प्रियदर्शन
‘दैनिक भास्कर‘ में छपी एक ख़बर के मुताबिक अमेरिका की न्यू जर्सी की टीनेक डेमोक्रेटिक म्यूनिसिपल कमेटी ने साठ हिंदू संगठनों के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पारित कर इन पर आतंकवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाया है. रिपोर्ट के मुताबिक दो डेमोक्रेटिक सांसदों को अमेरिका में सक्रिय हिंदू संगठनों को मिलने वाले पैसे के स्रोतों की जांच करने को कहा गया है.
हालांकि खुद डेमोक्रैटिक पार्टी की राज्य इकाई इस प्रस्ताव से सहमत नहीं है. अमेरिका के दूसरे शहरों में भी इस प्रस्ताव का विरोध शुरू हो गया है. पहली ही नज़र में इस प्रस्ताव में एक ज़्यादती लगती है क्योंकि अभी तक दूर-दूर तक इस बात के प्रमाण नहीं हैं कि अमेरिका में सक्रिय एक-दो नहीं, साठ हिंदू संगठनों को एक साथ आतंकवाद का समर्थक करार दिया जाए. वहां के हिंदू संगठन इसे हिंदुओं को बदनाम करने की साज़िश बता रहे हैं.
लेकिन हिंदुओं को बदनाम कौन कर रहा है ? क्या सबसे ज़्यादा वही हिंदू लोग नहीं जो अचानक अपनी नई पहचान को लेकर कुछ ज़्यादा उत्साही और सक्रिय हो गए हैं ? यह अनायास नहीं है कि एशिया कप में हुए भारत-पाक मुक़ाबले के बाद ब्रिटेन के लेस्टर में दंगों जैसी नौबत आ गई. यह भी अनायास नहीं है कि अमेरिका में कई जगह हिदुओं पर नस्ली भेदभाव को बढ़ावा देने के आरोप लग रहे हैं.
ख़ासकर भारत के स्वाधीनता दिवस के अवसर पर अमेरिका में जिस तरह बुलडोज़र का प्रदर्शन किया गया, उस पर भी सवाल उठे. वहां जो जुलूस निकला, उसमें योगी आदित्यनाथ की तस्वीर के साथ ‘बाबा का बुलडोज़र’ शीर्षक से पोस्टर नज़र आते रहे. इस पूरे प्रकरण पर न्यू जर्सी में एडीसन के मेयर समीप जोशी ने एतराज़ किया. उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि ‘किसी भी तरह का भेदभाव प्रदर्शित करने वाली हरक़त स्वीकार्य नहीं होगी.’
यह वाकई एक वैध प्रश्न है कि अमेरिका में भारत का 76वां स्वाधीनता दिवस मनाने वाली जमात को योगी और उनका बुलडोज़र क्यों याद आया ? एक पराये देश में अपने देश की उपलब्धियों को बताने के लिए उनके पास बस इतना ही था ? यह भारतीयों की नई बनती ताक़त का गुमान था या भारतीयता की देगची में उफान मारते हिंदुत्व का गुरूर ? इससे भारत मज़बूत हुआ या कमजोर ?
अभी ये सवाल अप्रासंगिक लग सकते हैं. अक्सर ऐसे सवाल उठाने वालों को इन दिनों कुछ उपहास के साथ देखा जाता है. उन्हें बीजेपी विरोधी, मोदी विरोधी और प्रकारांतर में भारत-विरोधी बताया जाता है. यह माना जाता है कि ये वे लोग हैं जो भारत की उपलब्धियों से जल रहे हैं, ये वे लोग हैं जो भारत की वैश्विक मान्यता को पचा नहीं पा रहे हैं, ये वे लोग हैं जो ये देखकर नाखुश हैं कि भारत से दूसरे डरते हैं.
इसमें संदेह नहीं कि हाल के वर्षों में भारत की वैश्विक पहचान बड़ी हुई है लेकिन यह पहचान एक लगातार मज़बूत होती प्रक्रिया का नतीजा है. इसे सिर्फ़ मोदी राज या उदारीकरण का दरवाज़ा खोलने वाले मनमोहन राज की उपलब्धि के तौर पर देखना इस प्रक्रिया को समझने और भारतीयता की वास्तविक ताकत को पहचानने से इनकार करना है.
