है।’अग्निलीक‘ की कथावस्तु पौराणिक होते हुए भी आधुनिक जीवन की संभावनाओं से पूर्ण हैं। इसमें रचनाकार ने शंबूक के माध्यम से जाति-वर्ग वैषम्य का सजीव चित्रण किया है। राम के चरित्र का विश्लेषण भारत भूषण अग्रवाल ने बौद्धिकता व तर्क के आधार पर किया है। राम सत्ताधारी वर्ग के प्रतीक के रूप में वर्णित हैं। यहाँ राम को लोकावतारी, अलौकिक की जगह लौकिक धरातल पर मानवीय दुर्बलताओं से युक्त वर्णित किया गया है। रथवान के रूप में प्रजा के दुःख को अग्रवाल जी ने वर्णित किया है जिसमें राम के आदर्श राम राज्य की पोल को खोल कर रख दिया है-“मेरा दुःख यही है / कि मैं राम की प्रजा हूँ।” (अग्निलीक)।यहाँ तक कि रथवान, राम के स्वभाव पर प्रश्न करते हुए कहते हैं-“जब राम वन गये थे / तो भरत वैरागी हो गये / और जब सीता बन में गई / तो राम!”(अग्निलीक)। यहाँ भारत भूषण जी ने सैद्धांतिक रूप से पुरुष व नारी को परस्पर सहधर्मो मानने की बात की वास्तविकता में विपरीत होने की बात को खोल कर रख दिया है। राम के ’अश्वमेघ यज्ञ‘ को राम की ’युद्ध-लिप्सा‘ और ’यश-लिप्सा‘ को उजागर किया है। राज्य में अभाव, पीड़ा, दुःखों से ग्रस्त होने पर भी राम राज्य-कल्याण की उपेक्षा रक्तपर्व रूपी राज्य की सीमाओं की विस्तार देने में व्यस्त हैं। सीता कहती हैं- “हुँह, विजय यात्रा, / अश्वमेघ! / युद्ध लिप्सा! / किसका कौन से हित हैं इस बल प्रदर्शन में, इस रक्त पर्व में! (अग्निलीक)।
नाटक की भूमिका में नेमिचन्द्र जैन ने नाटक की विशेषता के बारे बताते हुए लिखा है- “इस नाटक में भारत भूषण अग्रवाल ने राम के चरित्र के अंतर्विरोधों की विशेष रूप से पड़ताल करता चाहते थे जो एक ओर निजी जीवन में उनके सीता के प्रति और दूसरी ओर सामाजिक स्तर पर शंबूक के प्रति जाहिर होते हैं। विशेषकर राजनेता के रूप में वह राम को आदिवासी जातियों के विरुद्ध आर्यों के प्रतिनिधि के रूप में चित्रित करना चाहते थे। इस नाटक में देवी स्वयं सीता है और चारण आदिवासी समुदाय के मोहभंग और आक्रोश को सूचित करता है।”कथा के अंत में सीता के आत्म-हनन के बाद राम का अंतर्मन उन्हें धिक्कारता है। राम स्वयं अपने ईश्वरत्व का खंडन करते हुए साधारण मानव की भाँति अपनी कमियों को स्वीकार करते हैं – “पर मैं ईश्वर नहीं हूँ / मानव हूँ… / मैं अपने ही जनों से असम्पृक्त /एक आत्मलीन और स्वनिर्मित लोक में जिया हूँ।” (अग्निलीक)। अपनी पत्नी ’सीता‘ के खड्ड में गिर जाने और उसके प्रति किए गए अन्याय के लिए स्वयं को धिक्कारते हुए कहते हैं- “देवी, तुम धन्य हो! / जब यह अक्षम राम राजाधिराज बनकर / अपनी पत्नी से, प्रजा से, संतति से / और अपनी भूमि के जीवन से मुँह मोड़कऱ / तब तुम जीवन का अलख जगाती हुई / धरती की सच्ची संतान की भांति / धरती के जीवन से जुड़ी रहीं।“वहीं सीता, को आज की सामान्य नारी के रूप में वर्णित किया है जिसके मन में भी विवाहोपरांत छोटी-छोटी अनेक आशाएँ व आकांक्षाएँ थीं -“न जाने किस मिट्टी के बने हैं। /इन्होंने देखकर भी नहीं देखा, /सुनकर भी नहीं समझा। /दिन रात आठों पहर बस उन्हें एक ही धुन थी; /राज्य, राजनीति, संग्राम, विजय!” (अग्निलीक)। सीता, मृत्यु की गोद में जाने से पूर्व अपने जीवन की स्वयं स्वामिनी, किसी के हाथ की कठपुतली न रहकर स्वयं अपने विवेकानुसार चलने की घोषणा करती है। यहाँ नाटककार ने सीता के माध्यम से न्याय व सही जीवन मूल्यों व मानवीय मूल्यों व मानवीय मूल्यों के लिए जीवन तक न्यौच्छार करने का महान संदेश दिया है।