दरअसल यह याद दिलाने वाले बहुत सारे लोग हैं कि साल 1990 में एक ऐसा समय भी आया था जब हमें अपना सोना गिरवी रखना पड़ा था. निश्चय ही वह भारत के लिए बड़ा आर्थिक संकट था, लेकिन वह ऐसा राष्ट्रीय संकट नहीं था जिससे भारत के टूटने की कल्पना की जाए. पचास और साठ के दशकों से बनता हुआ भारत भले बीच में ठहराव का शिकार रहा हो, लेकिन उसकी अंतरराष्ट्रीय मान्यता और हैसियत लगातार बनी रही.
शीतयुद्ध के दौर में दो खेमों में बंटी दुनिया में नेहरू ने गुटनिरपेक्षता की जो लकीर खींची, वह आज भी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में अलग हैसियत रखती है. परमाणु परीक्षणों के अधिकार को लेकर अरसे तक भारत का जो स्वतंत्र रुख रहा, दुनिया उसकी सराहना करती रही. तिब्बत के सवाल पर भारत ने जो साहस भरा रवैया अख़्तियार किया, वह भी ऐतिहासिक है. 1971 में बांग्लादेश के निर्माण में भारत की भूमिका का कोई समानांतर उदाहरण नजर नहीं आता. भारतीय डॉक्टरों और वैज्ञानिकों का लोहा दुनिया पहले से मानती रही.
बेशक, वह एक गरीब भारत था लेकिन स्वाभिमानी भारत था. आर्थिक तौर पर भी याद करना चाहें तो इतनी घनघोर असमानता का शिकार भारत नहीं था. बीते जिन 25 वर्षों को भारतीय अर्थव्यवस्था की नई छलांग के तौर पर देखा जाता है, उसमें तीन लाख किसानों ने खुदकुशी कर ली. यह सिलसिला देवगौड़ा, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह से होता हुआ नरेंद्र मोदी के राज तक बदस्तूर जारी है. इस तकलीफदेह सच्चाई से आंख चुरा कर एक चमकते-दमकते, शक्तिशाली भारत का मिथ तैयार करने वाले ही दरअसल ‘बाबा का बुलडोजर’ लेकर अमेरिका की सड़क पर निकल सकते हैं और जो झांसा यहां खाते हैं, वही वहां दे सकते हैं.
निश्चय ही आज के भारत की हैसियत बहुत बढ़ी है लेकिन इस हैसियत को एक तबके के गुमान में बदलने से रोकना होगा. यह ख़बरें बहुत अच्छी लगती हैं कि दुनिया के तमाम शहरों में भारतीय पर्व होली, दिवाली, दुर्गा पूजा और छठ मनाए जा रहे हैं, दुबई में विराट मंदिर बन गया है, लेकिन इस हैसियत को एक रचनात्मक मूल्य में बदलने की ज़रूरत है, न कि एक संकीर्ण दृष्टि में कि हर जगह हिंदुत्व का बोलबाला है.
दरअसल दुनिया में बढ़ते भूमंडलीकरण के साथ-साथ संस्कृति और भूगोल की सरहदें भी टूट रही हैं. पर्व-त्योहार भी सार्वधार्मिक और सार्वदेशिह हो चुके हैं. न दिवाली बस हिंदुओं की बची है, न ईद मुसलमानों की और न ही क्रिसमस बस ईसाइयों का बल्कि इस दुनिया में वे आगे हैं जो अपनी धार्मिक पहचानों के साथ चिपके न रहते हुए आधुनिक हो रहे है. इसकी सबसे अच्छी मिसाल बाज़ार सुलभ कराता है जो दिवाली के मौक़े पर हिंदू, ईद के मौक़े पर मुसलमान और क्रिसमस के मौक़े पर ईसाई हो उठता है और अगर दो-दो पर्व साथ आते दिखें तो साझा तहज़ीब की भी वकालत करने लगता है.
अरसे तक हिंदी सिनेमा में यह उदारता और कामना बची हुई थी कि हीरो जॉन, जानी, जनार्दन हो सकता था और फिल्म अमर, अकबर, ऐंथनी बन सकती थी. दीवार के नायक को 786 नंबर का बिल्ला बचा सकता था और अमर, अकबर, ऐंथनी में ठोकर खाती अंधी मां साईं बाबा के मंदिर में पहुंच कर रोशनी हासिल कर सकती थी. उसके पहले साहिर जैसा शायर लिख सकता था – तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा.
लेकिन इंसान की औलादें इन दिनों हिंदू-मुसलमान बनने पर तुली हुई हैं. हिंदू तो जैसे बिल्कुल आंख पर पट्टी बांध कर हिंदू होना चाहते हैं. अब वे हर गैर-हिंदू निशानी पर संदेह और सवाल कर रहे हैं. उन्हें लग रहा है कि जो उदार हिंदुस्तान बनाया गया, वह गलत हुआ. उन्हें लग रहा है कि उदारता के नाम पर मुस्लिम संस्कृति को बहुत बढ़ावा दिया गया.
वे नौशाद जैसे संगीतकार पर भी शक कर रहे हैं कि वे हिंदुओं से चिढ़ते थे. वे याद नहीं कर रहे कि नौशाद के सबसे अच्छे गीत लता मंगेशकर के स्वर में हैं. वे यह भी याद करने को तैयार नहीं हैं कि नौशाद और मोहम्मद रफ़ी ने भारतीय स्मृति में बचे रहने वाले सबसे अच्छे भजन संगीतबद्ध किए और गाए हैं. वे यह नहीं सोच रहे कि जो भाषा वह बोल रहे हैं वह किसी आदिकालीन भारत से नहीं आई है, उसमें बहुत सारा पानी उर्दू का भी मिला हुआ है.
वे यह ध्यान नहीं देते कि जो कपड़े वे पहनते हैं, जो खाना वे खाते हैं, उसमें बीते एक हज़ार साल के दौरान विकसित हुई संस्कृति का कितना बड़ा हाथ है. इसको पूरी तरह काट कर नमूनों की तरह लगेंगे. लेकिन इन्हें इसकी परवाह नहीं है. अब वे गरबा में आए मुस्लिम लड़कों को पीटते हैं. वे गाय खरीदने-बेचने वालों को गो-तस्कर और गो-भक्षक बता कर मारते हैं. वे पहचान पूछ कर या न बताए जाने पर भी हत्या कर सकते हैं.
इससे अभी अल्पसंख्यक ख़तरे में महसूस कर रहे हैं लेकिन जब इन अल्पसंख्यकों को यह हिंदू बहुमत सबक सिखा चुका होगा तो फिर किसे सबक सिखाने निकलेगा ? हमारी तरह के उन तथाकथित ‘लिबरलों’ को, जो जन्म की पहचान से हिंदू तो हैं लेकिन उनकी राजनीति और उनके कायदे मानने को तैयार नहीं हैं. फिर जब हमारी तरह के लोगों को सबक सिखा लिया जाएगा तो फिर किसे सिखाया जाएगा ? उन हिंदुओं को जो धर्म के नाम पर तो उनका साथ देते हैं, लेकिन आचार-व्यवहार में आधुनिक तौर-तरीक़े अपनाते हैं, अपनी बहू-बेटियों को नियंत्रण में नहीं रखते.
जब इन्हें सबक सिखा लिया जाएगा तो बहू-बेटियों की बारी आएगी (या पहले भी आ सकती है) जिन्हें ढंग के कपड़े पहनना सिखाया जाएगा. अभी हिजाब हटाने के हामी लोग कल आंचल और घूंघट लेना सिखाएंगे. इन सबके बीच कहीं उन फिल्मों और गीतों की बारी आएगी जिनकी वजह से लड़के बिगड़ रहे हैं. हो सकता है, इसके बाद राजनीति और सेना के हिंदूकरण की मुहिम भी शुरू हो.
फिलहाल यह बहुत दूर घटित होती प्रक्रिया लगती है लेकिन बहुत उदार इस्लामी देशों में भी यह प्रक्रिया लगभग इसी तरह घटित हुई है. सत्तर के दशक तक ईरान बहुत प्रगतिशील था. मोहम्मद शाह रज़ा पहलवी ने ईरान को बिल्कुल पश्चिमी ढंग से ढाला था लेकिन सत्तर के दशक में जब उसके ख़िलाफ़ विद्रोह शुरू हुआ तो उसमें एक तरफ़ कट्टर धार्मिक जमातें थीं और दूसरी तरफ़ कम्युनिस्ट थे. सत्ता आयतुल्ला खुमैनी के हाथ आई जिसके बाद ईरान को बदलने की मुहिम शुरू हो गई. अब उस ईरान के ख़िलाफ़ वहां की लड़कियां सड़क पर हैं और नाचती हुई अपने हिजाब जला रही हैं.
यही नियति काफ़ी कुछ तुर्की को भी झेलनी पड़ी है. कमाल अता तुर्क ने जो आधुनिक राष्ट्र बनाया था उसको अब एर्देगॉन बदलने में लगे हैं. वहां अब रमज़ान के दौरान खाते दिखने वाले लोगों की पिटाई होती है, शॉर्ट पहन कर निकली लड़कियों को चाबुक मारे जाते हैं. जब विपक्ष इन सबकी आलोचना करता है तो इसे ‘फ्रिंज एलिमेंट्स’ की कारस्तानी बताया जाता है.
पाकिस्तानी लेखक मोहम्मद हनीफ का उपन्यास ‘अ केस ऑफ़ एक्सप्लोडिंग मैंगोज़’ जनरल जिया उल हक़ के समय पाकिस्तान को बदले जाने की प्रक्रिया का भी गवाह बनता है. उपन्यास के एक दृश्य में जिया उल हक़ पाक सेना के अफ़सरों को अल्लाह और मज़हब का पाठ पढ़ाने की कोशिश कर रहा है और पाकिस्तानी सेना के तब तक बिल्कुल पेशेवर रहे अफ़सर हैरान हैं कि उन्हें क्या सिखाया जा रहा है. क्या इत्तिफ़ाक है कि हमारे यहां भी सेना के तौर-तरीक़ों के भारतीयकरण की बात उठी है जो बिल्कुल उचित है, लेकिन यह ज़रूरी है कि इस भारतीयकरण को हिंदूकरण होने से रोका जाए.
कहा जा सकता है कि जो ईरान, पाकिस्तान और तुर्की में हुआ, वह हमारे देश में क्यों न हो ? इसका बस एक संक्षिप्त सा जवाब यह है कि क्योंकि इन देशों में इन बदलावों ने आम जनता की ज़िंदगी को कहीं ज़्यादा संकट में डाला. उसके ज़रूरी सवाल उससे दूर होते चले गए, उसके रचनात्मक उद्यम फीके पड़ते चले गए और एक तरह की कट्टरता का साया राष्ट्रीय मानस पर छाता चला गया.
पश्चिमी देशों में या अमेरिका में अब तक ख़ुद को इस्लामपरस्त बताने वाले संकट ही संदेह के घेरे में रहते थे. यह पहली बार है जब हिंदूवादी संगठनों को यह तोहमत झेलनी पड़ रही है. जाहिर है, वहां के मानस में पैठी हिंदू छवि बदल रही है, इससे खुश नहीं, चिंतित होना चाहिए. जिस भारतीय मेधा का दुनिया सम्मान कर रही है, वह उसकी वैज्ञानिकता के चलते कर रही है, अगर उसे पता चलेगा कि यह वैज्ञानिकता महज तकनीकी है और दिमाग़ी तौर पर यहां भी वही कट्टरता भरी है तो वह फिर ऐसे लोगों को संदेह से देखेगी. बदलते हुए हिंदुस्तान को इस तरह बदलने से रोकना ज़रूरी है.